पिछड़े मुस्लिम समाज की भी सुध लें अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली संस्थाएं, पसमांदा मुस्लिमों की क्यों नहीं होती भागीदारी

मुस्लिम एवं अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली लगभग सभी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में पसमांदा मुस्लिम समाज की भागीदारी न के बराबर है। मुस्लिम हितों की बात करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का भी यही हाल है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Tue, 06 Oct 2020 06:20 AM (IST) Updated:Tue, 06 Oct 2020 06:20 AM (IST)
पिछड़े मुस्लिम समाज की भी सुध लें अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली संस्थाएं, पसमांदा मुस्लिमों की क्यों नहीं होती भागीदारी
पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमानों का एक संगठन।

[फैयाज अहमद फैजी]। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की पहल आगे बढ़ने के साथ ही वहां मस्जिद के लिए आवंटित भूमि पर मस्जिद निर्माण की कोशिश भी तेज हो गई है, लेकिन इस मस्जिद के निर्माण के लिए गठित इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ट्रस्ट में बाबरी मस्जिद के लिए संघर्ष करने वाले हाशिम अंसारी के बेटे इकबाल अंसारी को स्थान नहीं दिया गया। इसे लेकर पसमांदा यानी पिछड़े मुसलमानों के एक संगठन पसमांदा मुस्लिम महाज ने विरोध जताया है। इस संगठन का कहना है कि ट्रस्ट ने पिछड़े मुसलमानों को कोई महत्व नहीं दिया, जबकि उनकी संख्या कुल मुस्लिम आबादी की करीब 90 प्रतिशत है। वास्तव में यह पहली और अकेली संस्था नहीं है, जिसने पसमांदा मुसलमानों को महत्व नहीं दिया।

मुस्लिम एवं अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली लगभग सभी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में पसमांदा मुस्लिम समाज की भागीदारी न के बराबर है। मुस्लिम हितों की बात करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का भी यही हाल है। देश के बंटवारे के बाद कांग्रेस से जुड़े अशराफ यानी उच्च जाति के मुस्लिम नेता मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर अशराफ मुस्लिमों का ही हित साधते रहे। दरअसल अशराफ मुस्लिमों को मुस्लिम लीग की तरह एक ऐसी मजबूत संस्था की आवश्यकता थी, जो सरकार पर दबाव बना सके। इसी को ध्यान में रखते हुए पर्सनल लॉ की आड़ में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की गई, जो एक तरह से मुस्लिम लीग का ही नया रूप थी।

सवर्ण मुस्लिमों के वर्चस्व को बनाए रखने का काम करता है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड

हालांकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सभी मुस्लिमों के हितों की रक्षा करने का दावा करता है, लेकिन वह मुस्लिम लीग की तरह केवल अशराफ यानी एक तरह से सवर्ण मुस्लिमों के वर्चस्व को बनाए रखने का काम करता है। इस बोर्ड के सदस्यों की संख्या लगभग 200 है। इनमें पसमांदा मुसलमानों के सदस्यों की गिनती करना कठिन है। बोर्ड ने इस्लामी संप्रदाय में भेद को स्वीकार करते हुए सारे मसलकों और फिरकों के उलेमा को तो उनकी आबादी के आधार पर जगह दी है, लेकिन बोर्ड का अध्यक्ष सदैव सुन्नी संप्रदाय के देवबंदी/नदवी फिरके से आता है। ज्ञात रहे कि भारत में सुन्नियों की संख्या सबसे अधिक है। सुन्नियों में देवबंदी/नदवी समुदाय बरेलवी समुदाय से भले ही संख्या में अधिक न हो, फिर भी असर की दृष्टि से वही सबसे बड़ा माना जाता है। यद्यपि शिया संप्रदाय संख्या में सुन्नी संप्रदाय के छोटे से छोटे फिरके से भी कम है, फिर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का उपाध्यक्ष सदैव शिया संप्रदाय से होता है।

