UK General Election 2019: ब्रेक्जिट की विवादास्पद राजनीति ने ब्रिटेन के सहिष्णु समाज को पहुंचाई गहरी चोट

ब्रेक्जिट के चलते ब्रिटेन की राजनीतिक- सामाजिक खाई काफी चौड़ी हो गई है और उसका दुष्प्रभाव चुनाव में भी दिख रहा है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Wed, 11 Dec 2019 12:14 AM (IST) Updated:Wed, 11 Dec 2019 12:23 AM (IST)
UK General Election 2019: ब्रेक्जिट की विवादास्पद राजनीति ने ब्रिटेन के सहिष्णु समाज को पहुंचाई गहरी चोट
UK General Election 2019: ब्रेक्जिट की विवादास्पद राजनीति ने ब्रिटेन के सहिष्णु समाज को पहुंचाई गहरी चोट

[डॉ. विजय राणा]। ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमंस की 650 सीटों के लिए 12 दिसंबर को चुनाव होने जा रहा है। भारत की तरह ब्रिटेन में भी हर पांच वर्ष में आम चुनाव होते हैं, लेकिन ब्रेक्जिट की अनिश्चितता के चलते वहां हाल के वर्षों में राजनीतिक अस्थिरता इस कदर बढ़ी कि 2015 के बाद से यह ब्रिटेन का तीसरा संसदीय चुनाव है।

ब्रिटेन के आधुनिक इतिहास में यह सबसे महत्वपूर्ण चुनाव है। इसके नतीजे उसकी आगे की राह तय करेंगे। अभी ब्रिटेन दोराहे पर खड़ा है। दरअसल 2016 में एक जनमत संग्रह के द्वारा ब्रिटेन के बहुसंख्यक 52 प्रतिशत मतदाताओं ने यूरोपीय आर्थिक संघ से बाहर निकलने का विवादास्पद निर्णय लिया, लेकिन वह फैसला अब तक अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सका है।

इस बार के चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप बहुत ज्यादा

इस दौरान ब्रिटेन की राजनीतिक और सामाजिक खाई काफी चौड़ी हो गई, जिसका दुष्प्रभाव चुनाव में नजर आ रहा है। मैं 1983 से यहां के चुनावों का विश्लेषण कर रहा हूं, पर चुनावों में ऐसी कड़वाहट, इतना क्रोध और इतने आरोप-प्रत्यारोप पहले कभी नहीं देखे। देश विभाजित है। जनता भ्रमित है। व्यापारी चिंतित हैं। युवा आक्रोशित हैं और अल्पसंख्यक अपने भविष्य के प्रति आशंकित हैं।

2008 की आर्थिक मंदी के बाद से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई है। स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और सामाजिक सुरक्षा में लगातार कटौतियां होती रही हैं। कमजोर तबके के लोगों का वेतन बढ़ा नहीं है। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई भी बढ़ी है। अपनी इन विफलताओं को छिपाने के लिए ब्रिटेन के बहुत से राजनीतिज्ञों ने इन आर्थिक कठिनाइयों के लिए यूरोपीय संघ को दोषी ठहराना शुरू कर दिया।

यूरोपीय संघ के बजट में 8.9 अरब पाउंड का अतिरिक्त अनुदान

ब्रिटेन प्रतिवर्ष यूरोपीय संघ को भारी अनुदान देता है। उदाहरण के लिए 2018 में ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ के बजट में 8.9 अरब पाउंड का अतिरिक्त अनुदान दिया। ब्रेक्जिट के पक्षधर नेताओं का मानना है कि यूरोपीय संघ छोड़ने के बाद 8.9 अरब पाउंड की इस भारी भरकम रकम को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी स्थानीय सेवाओं पर खर्च किया जा सकेगा।

30 जनवरी से पहले ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर

सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का कहना है कि चुनाव जीतने के तुरंत बाद ब्रेक्जिट विधेयक को क्रिसमस से पहले संसद में पास कराया जाएगा और 30 जनवरी से पहले ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर आ जाएगा। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता यूरोपीय संघ में बने रहना चाहती हैं। वहीं प्रमुख विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन का कहना है कि पहले तो वे यूरोपीय संघ के साथ ब्रेक्जिट के लिए एक नया समझौता करेंगे। फिर उस समझौते पर एक नया जनमत संग्रह कराएंगे। यदि जनता ने इस नए समझौते का समर्थन किया तो ब्रिटेन यूरोपीय संघ को छोड़ देगा और यदि समझौते को खारिज कर दिया तो ब्रिटेन यूरोपीय संघ में बना रहेगा। लेबर पार्टी की इस नीति को लेकर ब्रेक्जिट से उकताए मतदाताओं के मन में दो आशंकाएं हैं।

