बंगाल में भाजपा के लिए सही सबक: भाजपा बंगाल जैसे राज्य में उदार हिंदुत्व के जरिये ही पैठ बना सकती है

भाजपा बंगाल केरल तमिलनाडु जैसे सांस्कृतिक भाषाई और क्षेत्रीय पहचान वाले राज्यों में उदारवादी हिंदुत्व के जरिये ही पैठ बना सकती है। प्रारंभिक दौर में इसकी बुनियाद संघ जैसा सामाजिक संगठन ही रख सकता है। नागरिकों के मुद्दे समय के साथ बदलते भी हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 10 May 2021 02:49 AM (IST) Updated:Mon, 10 May 2021 02:49 AM (IST)
बंगाल में भाजपा के लिए सही सबक: भाजपा बंगाल जैसे राज्य में उदार हिंदुत्व के जरिये ही पैठ बना सकती है
जय श्रीराम का चुनावी घोष बंगाल और केरल, तमिलनाडु में प्रभावी नहीं।

[ एनके सिंह ]: पश्चिम बंगाल की हार के बाद भाजपा को यह समझना होगा कि मजबूत सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय पहचान रखने वाले समाजों में धार्मिक प्रतिबद्धता का स्वरूप बदलता जाता है। लिहाजा जय श्रीराम का जो चुनावी घोष उत्तर भारत के राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में असर रखता है, वह बंगाल और केरल, तमिलनाडु सहित कई राज्यों में प्रभावी नहीं। बंगाल जनादेश के विश्लेषण से स्पष्ट दिखेगा कि ऐसे राज्यों में राजनीतिक पैठ तब तक नहीं होगी, जब तक सामाजिक स्तर पर पार्टी उस समाज में दूध-पानी की तरह नहीं मिलेगी। बंगाल में तोलाबाजी (तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उगाही) एक हकीकत और भोगा हुआ यथार्थ है, लेकिन उससे भी एंटी-इनकंबेंसी नहीं पैदा हुई, क्योंकि तृणमूल से आयातित नेताओं को चुनाव में सिरमौर बनाने से बड़ी और स्पष्ट विचारधारा वाली पार्टी के प्रति जनता की विश्वसनीयता घटी। समाज से घुलने-मिलने का काम प्रारंभिक दौर में भाजपा के बूते का नहीं। यह केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही कर सकता है। बंगाली मानुष के दुख-सुख में शामिल होना, सेवा कार्य करना, अलग-अलग सामाजिक पहचान वाले समूहों के लिए प्रकल्प बनाकर शिक्षा, स्वास्थ्य एवं धार्मिक जीवन में पैठ बनाने के लिए वर्षों तक काम करना होता है। यह काम मोदी और शाह के एक दिन में कई रैलियों से नहीं होगा। यह काम स्थानीय कार्यकर्ताओं को ठुकरा कर आयातित लोगों को टिकट देने से भी नहीं होगा। इसके उलट असम एक उदाहरण है, जहां संघ के दो दशक से ज्यादा के सेवा-कार्यों का प्रतिफल था भाजपा का सत्ता में आना।

केरल में भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलने में समय लगेगा

तमिलनाडु और आंध्र में पार्टी ने एम. वेंकैया नायडू को लगाकर कई साल तक कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। केरल में संघ प्राणपण से लगा हुआ है, लेकिन राजनीतिक लाभ मिलने में अभी काफी समय लगेगा। जब-जब वहां कट्टर हिंदूवादी छवि वाले भाजपा के नेता प्रचार में जाएंगे, ईसाई समुदाय छिटक जाएगा। करीब 80 प्रतिशत हिंदू आबादी के बावजूद देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को पिछले आम चुनाव में लगभग 36 प्रतिशत मत मिले। 2009 तक इस पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा वोट नहीं मिले, बल्कि 1998 के 25 प्रतिशत के बाद से 2009 तक लगातार पार्टी का मत-प्रतिशत तक घटता ही रहा। मोदी की आंधी में भी 2019 में आधे से अधिक हिंदुओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया।