मुस्लिम धर्म भी नस्ली और जातिगत आधार पर है बंटा

क्या भारतीय मुस्लिम समाज सिर्फ मसलकों/ फिरकों में ही बंटा है? इसका जवाब न में मिलता है। मुस्लिम समाज मसलकों और फिरकों में बंटे होने के साथ-साथ नस्ली और जातिगत आधार पर भी बंटा है। उसमें सैयद, शेख, जुलाहा, धुनिया, धोबी, मेहतर, भटियारा, मिरासी और नट आदि जातियां मौजूद हैं, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड किसी भी पसमांदा मुस्लिम (पिछड़े, दलित और आदिवासी) जाति के लोगों को उनकी जातिगत संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व नहीं प्रदान करता।

भले ही आम हिंदुस्तानी यह समझता हो कि मुस्लिम समाज जातिवाद से मुक्त है, लेकिन यह सच्चाई नहीं। सच यह है कि मुस्लिम समाज भी जातिवाद से ग्रस्त है। जहां हिंदू समाज में जातिवाद को लेकर बहस होती है और यह माना जाता है कि जातिवाद एक समस्या है, वहीं मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव से इन्कार किया जाता है।

इस्लाम में सैद्धांतिक रूप में है जातिवाद

यह एक सच्चाई है कि मुस्लिम समाज भी जातिवाद से ग्रस्त है। विडंबना यह है कि इसे लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं होती और यदि कभी कोई सवाल उठाता है तो यह कह दिया जाता है कि इस्लाम में तो जातिवाद के लिए कोई स्थान ही नहीं है। यह सच को नकारने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं। भले ही इस्लाम को जातिवाद विरोधी और मुस्लिम समाज को जातिवाद रहित समाज माना जाता हो, लेकिन इस्लाम में सैद्धांतिक रूप में जातिवाद है। भारत की तरह पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज में नस्लवाद, जातिवाद, ऊंच-नीच किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है।

मुस्लिम पर्सनल बोर्ड में उच्च अशराफ वर्ग की महिलाओं को ही वरीयता

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भारतीय मुस्लिमों के जातिगत भेद से अवगत न हो, लेकिन वह इसे स्वीकार करने से इन्कार करता है। इतना ही नहीं, वह गैर बराबरी में शादी-ब्याह को न्यायोचित नहीं मानता। वह इस प्रकार के विवाह को वर्जित करार देता है। अशराफ मुस्लिमों की यह आस्था है कि महिलाएं नेतृत्व के योग्य नहीं होतीं, इसलिए प्रारंभ में बोर्ड में महिलाओं की भागीदारी नहीं थी, लेकिन भारतीय जनमानस के दबाव के कारण अब बोर्ड ने महिलाओं को केवल सदस्य के रूप में शामिल तो कर लिया है, लेकिन उच्च अशराफ वर्ग की महिलाओं को ही वरीयता दी गई है। बोर्ड में गैर आलिम की भी भागीदारी होती है, जो ज्यादातर कानूनविद या राजनेता होते हैं, लेकिन यहां भी अशराफ वर्ग का ही वर्चस्व है।

बोर्ड के अशराफ उलेमा खुद को पसमांदा का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं। आखिर वे पसमांदा मुस्लिम समाज की महिलाओं और पुरुषों को प्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं देते? स्पष्ट है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड केवल मुस्लिम उच्च वर्ग की ही प्रतिनिधि संस्था है, जो देश की कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 10 प्रतिशत ही है, बाकी बचे 90 प्रतिशत पसमांदा मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व को सिरे से खारिज कर वह पसमांदा के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रहा है। आज इसमें सुधार की महती जरूरत है। यदि इस जरूरत की र्पूित मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? बेहतर होगा कि भारत सरकार और साथ ही राज्य सरकारें यह समझें कि देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन पसमांदा मुस्लिम समाज की आवाज नहीं बन रहे हैं और इसी कारण उसकी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।।

(लेखक चिकित्सक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)  

[लेखक के निजी विचार हैं]

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