दुष्कर्म की घटनाओं पर लगानी है लगाम, पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर लगाना होगा विराम

यदि भारत में दुष्कर्म की घटनाओं का सार्थक समाधान निकालना है तो इसका दायित्व समाज पर है कि वह गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक दरारों को भरने के साथ ही बच्चियों और महिलाओं के प्रति लंबे अर्से से चले आ रहे पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर विराम लगाए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 23 Oct 2020 08:46 AM (IST) Updated:Fri, 23 Oct 2020 09:24 AM (IST)
दुष्कर्म की घटनाओं पर लगानी है लगाम, पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर लगाना होगा विराम
बच्चियों और महिलाओं के प्रति लंबे अर्से से चले आ रहे पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर विराम लगाए।

सी. उदयभास्कर। बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने हाथरस मामले में हीलाहवाली को लेकर उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन को फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि इस मामले में सामूहिक दुष्कर्म की शिकार पीड़िता की मौत के बाद उसके एवं पीड़ित परिवार के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया गया। 14 सितंबर को हाथरस में घटित इस हादसे ने तब पूरे देश को झकझोर दिया, जब यह पता लगा कि सवर्ण जाति के लड़कों ने 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ न केवल सामूहिक दुष्कर्म जैसा जघन्य अपराध किया, बल्कि उसे मरणासन्न भी कर दिया। पीड़िता के साथ हुई निर्ममता के कारण उसकी मौत हो गई। इसके बाद स्थानीय पुलिस ने देर रात उसका अंतिम संस्कार भी करा दिया। यह सब पीड़िता के परिवार की अनुमति के बिना हुआ। परिवार को अपनी बेटी की मृत देह को देखने भी नहीं दिया गया।

इस प्रकरण ने 2012 के वीभत्स निर्भया कांड की याद दिला दी। इस बीच बड़ा सवाल यही है कि क्या इस त्रासदी के बाद देश में बच्चियों और महिलाओं की संरक्षा एवं सुरक्षा की स्थिति में कुछ सुधार होगा? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट देश में दुष्कर्म के मामलों की तस्वीर पर व्यापक दृष्टि डालती है। 2019 की इसकी रिपोर्ट के निष्कर्ष शर्मसार करने वाले हैं। वे दर्शाते हैं कि भारत में बच्चियों और महिलाओं के साथ कितना बुरा व्यवहार होता है। बीते वर्ष देश में दुष्कर्म के कुल 32,023 मामले दर्ज किए गए। हालांकि अधिकांश विशेषज्ञ यह मानते हैं कि यह छेड़छाड़ और दुष्कर्म के मामलों की वास्तविक संख्या नहीं है, क्योंकि तमाम मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 90 प्रतिशत मामलों में पीड़ित दुष्कर्मी की परिचित होती है और अधिकांश मामलों में दुष्कर्म परिवार की परिधि में ही घटित होते हैं। दुष्कर्म के मसले पर कुछ सामान्य बातें ही दोहराई जाती हैं।

एक तो यह कि महिलाओं के साथ दुष्कर्म मानवीय इतिहास के आरंभ से होते आए हैं। दूसरी यह कि व्यापक वैश्विक परिदृश्य में भारत की स्थिति उतनी खराब नहीं है। इनमें पहला कथन भले ही ऐतिहासिक रूप से सही हो, परंतु उसे बचाव की दलील के रूप में नहीं लिया जा सकता। किसी भी किस्म के यौन उत्पीड़न को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। यौन उत्पीड़न अधिकांश समाजों के सामाजिक-सांस्कृतिक डीएनए में गहराई तक समाया हुआ है और यही समस्या की जड़ है। महिलाओं के लिए भारत के अपेक्षाकृत सुरक्षित होने से जुड़ा दूसरा दावा शायद सही लगे, परंतु यह वास्तविक तस्वीर नहीं दिखाता और भ्रमित करने वाला है। इसका निष्कर्ष दुष्कर्म के मामलों पर आत्मसंतुष्टि के साथ मुगालते में रखने वाला है। यदि प्रति एक लाख आबादी पर दुष्कर्म के मामलों की संख्या के लिहाज से देखें तो उसमें दक्षिण अफ्रीका दुनिया में सबसे ऊपर है, जहां प्रति लाख आबादी पर 132.4 मामले सामने आते हैं। इसके बाद नौ और देश हैं, जहां यह आंकड़ा 30 से

