दलदल में फंसी शिवसेना: महाराष्ट्र में सरकार न बनने के पीछे उद्धव ठाकरे की हठधर्मिता जिम्मेदार

महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से भाजपा राकांपा और कांग्रेस का तो कुछ नहीं बिगड़ा पर शिवसेना को नुकसान उठाना पड़ा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 13 Nov 2019 12:13 AM (IST) Updated:Wed, 13 Nov 2019 12:13 AM (IST)
दलदल में फंसी शिवसेना: महाराष्ट्र में सरकार न बनने के पीछे उद्धव ठाकरे की हठधर्मिता जिम्मेदार
दलदल में फंसी शिवसेना: महाराष्ट्र में सरकार न बनने के पीछे उद्धव ठाकरे की हठधर्मिता जिम्मेदार

[ डॉ. एके वर्मा ]: महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगने के आसार तभी उभर आए थे जब कांग्रेस और राकांपा के ठिठक जाने के कारण शिवसेना सरकार बनाने लायक जरूरी संख्याबल जुटाने में नाकाम रही थी। इसके पहले देवेंद्र फड़नवीस ने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी द्वारा सरकार बनाने के निमंत्रण को पर्याप्त संख्याबल न होने के आधार पर अस्वीकार कर दिया था। ऐसा करके भाजपा ने एक स्वस्थ राजनीति का संकेत दिया।

शिवसेना की महत्वाकांक्षा जिम्मेदार है गठबंधन सरकार न बनने के पीछे

महाराष्ट्र संभवत: पहला ऐसा राज्य है जहां एक साथ चुनाव लड़ने और जीतने के बाद भी घटक-दलों में विवाद हो गया और गठबंधन सरकार नहीं बन सकी। इसके लिए शिवसेना की महत्वाकांक्षा ही जिम्मेदार है। भाजपा के इन्कार के बाद राज्यपाल ने दूसरा आमंत्रण शिवसेना को ही दिया, जो राकांपा-कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाने को आतुर थी। शिवसेना की ओर से पर्याप्त समर्थन न जुटा पाने के बाद आमंत्रण शरद पवार को मिला, लेकिन उन्होंने सरकार गठन के लिए और समय की मांग कर दी। इसके बाद राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी।

शिवसेना अब भाजपा से भी गई और राकांपा-कांग्रेस समर्थन से भी

शायद शिवसेना को यह विश्वास नहीं था कि भाजपा सरकार बनाने में कदम पीछे खींच लेगी। इसीलिए उसने भाजपा के धैर्य की सीमा के आगे जाकर अपनी मांगें रखीं, लेकिन अब वह दलदल में फंस गई है। वह भाजपा से भी गई और राकांपा-कांग्रेस समर्थन से भी। मुख्यमंत्री पद का जो बेबुनियाद सपना शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अपने पुत्र आदित्य ठाकरे के लिए पाला था वह टूटना ही था।

उद्धव ठाकरे को अपना अहं छोड़कर शरद पवार की शरण में जाना पड़ा

उद्धव ठाकरे को अपना अहं छोड़कर मराठा नेता शरद पवार की शरण में जाना पड़ा। राजनीति के मंझे खिलाड़ी पवार को एक तीर से कई निशाने लगाने आते हैं। एक ओर वह मराठा अस्मिता के नायक के रूप में उभरे और दूसरी ओर उन्होंने प्रदेश की राजनीति में उद्धव ठाकरे और शिवसेना के पर भी कतरे। वह महाराष्ट्र की राजनीति में ‘गैर-भाजपावाद’ की मुहिम चलाकर और कांग्रेस को ऑक्सीजन देने का आश्वासन देकर सोनिया गांधी को भी दबाव में लेने की कोशिश रहे थे, लेकिन सोनिया ने पवार, ठाकरे और भाजपा, तीनो को कांग्रेस के वजूद का अहसास करा दिया। राज्य में आगे जो भी हो, भाजपा को यह सीख जरूर मिली कि उसे वहां चुनाव-पूर्व गठबंधन के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए था।

शिवसेना ने भाजपा को नुकसान पहुंचाने का कोई अवसर नहीं छोड़ा

वैसे तो भाजपा और शिवसेना, दोनों का वैचारिक धरातल काफी समान है, लेकिन क्षेत्रीय पार्टी के रूप में शिवसेना ने राज्य में अपने कद को बढ़ाने के लिए भाजपा को नुकसान पहुंचाने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। विगत पांच वर्षों में भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार का अनुभव सुखद नहीं रहा। यदि भाजपा 2014 वाला फार्मूला अपनाती और अलग चुनाव लड़ती तो शिवसेना को अपनी ‘हैसियत’ का अहसास हो जाता। 2014 में भाजपा ने 260 सीटें लड़ीं और 122 जीतीं। उसका स्ट्राइक रेट 47 प्रतिशत था। 2019 में भाजपा केवल 144 सीटें लड़ीं और 105 जीतीं। उसका स्ट्राइक रेट 74 प्रतिशत पर पहुंच गया। स्पष्ट है कि इस बार मतदाताओं के बीच भाजपा की स्वीकार्यता अधिक थी।

यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो परिणाम कुछ और ही होते

यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ती तो परिणाम कुछ और ही होते। तब शायद उसे किसी समर्थन की जरूरत नहीं पड़ती या शिवसेना ऐसी सौदेबाजी नहीं कर पाती जिससे महाराष्ट्र को सरकार से वंचित होना पड़ता। आगे परिदृश्य कैसा होगा? यदि विधानसभा भंग होती है तो अगले चुनावों में भाजपा निश्चित ही अकेले चुनाव में उतरेगी। ऐसे में उसके बहुमत प्राप्त करने की संभावना बढ़ जाएगी, जैसा कि 2014 में हुआ था। जाहिर है कि भाजपा की मंशा यही होगी कि कोई ‘गैर-भाजपा’ सरकार न बने और विधानसभा भंग कर दी जाए।

कांग्रेस के लिए कठिन है शिवसेना को सरकार बनाने के लिए समर्थन देना

कांग्रेस के लिए भी शिवसेना को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने या न देने का निर्णय बहुत कठिन है। कांग्रेस और शिवसेना का वैचारिक धरातल बिल्कुल अलग है। शिवसेना का समर्थन कर उसे अपनी भावी राजनीति को पुनर्परिभाषित करने में मळ्श्किल होगी। शिवसेना और राकांपा क्षेत्रीय दल हैैं, लेकिन कांग्रेस का तो राष्ट्रीय फलक है। उसे केवल महाराष्ट्र नहीं, वरन पूरे देश की राजनीति के बारे में सोचना होगा। सूबे में ऐसी बेमेल खिचड़ी सरकार बनाने या उसमें सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के प्रतिकूल संदेश ही जाएगा।

शिवसेना-राकांपा और कांग्रेस सरकार बन भी जाए तो चलना मुश्किल

यदि शिवसेना-राकांपा और कांग्रेस सरकार बन भी जाए तो संभावना बहुत कम है कि वह स्थिरता हासिल कर पाएगी। इससे स्वयं शिवसेना का जनाधार खिसककर भाजपा की ओर जा सकता है, क्योंकि कांग्रेस एवं राकांपा से मेलजोल के कारण उसका मतदाता वैचारिक धरातल पर खळ्द को भाजपा के अधिक निकट पाएगा।

भाजपा और कांग्रेस, दोनों का साझा हित इसमें है कि राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार न होने दिया जाए।

संजय राउत ने उद्धव ठाकरे को पुत्र-मोह का ऐसा पाठ पढ़ाया जैसा शकुनी ने धृतराष्ट्र को पढ़ाया था

महाराष्ट्र प्रकरण में शिवसेना नेता संजय राउत ने महाभारत के ‘शकुनी’ की याद दिला दी। उन्होंने, उद्धव ठाकरे को पुत्र-मोह का ऐसा पाठ पढ़ाया जैसा शकुनी ने धृतराष्ट्र को दुर्योधन के लिए पढ़ाया था। भाजपा-शिवसेना में अलगाव का अध्याय तो लिख ही गया, शिवसेना का पतन भी निश्चित हो गया।

शिवसेना की छवि जनता में धूमिल हुई

शिवसेना को यह समझना पड़ेगा कि जनता में उसकी छवि धूमिल हुई है। उसके लिए लोगों को यह समझाना मुश्किल होगा कि दशकों पुराने साथी भाजपा से जब उसकी नहीं पटी तो उन दलों से कितनी देर पटेगी जिनसे वैचारिक मतभेद हैं? उद्धव ने अपनी हठधर्मिता के चलते अनावश्यक रूप से मतदाता को नाराज किया। इसका खामियाजा शिवसेना को आगामी चुनाव में उठाना ही पड़ेगा।

सावंत ने मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर खत्म कर दी शिवसेना की राष्ट्रीय अस्मिता

शिवसेना यह भूल गई कि मोदी सरकार में शामिल होने से पार्टी की राष्ट्रीय अस्मिता उभर रही थी। अपने एकमात्र मंत्री अरविंद सावंत को मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिलाकर उद्धव ने अपने दल की राष्ट्रीय अस्मिता को भी खत्म कर दिया। यह साफ है कि महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से भाजपा, राकांपा और कांग्रेस का तो कुछ नहीं बिगड़ा, पर शिवसेना को नुकसान उठाना पड़ा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )

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