ढांचागत सुधारों पर सहमति का समय: वास्तविक लोकतंत्र में नेताओं को संकीर्ण राजनीति का करना पड़ता है परित्याग

विरोध पर अड़े राजनीतिक वर्ग को मौजूदा सरकार का समर्थन करने का जज्बा दिखाना चाहिए जो मतदाताओं के कोप की परवाह न करते हुए सुधारों की राह में अपनी राजनीतिक पूंजी निवेश करने का साहस दिखा रही है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 03 Aug 2021 04:31 AM (IST) Updated:Tue, 03 Aug 2021 04:31 AM (IST)
ढांचागत सुधारों पर सहमति का समय: वास्तविक लोकतंत्र में नेताओं को संकीर्ण राजनीति का करना पड़ता है परित्याग
14 ट्रिलियन डालर के साथ चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है

[ जीएन वाजपेयी ]: चीनी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीसीपी की स्थापना के शताब्दी समारोह में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपने आक्रामक तेवर दिखाए। ताकतवर देशों को उन्होंने जहां आंखें दिखाईं वहीं अपने पिट्ठू बन चुके देशों को एक प्रकार का लालीपाप दिया। उनके इन तेवरों के पीछे चीन की अर्थव्यवस्था में आई जबरदस्त तेजी एक अहम ताकत है। करीब 14 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की हैसियत के साथ चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। इसके बाद पांच ट्रिलियन डालर वाली जापानी अर्थव्यवस्था है। इन दोनों के बीच अंतर की खाई खासी चौड़ी है। चीनी अर्थव्यवस्था 1979 तक महज 202 अरब डालर की थी। उसने 40 वर्षों में इतनी तेज वृद्धि की है। भारत को देखें तो यही लगेगा कि चीन के मुकाबले हम कितना पीछे रह गए और वह भी तब जब पिछली सदी के नौवें दशक में चीन ने जब आर्थिक सुधार शुरू किए थे तब भारतीय अर्थव्यवस्था उससे कहीं बेहतर स्थिति में थी।

स्वाभिमानी भारत चीन की श्रेष्ठता को कभी नहीं कर सकता स्वीकार

इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन चाहता है कि भारत उसकी श्रेष्ठता को स्वीकारे, जो स्वाभिमानी भारतीय राज्य कभी स्वीकार नहीं कर सकता। समय-समय पर भारत को उन छोटे देशों से भी चुनौती मिलती रहती है जिनकी न केवल सामरिक, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी कोई खास हैसियत नहीं है। वे इसी धारणा से भारत की परेशानियां बढ़ाने का मुगालता पाल लेते हैं कि उसकी हिचकोले खा रही अर्थव्यवस्था और कोलाहल भरे लोकतंत्र के कारण उनके मंसूबे पूरे हो जाएंगे। आर्थिक रूप से कुछ शक्तिशाली राष्ट्र भी उन्हें इसके लिए उकसाते हैं।

18वीं शताब्दी तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी, वैश्विक जीडीपी में 24 फीसद हिस्सेदारी

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री मैडिसन ने विश्व के आर्थिक इतिहास से जुड़ा एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के अनुसार 18वीं शताब्दी तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था, जिसकी वैश्विक जीडीपी में 24 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। नीदरलैंड से लेकर ग्रेट ब्रिटेन तक अधिकांश यूरोपीय देशों ने भारत में धन की लालसा में ईस्ट इंडिया कंपनियां स्थापित कीं। धन की लिप्सा ने सज्जन व्यापारियों को दुष्ट उत्पीड़कों में बदल दिया, जिन्हें भारत में लूट-खसोट के लिए अपने-अपने देश की सरकारों से समर्थन मिला।

व्यापारी के रूप में आए विजेता बन बैठे और उपमहाद्वीप को कब्जे में लेने के लिए हो गए एकजुट

आखिरकार उनकी राष्ट्रीय सेनाओं ने टुकड़ों में बंटी भारतीय रियासतों को परास्त कर दिया। उनकी ‘बांटो और राज करो’ वाली नीति और बारूद का इस्तेमाल इसमें मददगार रहे। कभी व्यापारी के रूप में आए विजेता बन बैठे और उपमहाद्वीप को अपने कब्जे में लेने के लिए एकजुट हो गए। स्वतंत्रता के लिए करीब एक सदी तक चले संघर्ष के बाद विदेशी हमारा देश तो छोड़ गए, लेकिन उन्होंने एक ऐसा भारत छोड़ा जो आर्थिक रूप से बदहाल हो चुका था, जहां गरीबी और विषमता का बोलबाला था और उद्योग-धंधे चौपट हो चुके थे। 

