पानी बनाया नहीं जा सकता है इसलिए उसे सहेजना आने वाले कल के लिए बेहद जरूरी

भले ही पानी बनाने की कच्ची सामग्री हमारे आस-पास भरपूर मात्रा में हो मगर पानी बनाया नहीं जा सकता। ऐसे में उसका उपयोग जिम्मेदारी से करना हमारी प्राथमिकता में होना बेहद जरूरी है।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Sun, 05 Jul 2020 10:50 AM (IST) Updated:Sun, 05 Jul 2020 01:36 PM (IST)
पानी बनाया नहीं जा सकता है इसलिए उसे सहेजना आने वाले कल के लिए बेहद जरूरी
पानी बनाया नहीं जा सकता है इसलिए उसे सहेजना आने वाले कल के लिए बेहद जरूरी

नई दिल्ली [सोपान जोशी]। भले ही पानी बनाने की कच्ची सामग्री हमारे आस-पास भरपूर मात्रा में हो मगर पानी बनाया नहीं जा सकता। ऐसे में उसका उपयोग जिम्मेदारी से करना हमारी प्राथमिकता में होना बेहद जरूरी है...

मानसून ने दस्तक दे दी है।

प्रकृति का सबसे अनमोल तोहफा इन दिनों हमारी झोली में बरस रहा है। पानी के बारे में सबसे जरूरी बात यह है जो हर साधारण हिंदुस्तानी और हर बढ़िया विज्ञानी भी जानता है कि ‘पानी बनाया नहीं जा सकता।’ आज भले ही आधुनिक विज्ञान ने अकल्पनीय तरक्की कर ली है। हम अणु के भीतर परमाणु को भेदकर उससे ऊर्जा निकाल लेते हैं। प्रयोगशालाओं में ऐसे मूल तत्व भी बन गए हैं जो प्रकृति में पाए भी नहीं जाते, इसके बावजूद हम जल नहीं बना सकते।

जल का रासायनिक स्वभाव बच्चों को भी पता होता है। एक कण ऑक्सीजन का और दो कण हाइड्रोजन के और बना गया ‘एच-टू-ओ’ अर्थात पानी। ये दोनों ही तत्व वायुमंडल में बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। हमारे ब्रह्मांड का तीन-चौथाई हिस्सा हाइड्रोजन से बना है, यानी 75 प्रतिशत और ऑक्सीजन तीसरा सबसे व्यापक पदार्थ है। शुद्ध पानी की किल्लत की वजह से पानी बेचने का बाजार व्यापक रूप से फैला हुआ है। फिर सवाल उठता है कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलाकर जल बनाने के उद्योग क्यों नहीं खुले? 

इसका सीधा जवाब है क्योंकि दोनों तत्वों को मिलाने भर से काम नहीं बनता। इसके लिए बहुत सारी विस्फोटक ऊर्जा चाहिए। अगर हम इतने बड़े विस्फोट करेंगे, तो उससे बहुत नुकसान होगा इसीलिए तमाम प्रयोगों के बावजूद जल उत्पादन का उद्योग खड़ा नहीं हो सका है। अंतरिक्ष में बड़े-बड़े तारों के गर्भ में इतनी ऊर्जा होती है जिसकी विज्ञानी गणना क्या, कल्पना भी नहीं कर पाते हैं।

अंतरिक्ष के दैत्याकार सितारों की तुलना में हमारा सूर्य एक छोटा सा तारा है। फिर भी वह एक दिन के भीतर इतनी ऊर्जा छोड़ता है जितनी बिजली कुल दुनिया में साल भर में नहीं बनाई जा सकती। इसी तरह की ऊर्जा ने अंतरिक्ष में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाकर पानी बनाया होगा। विज्ञानियों का अनुमान है कि सौरमंडल बनने के दौरान यह पानी उल्का पिंडों पर जमी हुई बर्फ के रूप में पृथ्वी तक आया। आज जो भी पानी पृथ्वी पर है वह तभी से हमारे ग्रह पर है। जो बूंदें आज हमारे शरीर में खून के रूप में बह रही हैं, हो सकता है वही बूंदें एक समय में डायनासॉर के शरीर में भी थीं।

