सीएए के खिलाफ हिंसक आंदोलन में वाहन जलाए गए, संपत्तियां फूंकी गई शांतिपूर्ण बताना मजाक है

एक और चिट्ठी आई है। इस बार यह दिल्ली के भीषण दंगों के आरोपित उमर खालिद के बचाव में आई है। यह चिट्ठी दो सौ से अधिक बुद्धिजीवियों और कलाकारों की ओर से जारी हुई है। सीएए विरोधी आंदोलन को शांतिपूर्ण बताना मजाक ही नहीं शरारत भी है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 30 Sep 2020 06:20 AM (IST) Updated:Wed, 30 Sep 2020 06:20 AM (IST)
सीएए के खिलाफ हिंसक आंदोलन में वाहन जलाए गए, संपत्तियां फूंकी गई शांतिपूर्ण बताना मजाक है
एक और चिट्ठी आई है दिल्ली के भीषण दंगों के आरोपित उमर खालिद के बचाव में।

[ राजीव सचान ]: एक और चिट्ठी आई है। इस बार यह दिल्ली के भीषण दंगों के आरोपित उमर खालिद के बचाव में आई है। यह चिट्ठी दो सौ से अधिक बुद्धिजीवियों और कलाकारों की ओर से जारी हुई है और उसके जरिये यह मांग की गई है कि उमर खालिद को रिहा कर दिया जाए। इन बुद्धिजीवियों में कई बड़े नाम हैं, जिनमें प्रमुख हैं-नॉम चॉम्स्की, सलमान रुश्दी, अमिताव घोष, रामचंद्र गुहा, मीरा नायर, रोमिला थापर, इरफान हबीब, मेधा पाटकर, अरुणा रॉय। बुद्धिजीवियों की इस सूची में एक बड़ी संख्या अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि में पढ़ाने वाले भारतीय और विदेशी मूल के शिक्षकों की भी हैं। इनमें वह अमेरिकी इतिहासकार ऑडरी ट्रस्चके भी हैं, जिन्होंने औरंगजेब को बेहद दयालु और भला शासक बताते हुए एक किताब लिखी है। इस चिट्ठी में तमाम लोग वही हैं, जिनके नाम इसके पहले भी सामने आती रही चिट्ठियों में मिलते रहे हैं।

शरारत भरी चिट्ठियां बोलती हैं कि संविधान खतरे में है

पता नहीं ऐसी चिट्ठी किसके इशारे पर लिखी जाती हैं, लेकिन उनकी भाषा से यही लगता है कि वे एक ही समूह या संस्था की उपज होती हैं, क्योंकि हर बार उनकी भाषा करीब-करीब एक सी होती है। ऐसी चिट्ठियां 2014 के बाद से कुछ ज्यादा ही जारी हुई हैं। इन चिट्ठियों का एक सदाबहार स्वर यह रहता है कि संविधान खतरे में है और असहमति की आवाज दबाई जा रही है। ताजा चिट्ठी में भी यही स्वर है। इसमें उमर खालिद के साथ-साथ नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन में भाग लेने के कारण कथित तौर पर गलत तरीके से गिरफ्तार किए गए दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी रिहा करने की मांग की गई है।

चिट्ठी कहती है- सीएए विरोधी आंदोलन स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे शांतिपूर्ण आंदोलन रहा

बुद्धिजीवियों की ओर से जारी चिट्ठी यह भी कहती है कि नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे शांतिपूर्ण आंदोलन रहा। इससे पहले कि इस चिट्ठी के ऐसे निष्कर्ष को आप मजाक समझें, यह जान लें कि उसमें यह भी लिखा है कि यह आंदोलन महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर आगे बढ़ा और इसने उस भारतीय संविधान की भावना को आत्मसात किया, जिसे डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में तैयार किया गया था।

सीएए विरोधी आंदोलन को शांतिपूर्ण बताना केवल मजाक ही नहीं, शरारत भी है

जिस घोर हिंसक आंदोलन में सैकड़ों वाहन जलाए गए, अरबों रुपये की सरकारी और गैर सरकारी संपत्ति फूंकी गई और दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश में दर्जनों पुलिसकर्मी घायल हुए, उसे शांतिपूर्ण बताना केवल मजाक ही नहीं, एक शरारत भी है। इस आंदोलन को शांतिपूर्ण कहना केवल गांधी जी का ही नहीं, आंबेडकर जी का भी अपमान है। क्या ये बुद्धिजीवी यह कहना चाहते हैं कि गांधी जी ऐसे आंदोलन करते थे, जिनमें कारों, बसों और ट्रेनों को जलाया जाता था? क्या आंबेडकर जी ने संविधान में ऐसा कुछ भी लिखा है कि अपनी मांग मनवाने के लिए किसी ऐसी सड़क पर कब्जा करके महीनों तक बैठा जा सकता है, जिससे हजारों लोग प्रतिदिन गुजरते हों?