74 वर्ष के इतिहास में भारत कई राजनीतिक एवं आर्थिक घटनाक्रमों का बना गवाह

प्रखर देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों ने गरीबी और आर्थिक विषमता मिटाने के संकल्प के साथ देश की बागडोर संभाली। उनमें से कई सेनानी ऐसे थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए अपनी आकर्षक पेशेवर जिंदगी और वैभव संपन्न जीवन शैली को भी त्याग दिया। अपने 74 वर्ष की राजनीतिक स्वतंत्रता के इतिहास में भारत कई राजनीतिक एवं आर्थिक घटनाक्रमों का गवाह बना। इसमें तेज जीडीपी, प्रति व्यक्ति वृद्धि, गरीबी उन्मूलन और सियासी कामयाबियों का दौर भी रहा। इसके बावजूद भारत अभी भी परिणामोन्मुखी राष्ट्र के रूप में पहचान बनाने से दूर है। जब भी हमें कोई चुनौती मिलती है तो शक्तिशाली देशों का समर्थन लेने के लिए हमारी कूटनीतिक कवायदें यकायक तेज हो जाती हैं।

चुनावी खैरात बांटने की होड़ से अर्थव्यवस्था को होता गया नुकसान

हाल के दौर में मीडिया के कुछ हलकों में 30 साल पहले लाइसेंस-परमिट राज की समाप्ति और आर्थिक सुधारों की शुरुआत से संबंधित विमर्श को धार दी गई। हालांकि इनमें से कुछ बाधाओं की कभी पूरी तरह विदाई नहीं हुई। नीति नियोजन से जुड़े कुछ लोगों ने इस दौरान यह भी स्मरण किया कि आखिर किन मोर्चों पर अवसर गंवा दिए गए। दिलचस्प यह है कि जिस दौर को उन्होंने अवसर गंवाने वाला बताया, उसी दौरान उनमें से कुछ लोग नीति निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय भी रहे। उन्होंने ढांचागत सुधारों और देश की आर्थिक वृद्धि में निरंतर बढ़ोतरी की दिशा में कोई मदद नहीं की। असल में राजनीतिक साहस का अभाव इसकी बड़ी वजह रही कि पता नहीं मतदाता इन सुधारों से होने वाली मुश्किलों को लेकर क्या प्रतिक्रिया देंगे? इसके बजाय अपनी सरकारों की मियाद बढ़़ाने के लिए चुनावी खैरात बांटने की होड़ लग गई। इससे अर्थव्यवस्था को ही नुकसान होता गया।

चीन सहित तमाम देश अर्थव्यवस्था को मजबूती देकर, गरीबी को हटाकर बने शक्तिशाली

चीन सहित अधिकांश शक्तिशाली देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाकर, गरीबी को हटाकर और बेहतरी के व्यापक पहलुओं को स्थापित करके ही प्रतिष्ठा पाई और शक्तिशाली देशों में अपनी जगह बनाई। भारत अब और इंतजार नहीं कर सकता। भूमि, श्रम और पूंजी जैसे संसाधनों का प्राथमिकता के आधार पर निर्धारण और उत्पादकता में वृद्धि से ही ऊंचा आर्थिक विकास सुनिश्चित होता है।

ढांचागत सुधार अनिवार्य

हमारे पास पूंजी की आपूर्ति तंग है। तकनीक में भी यही स्थिति है। ऐसे में ढांचागत सुधार अनिवार्य हो गए हैं ताकि संसाधनों की गुणात्मक वृद्धि कर लाभ उठाया जा सके। लोकतंत्र में यह दोनों पक्षों के समर्थन की मांग करता है। अफसोस की बात है कि भारत में किसी आपदा या युद्ध से इतर किसी स्थिति में ऐसा समर्थन संभव नहीं दिखता। राजनीतिक लाभ विवेक पर हावी हो रहा है। वे सभी अर्थव्यवस्था विशेषकर पूर्वी एशियाई, जिन्होंने विगत 50 वर्षों के दौरान चमत्कार करके दिखाया है, उनमें ढांचागत सुधारों की अवधि के दौरान अगर तानाशाही नहीं तो कम से कम अधिनायकवादी शासन अवश्य था। उनमें से कुछ देशों में तो अभी तक यही व्यवस्था कायम है।

विरोध पर अड़े राजनीतिक वर्ग को सरकार का समर्थन करने का दिखाना चाहिए जज्बा 

मैं लोकतंत्र के अतिरिक्त किसी अन्य शासन पद्धति की पैरवी नहीं करता। वास्तविक लोकतंत्र विवेक की मांग करता है, जिसमें सभी वर्ग के नेताओं को संकीर्ण राजनीतिक हितों का परित्याग करना पड़ता है। उसे घपलेबाजों पर विराम लगाना होता है। ऐसे में विरोध पर अड़े राजनीतिक वर्ग को मौजूदा सरकार का समर्थन करने का जज्बा दिखाना चाहिए, जो मतदाताओं के कोप की परवाह न करते हुए सुधारों की राह में अपनी राजनीतिक पूंजी निवेश करने का साहस दिखा रही है। चलिए ऐसे भारत के निर्माण में जुटते हैं, जिस पर हम सभी हमेशा के लिए गर्व कर सकें।

( लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं )

chat bot
आपका साथी