संभवत: जल के वही कण अंटार्कटिका के हिमनद में मौजूद हैं। आपने जो पानी आज पिया होगा, उसमें घूंट भर अंतरिक्ष भी रहा होगा। ऐसे में स्पष्ट है कि अगर हम पानी बना नहीं सकते, तो फिर उसका उपयोग जिम्मेदारी से करना बेहद जरूरी हो जाता है। यह सबक हर किसी को पता था, चाहे उनके पास अंतरिक्ष से आए पानी की जानकारी न भी रही हो। पहले समय में जल स्रोतों का सम्मान होता था, लोग पानी के लिए नदी-तालाब आदि तक जाते थे और उनका इस्तेमाल करते समय कृतज्ञ रहते थे। आधुनिकता के दौर ने जल स्रोतों को पाइप के जरिए घर-घर तक पहुंचा दिया है।

आज समाज का एक बड़ा हिस्सा इन जल स्रोतों तक जाता ही नहीं है। नल के रास्ते जल स्रोत उनके घर आ चुके हैं। यही आज आदर्श स्थिति है। सरकारें भी इस प्रयास में हैं कि हर किसी के घर में नल से पानी मिलने की सुविधा हो। स्थिति यह है कि कुल जितना पानी इस्तेमाल होता है, उसका 80 फीसदी गंदा होकर नाली में बह जाता है। 

सस्ते और सुविधाजनक पानी की यह दुविधा है। इसे साफ करना बहुत महंगा सौदा है। करोड़ों रुपए की विशाल पाइपलाइन और पंपिंग-घर के सहारे हम दूर से पानी खींचकर शहरों में लाने लगे हैं। घरों के पीने के पानी को साफ करने के लिए भी महंगे यंत्र लगे हैं किंतु मैले पानी को साफ करने का खर्च न तो नागरिक देना चाहते हैं, न नगरपालिकाएं और न ही सरकारें। कृतघ्न हो गए समाज की यह अनाथ दुविधा है।

यह मैला पानी हमारी गंदगी को ढोकर सीधे नदियों या भूजल में डाल देता है। देशभर के नदी-तालाब सीवर बन चुके हैं। सफाई अभियानों में स्वच्छता की कीमत जल स्रोत ही चुकाते हैं। कई गांवों-शहरों के भूजल में मल-मूत्र के कण पाए जाने लगे हैं। यह समस्या हर दिन बढ़ रही है। एक बार जल स्रोत पूरी तरह सीवर बन जाते हैं, तब जाकर उनकी सफाई की बातचीत शुरू होती है। नदियों की सफाई में हजारों-करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं लेकिन नदियां साफ नहीं होतीं क्योंकि विकास के नाम पर उनके प्रदूषण के लिए इससे कहीं बड़े खर्चे होते हैं।

हालांकि कोविड-19 ने दिखा दिया कि नदियां साफ करने का तरीका एक ही है कि उन्हें मैला ही न किया जाए।

जब हम अपनी सीमाएं मानते थे, तब विकास को प्रकृति के हिसाब से सीमित रखना भी जानते थे। तब हमारे भीतर असीम विकास की निरंकुश वासना नहीं थी। सुविधा का ऐसा सम्मोहन नहीं था, बल्कि असुविधा को भी अपनाने का पुरुषार्थ था। हम चाहें तो पूर्वजों से आज भी सीख सकते हैं। आधुनिक विज्ञान भी यही बता रहा है। जल बनाना हमें आता नहीं है तो कम से कम पानी लूटना और बर्बाद करना तो हम रोक ही सकते हैं! 

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