सीएए के विरोध में दिल्ली समेत कई जगह हिंसा का नंगा नाच हुआ था

यह साफ है कि या तो उक्त चिट्ठी पर अपना नाम लिखाने वालों ने उसे पढ़ा नहीं या फिर वे भारत के लोगों को अल्पबुद्धि वाला समझ रहे हैं। सच जो भी हो। हाल के समय में इतनी वाहियात चिट्ठी देखने को नहीं मिली। ऐसी चिट्ठी वही लिख सकता है, जिसने यह मुगालता पाल लिया हो कि भारत के लोग छोटी याददाश्त वाले हैं और इस कारण वे तो यह भूल ही गए होंगे कि चंद माह पहले दिल्ली और शेष देश के अन्य हिस्सों में नागरिकता कानून के विरोध में हिंसा का कैसा नंगा नाच हुआ था?

उमर खालिद भारत में प्रतिरोध की एक बड़ी आवाज बनकर उभरा

ऐसे मुगालते में कोई हर्ज नहीं कि उमर खालिद भारत में प्रतिरोध की एक बड़ी आवाज बनकर उभरा है, क्योंकि कई लोग तो नक्सलियों को भी गांधी बताते हैं। अरुंधती रॉय ऐसा मानती भी हैं और लिखती भी हैं। इस पर हैरत नहीं कि नक्सलियों को बंदूकधारी गांधीवादी बताने वालीं अरुंधती रॉय का नाम भी इस चिट्ठी में है। वास्तव में हैरत तो तब होती जब इस चिट्ठी में उनका नाम छूट जाता। ये बुद्धिजीवी इस मुगालते से भी ग्रस्त नजर आते हैं कि उनकी हैसियत सुप्रीम कोर्ट जैसी है, क्योंकि उन्होंने उमर खालिद पर लगे आरोपों की नए सिरे से या अन्य किसी एजेंसी से जांच की मांग करने के बजाय सीधे-सीधे उसे रिहा करने की मांग कर दी।

गैर-जरूरी चिट्ठी बुद्धिजीवियों की जगहंसाई करा रही है

क्या अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी में ऐसा ही होता है कि गंभीर आरोपों में गिरफ्तार कोई व्यक्ति सौ-पचास लोगों की चिट्ठी जारी होते ही रिहा कर दिया जाता है? शायद इन बुद्धिजीवियों को यह पता नहीं या फिर उन्होंने इससे अनभिज्ञ रहने में ही अपनी भलाई समझी कि दिल्ली दंगों में 50 से अधिक लोग मारे गए थे। क्या वे यह कहना चाहते हैं कि इन 50 लोगों की मौतों के लिए कोई जिम्मेदार नहीं? सवाल यह भी है कि वे इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि उमर खालिद को झूठे आरोप में गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया है? क्या इस आधार पर कि खुद उमर ऐसा कह रहा है? हैरानी नहीं कि यह गैर-जरूरी चिट्ठी इन बुद्धिजीवियों की जगहंसाई करा रही है।

शरारत भरी चिट्ठियां लिखने का शगल

वास्तव में इस तरह की चिट्टी लिखना अब एक तरह का शगल बन गया है। यह एक धंधा भी लगता है, क्योंकि अब रह-रहकर ऐसी चिट्ठियां सामने आने लगी हैं। ऐसी एक और चिट्ठी चर्चा में भी है। इसे दिल्ली दंगों की जांच के सिलसिले में ही भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी जूलियो रिबेरो ने लिखा है। इसमें उन्होंने कहा है कि दिल्ली पुलिस उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है, जो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। उनका यह भी मानना है कि सच्चे देशभक्तों को आपराधिक मामलों में घसीटा जा रहा है। चूंकि अब इस तरह की चिट्ठियों का जवाब भी दिया जाता है इसलिए कई पूर्व पुलिस अधिकारियों ने रिबेरो को जवाबी चिट्ठी लिखकर पूछा है कि जब आप पंजाब में बुलेट के बदले बुलेट कह रहे थे तो वह क्या था?

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )

[ लेखक के निजी विचार हैं ]

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