संकीर्ण सोच और असंवैधानिक आचरण छोड़ राजधर्म का पालन करें उद्धव ठाकरे

दूसरे प्रांतों के लोगों की निगरानी से जुड़े महाराष्ट्र सरकार के निर्देश से लोगों के उत्पीड़न की आशंका बढ़ गई है संकीर्ण राजनीति का सहारा लेते उद्धव ठाकरे। शिवसेना संकीर्ण अस्मितावादी और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाले सबसे पुराने दलों में से एक है।

By TilakrajEdited By: Publish:Wed, 22 Sep 2021 08:07 AM (IST) Updated:Wed, 22 Sep 2021 08:07 AM (IST)
संकीर्ण सोच और असंवैधानिक आचरण छोड़ राजधर्म का पालन करें उद्धव ठाकरे
शिवसेना संकीर्ण अस्मितावादी और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाले सबसे पुराने दलों में से एक

प्रो. रसाल सिंह। बीते दिनों मुंबई में एक महिला दुष्कर्म की शिकार हुई और उसने उपचार के दौरान दम तोड़ दिया। इस वीभत्स अपराध की दिल्ली के निर्भया कांड से भी तुलना की गई। चूंकि इस अपराध के आरोपित की जड़ें उत्तर प्रदेश के जौनपुर से जुड़ी थीं, तो महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिवसेना को एक बार फिर उत्तर भारतीयों के खिलाफ प्रलाप का अवसर मिल गया। पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत ने इस अपराध को ‘जौनपुर पैटर्न’ करार दिया। इतना ही नहीं राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इसकी आड़ में पुलिस को दूसरे प्रांत के लोगों को चिन्हित करने और उनकी निगरानी का निर्देश देकर संकीर्ण राजनीति का परिचय दिया।

राउत जैसे नेता तो आए दिन अपने उलजुलूल बयानों के लिए चर्चा में रहते हैं, मगर मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर पर बैठे ठाकरे की बयानबाजी बड़ी विडंबना है। क्या वह मुंबई के आपराधिक अतीत एवं वर्तमान और कुख्यात अंडरवर्ल्ड को भूल गए जो मायानगरी में हो रहे अपराधों का ठीकरा दूसरे प्रांतों के लोगों पर फोड़ रहे हैं। क्या वह भूल गए कि मुंबई नगर को चमकाने में बाहरी लोगों ने कितना परिश्रम किया है। जो भी हो, शिवसेना का यह रवैया कोई नया नहीं है, लेकिन हैरानी तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी राकांपा जैसे दलों के इस मामले पर मौन को लेकर होती है जो गठबंधन सरकार में शिवसेना की साझीदार हैं। भाजपा ने जरूर इस मुद्दे पर प्रतिकार किया है।

राउत ने अपराधों का सामान्यीकरण करते हुए जिस ‘जौनपुर पैटर्न’ का जिक्र किया है, उसे समझने से पहले हमारे लिए राजनीति के ‘शिवसेना पैटर्न’ को समझना होगा। शिवसेना संकीर्ण अस्मितावादी और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाले सबसे पुराने दलों में से एक है। उपरोक्त आपराधिक घटना को स्थानीय बनाम बाहरी और मराठी बनाम प्रवासी का रंग जानबूझकर दिया जा रहा है। इसके मूल में वोट बैंक की राजनीति है। कुछ ही समय बाद बृहन्मुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी के चुनाव होने हैं। उसके मद्देनजर शिवसेना मराठा वोटों को लामबंद करने की फिराक में है। बीएमसी के पिछले चुनाव में भाजपा और शिवसेना के बीच कांटे की टक्कर हुई थी। उसमें शिवसेना बहुत मामूली अंतर से बाजी मार गई।

