अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मुद्रा की मांग और पूर्ति में संतुलन आवश्यक

अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में रखने और सुचारु रूप से चलाने के लिए मुद्रा की मांग और पूर्ति में संतुलन आवश्यक है। चलन में अधिक मुद्रा होने से कीमतों में उछाल आता है जबकि कमी होने से आर्थिक मंदी की स्थिति हो सकती है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 15 Jun 2021 09:47 AM (IST) Updated:Tue, 15 Jun 2021 09:50 AM (IST)
अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मुद्रा की मांग और पूर्ति में संतुलन आवश्यक
महामारी का और कोई दौर नहीं आया तो अगले दो-तीन महीनों में रोजगार की स्थिति में सुधार की अच्छी उम्मीद

प्रो. लल्लन प्रसाद। आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती के कारण कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत सरकार को नोट छाप कर अधिक मुद्रा चलन में लानी चाहिए, ताकि उद्योग-धंधे और व्यापार के लिए अधिक धन उपलब्ध हो सके। सीआइआइ के अध्यक्ष उदय कोटक ने पहले यह सुझाव दिया। फिर देश के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इसी तरह के विचार व्यक्त किए और कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी इसका अनुमोदन किया। इसके पीछे जो तर्क दिए गए वे विचारणीय हैं, परंतु इस संबंध में कोई भी निर्णय लेने के पहले पूरी स्थिति को अच्छी तरह जांचना आवश्यक है। 

लाकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित: इस दौर में भारत की अर्थव्यवस्था में भी भारी गिरावट आई। वित्त वर्ष 2020-21 में जीडीपी माइनस 7.5 पर आ गया। मई 2020 में भारत सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक के राहत पैकेज की घोषणा की, रिजर्व बैंक ने भी समय समय पर आवश्यक कदम उठाए जिससे अर्थव्यवस्था नियंत्रण में रही, किंतु लाकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होती रहीं, मंदी की स्थिति बनी रही। इसमें दोराय नहीं कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से अधिक घातक सिद्ध हुई है। स्वास्थ्य सेवाओं, मेडिकल आक्सीजन, वैक्सीन और अस्पतालों की क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार को भारी रकम खर्च करना पड़ा। हालांकि स्थिति नियंत्रण में आ रही है और अनलाक की प्रक्रिया शुरू होने से आíथक गतिविधियां बढ़नी शुरू हो गई हैं, किंतु अर्थव्यवस्था में अभी भी मंदी की स्थिति है।

मुद्रा की आवश्यकता तीन प्रमुख कारणों से होती है: यह समझना होगा कि हमारी वर्तमान आर्थिक स्थिति मुद्रा की कमी के कारण नहीं है, बल्कि महामारी के कारण है। अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर आ रही है। ऐसे में नोट छाप कर अधिक मुद्रा चलन में लाने से मुद्रास्फीति हो सकती है, रुपया कमजोर हो सकता है, वित्तीय घाटा जो पहले से ही मान्य सीमा के ऊपर जा चुका है वह तेजी से बढ़ सकता है, और इस प्रकार धन का दुरुपयोग बढ़ सकता है। मुद्रा की आवश्यकता तीन प्रमुख कारणों से होती है- वस्तुओं और सेवाओं की खरीद और बिक्री के लिए, भविष्य की अनिश्चितता से बचने के लिए और निवेश के लिए जो अनावश्यक वस्तुओं और सेवाओं में भी खर्च की जा सकती है जैसे स्पेक्युलेटिव व्यापार एवं उद्योगपतियों, व्यापारियों, नेताओं और सरकारी अफसरों द्वारा भ्रष्टाचार आदि में।

नोट छाप कर अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का सिद्धांत: राष्ट्रीयकृत बैंकों का एनपीए छह लाख करोड़ के आसपास है। उसकी उगाही के और ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही, विनिवेश का जो लक्ष्य वर्ष 2021-22 के लिए 1.75 लाख करोड़ का निर्धारित किया गया है, उसे पूरी करने की कोशिश करनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि आर्थिक मंदी की स्थिति में नोट छाप कर अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का सिद्धांत सबसे पहले ब्रिटिश अर्थशास्त्री लार्ड कीन्स ने वर्ष 1930 में प्रतिपादित किया था। इसका उद्देश्य था भारी मंदी के कारण पटरी से उतर चुकी वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाना, उसे फिर से व्यवस्थित करना। उस मंदी का एक बड़ा कारण अमेरिकी फेडरल रिजर्व की मुद्रा नीति थी जिससे बाजार में मुद्रा का चलन बहुत कम हो गया था, डॉलर की पूíत मांग से कहीं बहुत कम हो गई थी।