भविष्य में भी टूट सकता है ब्रिटेन

एक तो यह कि अंतिम फैसला होने में महीनों लग सकते हैं और दूसरा हो सकता है कि जेरेमी कोर्बिन को स्पष्ट बहुमत न मिले। उन्हें स्कॉटलैंड की आजादी की समर्थक स्कॉटिश नेशनल पार्टी (SNP) के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ सकती है। एसएनपी पहले ही यह कह चुकी है कि यदि ब्रिटेन ने ब्रेक्जिट का फैसला किया तो वह स्कॉटलैंड की आजादी के लिए जनमत संग्रह कराना चाहेगी, क्योंकि स्कॉटलैंड की जनता यूरोप में रहना चाहती है। ब्रिटेन के बहुत से मतदाता मानते हैं कि यदि एसएनपी और लेबर पार्टी की साझा सरकार बनती है तो भविष्य में ब्रिटेन टूट सकता है। स्कॉटलैंड यूनाइटेड किंगडम से अलग हो सकता है।

जॉनसन को सिर्फ अमीर समर्थकों की चिंता

ब्रिटिश राजनीति का एक और निराशाजनक पक्ष है जनता में तीनों प्रमुख पार्टियों के नेताओं के प्रति अविश्वास का भाव। बोरिस जॉनसन के बारे में माना जाता है कि उन्हें सिर्फ अपनी कुर्सी और अपने अमीर समर्थकों की चिंता है। जेरेमी कोर्बिन अपने धुर-वामपंथी विचारों के कारण हमेशा विवादास्पद रहे हैं। वह ब्रिटेन की राजशाही में यकीन नहीं रखते। वह अफगानिस्तान से लेकर सीरिया तक ब्रिटेन के सैनिक अभियानों के विरोधी रहे हैं। उन पर यहूदी विरोधी होने के गंभीर आरोप हैं। वह कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप के समर्थक हैं। वह पाकिस्तान के इस दृष्टिकोण का भी समर्थन करते है कि भारत कश्मीर में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहा है।

भारतीय मूल के मतदाता लेबर पार्टी से नाराज

कोर्बिन के भारत विरोधी रुख के कारण भारतीय मूल के मतदाता लेबर पार्टी से नाराज हैं। 15 अगस्त को जब भारतीय मूल के लोग भारत के उच्चायोग के सामने जश्न माना रहे थे तो हजारों पाकिस्तान समर्थकों की एक भीड़ ने वहां हिंसक प्रदर्शन किया। उस प्रदर्शन में लेबर पार्टी के कई सांसदों ने भारत विरोधी भड़काऊ भाषण दिए। सितंबर में लेबर पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध और कश्मीर की आजादी के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया गया। पाकिस्तान समर्थक गुटों ने कंजरवेटिव पार्टी के उन सांसदों को हराने के लिए एक अभियान शुरू किया है, जिन्होंने भारत के पक्ष में आवाज उठाई थी। मस्जिदों में लेबर पार्टी के समर्थन में बड़े बड़े पोस्टर देखे जा सकते हैं।

ब्रेक्जिट विवाद ब्रिटेन के सहिष्णु समाज को गहरी चोट

ब्रिटिश चुनाव में जारी इस सांप्रदायिक खेल का विरोध करने के लिए भारतीय मूल के संगठनों ने भी ब्रिटिश हिंदू वोट मैटर्स नामक एक लेबर विरोधी अभियान चलाया है। रोचक यह है कि इस्लाम और कुरान का वास्ता देकर मुस्लिम वोट को प्रभावित करने वाले लेबर नेता अब यह शिकायत कर रहे हैं कि भारत ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। ब्रेक्जिट की विवादास्पद राजनीति ने ब्रिटेन के सहिष्णु समाज को गहरी चोट पहुंचाई है।

भारतीय और पाकिस्तानी समुदाय हिंदू-मुस्लिम प्रतिद्वंद्विता के आधार पर मतदान का मन बना चुका है। दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच मानो तलवारें खिंची हैं। मीडिया में उग्र बहस जारी है। जनता की कुंठा बढ़ती जा रही है। यदि अगले शुक्रवार की सुबह कंजरवेटिव पार्टी को बहुमत नहीं मिलता तो सामाजिक तनाव की यह स्थिति अनिश्चित काल तक बनी रहेगी।

(लेखक लंदन में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

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