महिलाओं को कमतर दिखाने की कोशिश: महिलाएं कितनी भी शिक्षित क्यों न हों उन्हें पुरुषों के अपेक्षाकृत नौकरी का माना जाता है कम हकदार

आइएलओ की रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी को ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। देशकाल की सीमाओं से परे दुनिया भर में आपदा अपने चाहे किसी भी स्वरूप में क्यों न आए उसके सर्वाधिक दुष्परिणाम आधी आबादी यानी महिलाओं के हिस्से में आते हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 02 Aug 2021 04:55 AM (IST) Updated:Mon, 02 Aug 2021 04:55 AM (IST)
महिलाओं को कमतर दिखाने की कोशिश: महिलाएं कितनी भी शिक्षित क्यों न हों उन्हें पुरुषों के अपेक्षाकृत नौकरी का माना जाता है कम हकदार
कोविड-19 ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी को ज्यादा नुकसान पहुंचाया

[ ऋतु सारस्वत ]: देशकाल की सीमाओं से परे दुनिया भर में आपदा अपने चाहे किसी भी स्वरूप में क्यों न आए, उसके सर्वाधिक दुष्परिणाम आधी आबादी यानी महिलाओं के हिस्से में आते हैं। इसकी पुष्टि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) की हालिया रिपोर्ट से होती है। आइएलओ की रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी को ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। एक ओर वे महिलाएं हैं जिन्हें उनके नियोक्ताओं ने आर्थिक मंदी के चलते काम से बाहर कर दिया और दूसरी ओर वे जिन्होंने बीते डेढ़ साल में पारिवारिक जिम्मेदारियों के निरंतर बढ़ते दबाव के कारण स्वयं रोजगार छोड़ दिए। अमूमन यह तर्क दिया जाता है कि जब महिलाएं काम से बाहर हो रही थीं तभी पुरुषों के भी रोजगार छीने गए इसलिए सिर्फ महिलाओं की बात करने का कोई औचित्य नहीं बनता है, परंतु क्या वास्तविकता इतनी भर है या इससे इतर कुछ सत्य ऐसे भी हैं, जिनकी चर्चा हम जानबूझकर नहीं करना चाहते?

महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले नौकरी का कम हकदार माना जाता है

क्या यह सच नहीं है कि महिलाएं कितनी भी प्रतिभाशाली और शिक्षित क्यों न हों उन्हें पुरुषों के मुकाबले नौकरी का अपेक्षाकृत कम हकदार माना जाता है? क्या यह सच नहीं है कि महिलाओं की पहली प्राथमिकता समाज द्वारा परिवार की देखभाल निश्चित की गई है। अगर पेशेवर जिम्मेदारियां किसी भी रूप में पारिवारिक जिम्मेदारियों के आगे अड़चन बनती हैं तो महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे त्वरित रूप से अपनी पेशेवर जिंदगी का त्याग करें। समाज महिलाओं के प्रति इससे भी कहीं अधिक निष्ठुरता बरतता है और उन्हें विकल्प के रूप में देखता है। एक ऐसा विकल्प जिसे आवश्यकता होने पर कार्यबल की मुख्यधारा में सम्मिलित किया जाता है और जब जरूरत समाप्त हो जाए तो पुन: हाशिये पर धकेल दिया जाता है।

घरेलू महिलाएं उन फैक्ट्रियों में काम करने लगीं, जहां खतरनाक विस्फोटक सामग्री बनती थी

इस तथ्य की तह प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध खोलते हैं। 18वीं सदी तक स्त्री को घरेलू दायरों तक सीमित करने वाली वैश्विक सोच यकायक प्रथम विश्व युद्ध के समय तब परिर्वितत हो गई जब सभी स्वस्थ पुरुष सेना में शामिल होने के लिए चले गए। पुरुषों द्वारा खाली जगह की भरपाई महिलाओं द्वारा करने के लिए मुहिम चलाई गई। महिलाओं को राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्य और उनकी विपुल क्षमताओं को याद दिलाया गया। महिलाओं से श्रमबल का हिस्सा बनने के लिए आह्वान किया गया। जिन महिलाओं में मारक क्षमता, आक्रामकता और हिंसक प्रवृत्ति के अभाव का उलाहना देकर उन्हें कमजोर और डरपोक कहा जाता रहा था वे महिलाएं उन सारी धारणाओं को गलत सिद्ध करते हुए उन फैक्ट्रियों में काम करने लगीं, जहां खतरनाक विस्फोटक सामग्री बनती थी। यहां काम करते हुए उनकी त्वचा पीली पड़ गई जिससे उन्हें ‘कैनरी’ उपनाम दिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में 60 लाख महिलाओं ने भूमिकाएं निभाईं, जिन पर पुरुषों का वर्चस्व था