ऊपर है। विकसित देशों में स्वीडन पांचवें पायदान पर है।

वहीं अमेरिका में प्रति एक लाख की आबादी पर 27.3 मामले मिलते हैं। इस पैमाने पर भारत में यह दर केवल 1.8 के आसपास है, जबकि पड़ोसी श्रीलंका में 7.3 और बांग्लादेश में 9.8। यह पैमाना भले ही दुष्कर्म के वैश्विक आंकड़ों में भारत को निचले पायदान पर रखता हो, जहां प्रतिदिन दुष्कर्म के औसतन 88 मामले सामने आते हैं, लेकिन ये वही मामले हैं, जिनकी शिकायत दर्ज कराई जाती है। हाथरस कांड कोई इकलौता मामला नहीं है। भारत में ऐसे मामलों का एक लंबा सिलसिला रहा है, जहां उच्च जातियों के लोगों द्वारा दलित बच्चियों और महिलाओं को प्रताड़ित किया गया। यह लगातार जारी है और केवल कुछ इलाकों तक ही सीमित नहीं है। यह निंदनीय चलन निर्मम शक्ति असंतुलन से ही संचालित होता है। भारत में जाति के आधार पर एक सामाजिक वरीयता का अनुक्रम है, जो राज्य और समाज दोनों में पैठ बनाए हुए है।

भारत में लैंगिक समानता का स्तर औसत से भी नीचे है। कन्या भ्रूण हत्या के मामले इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। 2018 में एक एनजीओ द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार घटते लैंगिक अनुपात के मामले में लिंचेस्टीन, चीन और आर्मेनिया के बाद भारत चौथे स्थान पर रहा। इस सर्वे के तहत अनुमान लगाया गया कि भारत में प्रत्येक 112 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं। जनसंख्या शोध संस्थान यानी पीआरआइ के आंकड़े तो और भी भयावह तस्वीर दिखाते हैं। पीआरआइ के अनुसार 1990 से 2018 के बीच करीब 1.5 करोड़ कन्याओं की भ्रूण हत्या हो गई। केवल 2018 में ही पांच लाख से अधिक कन्याओं को इस दुनिया का मुंह देखने से पहले ही खत्म कर दिया गया। गर्भ में लिंग निर्धारण की बेहतर तकनीक आने से यह काम और आसान हो गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त इस अन्याय को महसूस कर उसे समाप्त करने की दिशा में जनवरी 2015 में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान की शुरुआत की। हालांकि सभी संकेतक यही दर्शाते हैं कि तमाम खाइयां अभी कायम हैं, जिन्हेंं पाटना आवश्यक है। देश के कोने-कोने से रोजाना दुष्कर्म की दिल दुखाने वाली खबरें आती रहती हैं। ऐसी ही एक खबर हाल में उत्तर प्रदेश के झांसी से आई, जहां एक 17 वर्षीय किशोरी के साथ उसके सहपाठियों ने न केवल सामूहिक दुष्कर्म किया, बल्कि उसे ब्लैकमेल भी किया। सेलफोन के उभार ने भी सोशल मीडिया के जरिये ब्लैकमेल की आशंकाओं को बढ़ा दिया है। यह भी इस बात का संकेत है कि दुष्कर्म की कुसंस्कृति अब कैसे विस्तार कर रही है। हाथरस मामले पर टिप्पणी के दौरान अदालत ने यह भी कहा था कि दुष्कर्म के मामलों से निपटने में स्थानीय पुलिस को अधिक संवेदनशील और पेशेवर होना होगा।

हालांकि यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसे मामलों में पुलिस की भूमिका घटना घटित होने के बाद ही शुरू होती है। यदि भारत में दुष्कर्म की घटनाओं का सार्थक समाधान निकालना है तो इसका दायित्व समाज पर है कि वह गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक दरारों को भरने के साथ ही बच्चियों और महिलाओं के प्रति लंबे अर्से से चले आ रहे पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर विराम लगाए।

(लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं)

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