जो लोग शाहीन बाग में थे व्यस्त उन्हें कृषि कानून विरोधी आंदोलन से मिला नया अवसर

शाहीन बाग धरना शायद लोग चलाते ही रहते यदि कोरोना और हिंसा-आगजनी साथ-साथ न आ गए होते। जो लोग शाहीन बाग में व्यस्त थे उन्हें किसान आंदोलन से नया अवसर मिल गया है। यह वही वर्ग है जो एक व्यक्ति की जन-स्वीकार्यता से अपना भविष्य अंधकार में पाता है।

By Dhyanendra Singh ChauhanEdited By: Publish:Thu, 25 Feb 2021 10:23 PM (IST) Updated:Thu, 25 Feb 2021 10:23 PM (IST)
जो लोग शाहीन बाग में थे व्यस्त उन्हें कृषि कानून विरोधी आंदोलन से मिला नया अवसर
अतिवादी रुख - रवैये वाला यह आंदोलन।

[जगमोहन सिंह राजपूत]। ठीक एक साल पहले इन्हीं दिनों दिल्ली में भीषण दंगे हुए थे। इन दंगों की जड़ में वह शाहीन बाग आंदोलन था, जिसके चलते लाखों लोगों को तीन महीने से अधिक समय तक परेशानी उठानी पड़ी थी। इस आंदोलन के चलते हजारों लोगों की रोजी-रोटी भी प्रभावित हुई थी। उस दौरान हिंसा की आशंका सदा बनी रहती थी और अंतत: हिंसा हुई भी। यह भी स्थापित हो चुका है कि उसकी तैयारी पहले से थी। हिंसा में मरे लोगों और उनके परिवारों के लिए मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आंदोलन एवं प्रदर्शन का अधिकार ऐसी त्रासदी बनकर आया, जिससे वे जीवन भर उबर नहीं पाएंगे। उस समय की हिंसा से देश का एक वर्ग प्रसन्न था।

शाहीन बाग धरना शायद लोग चलाते ही रहते, यदि कोरोना और हिंसा-आगजनी साथ-साथ न आ गए होते। जो लोग शाहीन बाग में व्यस्त थे, उन्हें किसान आंदोलन से नया अवसर मिल गया है। यह वही वर्ग है, जो एक व्यक्ति की जन-स्वीकार्यता से अपना भविष्य अंधकार में पाता है। इनमें असुरक्षित और निराश राजनेता और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के दर्शन पर भविष्य बनाने वाले युवा शामिल हैं। इन्होंने सारी बुद्धि लगाकर 26 जनवरी का दिन चुना। जिस बेशर्मी से इस दिन पर भारत की प्रतिष्ठा और गरिमा पर कीचड़ उछाला गया, वह न तो आग्रह था, न ही उसका सत्य से कोई वास्ता था। वह पूर्णरूपेण दुराग्रह था। उस दिन देश की ही नहीं, किसान नेताओं की प्रतिष्ठा भी धूमिल हुई। किसान तो एक आग्रह लेकर आए थे, लेकिन उनके बीच धीरे-धीरे गैर-किसान विध्वंसक तत्व हावी होने लगे। इसके बावजूद सरकार उनसे बातचीत करती रही। सरकार आज भी उनसे वार्ता के लिए तैयार है। यह सफल हो सकती है, यदि ये बाहरी तत्व किसान आंदोलन से अलग हो जाएं।

बहुत शिथिलतापूर्वक किया जाता है सत्याग्रह शब्द का उपयोग

गांधी जी की आंदोलन और सत्याग्रह की संकल्पना में निहित पवित्रता एवं पारदर्शिता उनके एक कथन से स्पष्ट होती है। 15 अप्रैल, 1933 को उन्होंने लिखा था, ‘सत्याग्रह शब्द का उपयोग अक्सर बहुत शिथिलतापूर्वक किया जाता है, लेकिन इस शब्द के रचयिता के नाते मुझे यह कहने की अनुमति मिलनी चाहिए कि उसमें हिंसा का, फिर वह कर्म की हो या मन और वाणी की, पूरा बहिष्कार है।’