देश में कट्टर हिंदुओं की संख्या करीब 15-20 फीसद है, शेष उदारवादी

अन्य धर्मों से अलग सनातन धर्म मूल स्वरूप में उदारवादी है। इसमें आराध्य-देव की निंदा करके भी आप अनुयायी रह सकते हैं। एक आकलन के अनुसार देश में कट्टर हिंदुओं की संख्या करीब 15-20 प्रतिशत है, शेष उदारवादी हैं। कट्टर हिंदुत्व का रूप मजबूत सांस्कृतिक पहचान वाले राज्यों में नाराजगी का कारण बनता है। बंगाल में लोकसभा चुनाव के बाद से लेकर हाल के विधानसभा चुनाव तक भाजपा ऐसी बातें करती रही कि बंगाल में भाजपा शासन आया तो लोगों को सरस्वती पूजा करने और दुर्गा र्मूित विसर्जन की खुली छूट होगी या एक भी घुसपैठिया बचेगा नहीं। भद्रलोक ने ही नहीं, आम जनता ने भी इस ब्रांड के हिंदुत्व को पसंद नहीं किया। बंगाल विधानसभा चुनाव में अपेक्षा से कमजोर प्रदर्शन भाजपा के लिए कुछ आमूल-चूल परिवर्तन का संदेश है।

बंगाल में हर दूसरे वोटर की पसंद ममता बनर्जी

आखिर क्या वजह है कि तीन साल पहले त्रिपुरा चुनाव में जीत के बाद से लगातार इस पार्टी का विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन खराब होता जा रहा है? झारखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली इसके उदाहरण हैं, जबकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में जहां पार्टी शासन में थी, वहां भी स्थिति उत्साहवर्धक नहीं रही। बिहार में उसने जैसे-तैसे अपनी प्रतिष्ठा बचाई। अगर दो साल पहले बंगाल में लोकसभा चुनाव में पार्टी करीब 120 विधानसभा सीटों पर अपनी बढ़त दर्ज कर 18 सीटें जीतती है तो ताजा चुनाव में क्यों वोट डालने गए हर दूसरे वोटर की पसंद ममता बनर्जी बन जाती हैं?

बंगाल में सर्वेक्षक हकीकत से कोसों दूर

हर चुनाव के पहले तथाकथित चुनाव सर्वे की संस्थाएं अपनी दुकान सजाकर बैठ जाती हैं। उन्हीं के आधार पर हम यह मान बैठते हैं कि कौन जीतेगा और कौन नहीं? बंगाल का उदाहरण लें। अनेक सर्वे में प्रतिशत देकर कहा गया कि तृणमूल कैडर के भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त है और उद्योगों में निवेश न होने से जबरदस्त बेरोजगारी है। यह भी कहा गया कि मोदी की उज्ज्वला योजना की महिलाओं में पैठ है, बिगड़ती कानून-व्यवस्था से महिलाओं में

डर है और ममता के मुस्लिम-मोह से हिंदुओं में नाराजगी है, लेकिन शायद भारत में चुनाव सर्वेक्षण के सही होने में अभी कई दशक लगेंगें। सर्वेक्षक हकीकत से कोसों दूर रहते हैं। बंगाल में कोई नहीं बता पाया कि दस साल के शासन के बाद सत्ताधारी दल लगभग तीन चौथाई सीटें हासिल कर लेगा। तृणमूल के पक्ष में चुनाव परिणाम एक आंधी को बयान करने वाला रहा।

भाजपा बंगाल, केरल तमिलनाडु में उदारवादी हिंदुत्व के जरिये ही पैठ बना सकती है

राजनीतिशास्त्र में जो लोकमत को प्रभावित करने वाले मुद्दे माने जाते हैं, वे भारत में सही नहीं उतरते। प्रजातंत्र में औसत नागरिकों के मुद्दे समय के साथ बदलते भी हैं। आक्रामक हिंदुत्व का रूप उत्तर प्रदेश और बिहार में जोरशोर से चलता है, क्योंकि वहां क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं और सांप्रदायिक तनाव का इतिहास और वर्तमान भी रहा है। इसकी जरूरत गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड या पंजाब, छत्तीसगढ़, आंध्र आदि में नहीं है। भाजपा बंगाल, केरल तमिलनाडु जैसे सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय पहचान वाले राज्यों में उदारवादी हिंदुत्व के जरिये ही पैठ बना सकती है। प्रारंभिक दौर में इसकी बुनियाद संघ जैसा सामाजिक संगठन ही रख सकता है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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