असल में बीएमसी मात्र एक स्थानीय निकाय न होकर देश की सबसे अमीर महानगरपालिका है। उसका सालाना बजट कई राज्यों की सरकारों से भी अधिक है। बीएमसी शिवसेना की सियासी ताकत का मूल आधार रही है। शिवसेना इस आधार को किसी भी कीमत पर नहीं गंवाना चाहती। भाजपा ने भी इस चुनाव के लिए तैयारी शुरू कर दी है। मुंबई में बड़ी तादाद में कोंकणी लोग रहते हैं। इसीलिए उन्हें साधने के लिए कोंकण के क्षत्रप नारायण राणो को केंद्रीय मंत्री बनाया गया है। इससे शिवसेना की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक है। इसके संकेत बीते दिनों राणो के साथ टकराव के रूप में प्रत्यक्ष भी दिखे।

बीएमसी के चुनाव में उत्तर भारतीयों की अहम भूमिका होने के बावजूद शिवसेना उन्हें निशाना बनाने से बाज नहीं आती। इसी कड़ी में शिवसेना ने पिछले कुछ समय से उत्तर भारतीयों विशेषकर पूर्वाचल और बिहार के लोगों को अपनी नफरत का शिकार बनाया है। वैसे भी यही माना जाता है कि उत्तर भारतीयों का भाजपा के प्रति झुकाव रहता है। यह पहलू शिवसेना को और कुपित करता है। यह इससे स्पष्ट हो जाता है कि मुंबई में गुजरातियों और दक्षिण भारतीयों की अच्छी-खासी तादाद होने के बावजूद शिवसेना उनके खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाती। गौर करने वाली बात है कि पिछली सदी के सातवें दशक में शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बिगुल बजाकर ही अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाई थी।

इसमें कोई दोराय नहीं कि शिवसेना का जन्म और विकास क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने और संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति का प्रतिफलन है। भाजपा से गठबंधन के दौरान जरूर उसके ऐसे तेवर कुछ नरम पड़े थे, लेकिन अब वह फिर पुराने दर्ढे पर लौटती दिख रही है। उसे कम से कम अपने ही परिवार के राज ठाकरे से कोई सबक सीखना चाहिए, जिन्होंने गाजे-बाजे के साथ मनसे के रूप में मराठा अस्मिता के नाम पर अपनी आक्रामक राजनीति शुरू की थी, लेकिन वह अब राजनीतिक विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए हैं और अब नए प्रयोग करने पर विवश हैं। शिवसेना को इस सत्य को भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि मराठा कार्ड अब वोट दिलाने और चुनाव जिताने वाला नहीं रह गया है। एक समय अवश्य ऐसी राजनीति के लिए उर्वर था, किंतु वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के बाद स्थिति परिवर्तित हो गई है। आज ‘मराठा माणूस’ भी वैश्वीकरण और प्रवासन का लाभार्थी है। इसलिए संभव है वह क्षेत्रीय भावना से बचते हुए भेड़चाल में वोट न करे।

महाराष्ट्र सरकार ने दूसरे प्रांतों के लोगों की निगरानी के जो निर्देश दिए हैं, उससे लोगों के उत्पीड़न की आशंका बढ़ गई है। साथ ही पुलिस-प्रशासन पर भी काम का अनावश्यक बोझ बढ़ेगा। उसकी कार्यकुशलता प्रभावित होगी। इससे भ्रष्टाचार के लिए भी द्वार खुलेगा। यह कदम संविधान विरोधी भी है। संविधान में भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र और लिंग आदि के आधार पर विभेद का पूर्ण निषेध है। ऐसे में क्षेत्र विशेष के लोगों को अपराधी मानकर पुलिस-प्रशासन को निर्देशित करना संकीर्ण सोच और अलोकतांत्रिक एवं असंवैधानिक आचरण की अभिव्यक्ति है। इससे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता पर भी आघात होता है। ऐसे में शिवसेना और उद्धव ठाकरे को यह समझने की जरूरत है कि सभी नागरिकों के अधिकारों और सम्मान का संरक्षण करके ही संवैधानिक दायित्व का निर्वहन किया जा सकता है। यही राजधर्म भी है।

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)

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