सत्याग्रह कभी नहीं पहुंचाता चोट 

बापू के देश में शाहीन बाग और किसान आंदोलन, दोनों में ही हिंसा अंदर भी थी और अपने जघन्य रूप में बाहर भी। क्या कृषि कानून विरोधी आंदोलन के आयोजक गांधी जी के इस कथन से सहमत होंगे कि ‘प्रतिपक्षी का बुरा चाहना या उसे हानि पहुंचाने के इरादे से उससे या उसके बारे में बुरा बोलना सत्याग्रह का उल्लंघन है?’ क्या वे कह पाएंगे कि ‘सत्याग्रह कभी चोट नहीं पहुंचाता। उसके पीछे क्रोध या द्वेष नहीं होता?’ सत्याग्रह पर गांधी जी जो कह गए और जिस ढंग के सत्याग्रह वह इसी देश में आयोजित कर राह दिखा गए, वह अपने में एक संपूर्णता और परिपक्वता लिए हुए है।

सत्याग्रह अत्यंत बलशाली उपायों में से एक 

20 अक्टूबर, 1927 को यंग इंडिया में गांधी जी ने लिखा था, ‘चूंकि सत्याग्रह अत्यंत बलशाली उपायों में से एक है, इसलिए सत्याग्रही सत्याग्रह का आश्रय लेने के पहले और सब उपायों को आजमा कर देख लेता है। इसके बाद वह निरंतर सत्ताधारियों के पास जाएगा, लोकमत को प्रभावित और उन्हें शिक्षित करेगा, जो उसकी सुनना चाहते हैं। उन सबके सामने अपना मामला शांति और ठंडे दिमाग से रखेगा। जब यह सब उपाय वह आजमा चुकेगा, तभी सत्याग्रह का आश्रय लेगा।’ क्या विघ्नसंतोषी ऐसा होने देंगे? यह सवाल इसलिए, क्योंकि किसान नेता 40 लाख ट्रैक्टर दिल्ली लाकर इंडिया गेट के पास जोताई करने की धमकी दे रहे हैं।


आज स्वतंत्र भारत के पास स्वराज और प्रजातंत्र का सात दशकों का सघन अनुभव

गांधी जी के अनुसार, ‘मेरा स्वराज तो हमारी सभ्यता को अक्षुण्ण रखना है और हमारी सभ्यता का मूल तत्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं।’ आज स्वतंत्र भारत के पास स्वराज और प्रजातंत्र का सात दशकों का सघन अनुभव है। ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक उत्थान तथा विकास और प्रगति के मानकों पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है, मगर इससे कुछ अन्य अपेक्षाएं भी हैं। इसके बारे में भी गांधी जी ने कहा था, ‘मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। भारत में कुछ ऐसी योग्यता है कि वह धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।’ हालांकि यह सब वे लोग ही समझ पाएंगे, जो भारत माता के प्रति सर्मिपत हैं, वंदे मातरम का अर्थ समझाते हैं और गांधी जी के राम राज्य की संकल्पना, सामाजिक बराबरी एवं समरसता, पंथिक पारस्परिकता और सब धर्मों की समानता पर समय-समय पर व्यक्त उनके विचारों से सहमत हैं।


न्याय पाने के लिए सत्य का आग्रह भी है अधिकार

गांधी जी की निगाह से कभी कोई छूटा नहीं। गांव, खेती और किसान सदा ही उनके मन पर छाए रहे। इसे समझाने के लिए नौ अक्टूबर, 1937 के ‘हरिजन’ में गांधी जी के इन शब्दों को याद किया जाए, ‘गावों और शहरों के बीच स्वस्थ और नीतियुक्त संबंध का निर्माण तभी होगा, जब शहरों को अपने इस कर्तव्य का ज्ञान हो जाए कि उन्हें गांव का अपने स्वार्थ के लिए शोषण करने के बजाय गांवों से जो शक्ति और पोषण वे प्राप्त करते हैं, उसका पर्याप्त बदला गांव को देना चाहिए।’ यह 80 वर्ष से पहले लिखा गया था। आज इसकी भाषा बदल जाती, मगर सार तत्व नहीं बदलता। इसे ही समझना है। न्याय पाने का अधिकार तो ईश्वर-प्रदत्त है। न्याय पाने के लिए सत्य का आग्रह भी अधिकार है, परंतु उसके पहले सत्याग्रह के आधारभूत सिद्धांतों के पालन का कर्तव्य भी आवश्यक है।

(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]

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