लिहाजा कीन्स ने प्रचलित मुद्रा सिद्धांत जो मुद्रा की मात्र और कीमतों में सीधा संबंध मानता था, उसकी जगह एक नया सिद्धांत दिया जिसके अनुसार मुद्रा की मात्र का संबंध केवल कीमतों से नहीं होता, बल्कि उत्पादन और रोजगार से भी जुड़ा होता है। मंदी की स्थिति में थोड़े समय के लिए अधिक नोट छाप कर मुद्रा की मात्र बढ़ाने से ब्याज दर में कमी आती है, निवेश के लिए अधिक धन उपलब्ध होता है, कल कारखानों में उत्पादन बढ़ता है और रोजगार के और अवसर बढ़ते हैं। साथ ही, लोगों की आमदनी में वृद्धि होती है, चीजों की मांग बढ़ती है और इस तरह अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। पूर्ण रोजगार की स्थिति बन जाने पर नोट छापने की आवश्यकता नहीं रह जाती। यदि ऐसा किया जाता है तो कीमतों में वृद्धि होने लगती है और मुद्रास्फीति की स्थिति आ जाती है।

यह सही है कि कीन्स का सिद्धांत उस समय विश्वव्यापी मंदी से उबरने में उपयोगी सिद्ध हुआ। किंतु भारत की वर्तमान अर्थव्यवस्था पिछली सदी के तीसरे दशक के अमेरिकी मंदी की तरह नहीं है। बाजार में रुपये की कमी नहीं है, राहत पैकेजों में जो धन सरकार और रिजर्व बैंक ने उपलब्ध कराया है उतना भी निवेशकों ने नहीं उठाया, ब्याज दर पर रिजर्व बैंक ने पहले से ही नियंत्रण कर रखा है, रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में कुछ महीनों से कोई परिवर्तन नहीं किया है। गरीबों के लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था की गई है। गरीब महिलाओं और बुजुर्गो के बैंक खातों में सीधे धन हस्तांतरण की व्यवस्था भी की है।

नोट छापने की वकालत करने वाले विशेषज्ञ अमेरिका, जापान और विकसित यूरोपीय देशों का उदाहरण देते हैं, जहां महामारी से निपटने के लिए सरकारों ने नोट छापे। उन देशों की अर्थव्यवस्था भारत से भिन्न है, उनकी मुद्रा मजबूत है, अंतरराष्ट्रीय व्यापार बड़े पैमाने पर है, नोट छाप कर भी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के खतरे से निपटने में अधिक सक्षम हैं। डॉलर और यूरो विश्व मुद्रा हैं, जिनका उपयोग दुनिया के करीब सभी देश करते हैं और जिनका प्रभाव सभी अन्य मुद्राओं पर सीधा पड़ता है।

भारतीय रुपये की कीमत अमेरिकी डॉलर से प्रभावित होती रहती है। वर्तमान परिस्थिति में यदि नोट छाप कर आर्थिक विकास की बात की जाए तो रुपये के अवमूल्यन का खतरा है। वित्तीय घाटा जो मान्य सुरक्षा सीमा 3.5 प्रतिशत के ऊपर 9.3 प्रतिशत तक जा चुका है, और अधिक ऊपर जाकर अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा। बेरोजगारी की स्थिति भयावह हो चुकी है। अनलाक की प्रक्रिया शुरू होने से कल-कारखाने खुल रहे हैं और प्रवासी मजदूर शहरों की तरफ रुख करने लगे हैं। महामारी का और कोई दौर नहीं आया तो अगले दो-तीन महीनों में रोजगार की स्थिति में सुधार की अच्छी उम्मीद है।

[पूर्व विभागाध्यक्ष, बिजनेस इकोनोमिक्स विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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