परिवहन, अस्पताल और वे तमाम क्षेत्र, जो पुरुषों के एकाधिकार माने जाते थे महिलाओं की उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे। यहां तक कि छह हजार रूसी महिलाएं ‘बटालियन आफ डेथ’ का हिस्सा बनीं, परंतु जैसे ही युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ा ‘द रेस्टोरेशन आफ प्री-वार प्रैक्टिस एक्ट-1919’ ने महिलाओं पर दबाव बनाया कि वे अपने पद छोड़ दें जिससे विश्व युद्ध से लौटे सैनिक पुन: अपना कार्यभार ग्रहण कर सकें और ऐसा हुआ भी। वे महिलाएं जिन्होंने पुरुषों के समकक्ष ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया उन्हें सिर्फ इसलिए कार्यबल से हटा दिया गया, क्योंकि इस पर पुरुषों का अधिकार माना गया। द्वितीय विश्व युद्ध में इतिहास पुन: दोहराया गया। इस दौरान 60 लाख महिलाओं ने तमाम ऐसी भूमिकाएं निभाईं, जिन पर पुरुषों का वर्चस्व था, परंतु युद्ध समाप्ति के बाद सांस्कृतिक रूढ़िवादियों ने उन पर दबाव बनाया कि वे नौकरी छोड़ दें। यहां तक कि जिन महिलाओं ने ऐसा करने की अनिच्छा जाहिर की, उनको ‘फूहड़’ कहा गया।

चार्ल्स डार्विन ने कहा था- स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले जैविक रूप से कमजोर होती हैं

एक सदी बीत जाने के बाद भी रूढ़िगत मानसिकता की जकड़बंदी आज भी यथावत कायम है। इस सोच का केंद्र बिंदु वर्चस्व के उस भाव से है, जिसकी उत्पत्ति का स्रोत आर्थिक स्वावलंबन है। यह सर्वविदित सत्य है कि वित्तीय स्वतंत्रता एक ऐसी आवाज देती है जिसे परिवार, समुदाय और देशव्यापी रूप से सुना जाता है। सत्ता और प्रभाव के इस सुख को पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था किसी भी स्थिति में बनाए रखना चाहती है। पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था में बुद्धिजीवी वर्ग की उपस्थिति महिलाओं के मानसिक और भावनात्मक बल को न केवल क्षीण करती है, अपितु उन्हें यह विश्वास भी दिलाती है कि तथाकथित रूप से आर्थिक संसाधनों पर पुरुषों का ही एकाधिकार सामाजिक संतुलन के लिए आवश्यक है। 1972 में लियोनेल टाइगर और राबिन फाक्स ने अपनी किताब ‘द इंपीरियल एनिमल’ में जैविक सिद्धांत की व्याख्या की और कहा कि ‘लैंगिक श्रम विभाजन जैविक या वंशानुगत होता है। स्त्री पर पुरुष का आधिपत्य लैंगिक जैविक विशेषता है।’ दरअसल मानव सभ्यता को जन्मना बताकर यथार्थ को तोड़-मरोड़कर पेश करने की चेष्टा पहली बार नहीं की गई है। 1971 में चार्ल्स डार्विन ने भी कहा था कि स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले जैविक रूप से कमजोर होती हैं।

सभ्यता के विकास की अधूरी और अमानवीय परिभाषा

ये तमाम बातें किसी भी वैज्ञानिक शोध से आज तक सिद्ध नहीं हो सकी हैं। अलबत्ता विज्ञानियों ने दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वतमाला में नौ हजार साल पुराने एक ऐसे स्थान का पता लगाया जहां महिला शिकारियों को दफनाया जाता था। इस खोज ने उन सभी दावों को एक सिरे से खारिज कर दिया, जो महिलाओं की भूमिका को आदिम काल से ही परिवार और बच्चों की देखभाल तक सीमित कर रहे थे। यह अकाट्य सत्य है कि एक सामाजिक प्रक्रिया के बतौर श्रम के लैंगिक विभाजन के फलस्वरूप महिलाएं भी सामाजिक लिंग रचनाओं को अपने मन मस्तिष्क पर बैठा चुकी हैं, परंतु क्या यह सभ्यता के विकास की अधूरी और अमानवीय परिभाषा नहीं है?

( लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं )

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