कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के बीच असंतुलन बढ़ाने का किया काम

उन समाज विरोधी तत्वों पर कड़ी निगरानी रखी जाए जो किसान आंदोलन को हिंसक दिशा में मोड़ सकते हैं और वे सभी कदम उठाए जाएं जिससे कि गणतंत्र दिवस पर कोई अप्रिय और लज्जित करने वाली घटना न घटित हो।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 14 Jan 2021 01:09 AM (IST) Updated:Thu, 14 Jan 2021 01:51 AM (IST)
कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के बीच असंतुलन बढ़ाने का किया काम
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध दूर होगा।

[ डॉ. एके वर्मा ]: नए कृषि कानूनों के विरोध में कुछ किसान संगठन गत वर्ष नवंबर से ही दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले हुए हैं। इससे उत्पन्न हुए गतिरोध को दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक पहल भी की। शीर्ष अदालत ने 12 जनवरी को अपने निर्णय में तीन बातें एकदम स्पष्ट कर दीं। पहली यही कि सरकार द्वारा पारित तीनों कृषि कानूनों को लागू करने पर आगामी आदेश तक रोक रहेगी। दूसरी यही कि कृषि कानूनों के पारित होने के पहले वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी वाली व्यवस्था लागू रहेगी और तीसरी यही कि सरकार और किसान संगठनों के बीच मुद्दों को सुलझाने के लिए चार सदस्यीय समिति गठित होगी। इसमें भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, दो कृषि अर्थशास्त्री डॉ. प्रमोद जोशी और अशोक गुलाटी के साथ ही शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवट शामिल होंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध दूर होगा

समिति दो महीने में न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। कानूनों के अमल पर रोक को लेकर महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने चुनौती पेश की और तर्क दिया कि स्वयं न्यायालय ने ‘भावेश परीश बनाम भारत सरकार, हेल्थ फॉर मिलियंस बनाम भारत सरकार और उत्तर प्रदेश बनाम हिरेंद्र सिंह आदि मामलों में इसके उलट निर्णय दिए हैं। तमिलनाडु, राजस्थान और भारतीय किसान यूनियन के वकीलों ने समिति के समक्ष पेश होने का आश्वासन दिया जबकि भारतीय किसान संघ ने कानूनों का स्वागत किया और शंका जताई कि उन पर रोक से किसानों के दो करोड़ दस लाख रुपये मूल्य के फल नष्ट हो जाएंगे, मगर न्यायालय ने अपने आदेश को ‘असाधारण’ बताया और उम्मीद जाहिर की कि इससे सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध दूर होगा और किसान अपने खेत-खलिहान की ओर लौट सकेंगे। समिति के सामने सभी को उपस्थित होने का अधिकार होगा चाहे वे उसके पक्ष में हों या विपक्ष में।

नए कृषि कानूनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ‘असाधारण’

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय वास्तव में ‘असाधारण’ है। सामान्यत: न्यायालय किसी कानून की संवैधानिकता की जांच करता है और किसी प्रविधान के असंवैधानिक पाए जाने पर उसे निरस्त करता है। वर्ष 1973 के केशवानंद भारती मामले से ही न्यायपालिका की शक्तियां बहुत बढ़ गई हैं, क्योंकि तबसे किसी भी कानून को इस आधार पर निरस्त किया जा सकता है कि वह ‘संविधान के मूल ढांचे’ के विरुद्ध है जबकि मूल ढांचे को ही अंतिम रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। इस कारण पहले से ही व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के उस संतुलन में बदलाव आ गया है जिसे संविधान सभा के सदस्यों ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान सभा के विधिक-सलाहकार बीएन राव आदि के नेतृत्व में बनाया था। सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय उस असंतुलन को न्यायपालिका के पक्ष में और दृढ़ करता है। हालांकि न्यायपालिका को शायद इसलिए ऐसा करना पड़ा कि उसके सामने तीन प्रकार की याचिकाएं थी। एक, जो नए कृषि कानूनों को चुनौती दे रहीं थीं। दूसरी जो उनका समर्थन कर रहीं थी और तीसरी जो किसानों के धरने-प्रदर्शन को अपने मौलिक अधिकारों का हनन मान रही थीं। न्यायालय के आदेश के पीछे संभवत: यह भावना थी कि इससे कानूनों पर एक सकारात्मक विमर्श हो सकेगा और किसान अपने घर लौट सकेंगे जिससे दिल्ली और आसपास के लोगों के मौलिक अधिकार भी संरक्षित हो सकेंगे।

किसान संगठनों के नेताओं ने कोर्ट द्वारा गठित समिति के सामने जाने से किया इन्कार

उधर आंदोलनरत किसान संगठनों के नेताओं ने यह कहकर सर्वोच्च न्यायालय की समिति के सामने जाने से इन्कार कर दिया कि उसमें नियुक्त सभी सदस्य सरकार और नए कृषि कानूनों के समर्थक हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह सर्वोच्च न्यायालय पर आरोप लगाने जैसा है कि उसने समिति के गठन में भेदभाव किया है। इससे स्पष्ट है कि आंदोलन के असली नेता ‘वे जहां भी बैठे हैं’ उनकी मंशा टकराव की है। न वे संसद के कानून मानेंगे, न कार्यपालिका के साथ वार्ता कर समझौता करेंगे और न ही न्यायपालिका के निर्देशों का पालन करेंगे। यदि ऐसे नेतृत्व को अराजकतावादी और संविधान विरोधी न कहा जाए तो क्या कहा जाए? ये नेता 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड पर ट्रैक्टर तमाशा करना चाहते हैं जो किसी भी देश और सरकार के लिए पूरी दुनिया में लज्जित करने वाली घटना होगी। कोई भी सरकार उसे बर्दाश्त नहीं करेगी। किसान आंदोलन संभवत: किसानों का रहा ही नहीं, उसे खालिस्तानियों ने ‘हाइजैक’ कर लिया है जैसा कि ‘इंडियन किसान यूनियन’ ने आरोप लगाया भी है कि प्रतिबंधित संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ किसान आंदोलन को उदारतापूर्वक वित्तीय मदद कर रहा है। महान्यायवादी वेणुगोपाल ने इस संबंध में न्यायालय के समक्ष गोपनीय साक्ष्य रखने का प्रस्ताव भी रखा।

किसान संगठन कानूनों की वापसी से कम पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं

बहरहाल तमाम समाधान तलाशने के बीच किसान संगठनों की एकमात्र मांग है कि वे कानूनों की वापसी से कम पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं। यह तो लोकतंत्र को भीड़तंत्र का बंधक बनाने जैसा है कि या तो हमारी मांग मानो या हम धरना-प्रदर्शन जारी रखेंगे। आंदोलनों का स्वरूप सुधारात्मक हो यह तो समझ में आता है, लेकिन वह इतना कठोर और प्रतिरोधात्मक हो यह लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल है। आखिर करोड़ों लोगों ने सरकार को चुना है। उनकी तो कोई आवाज ही नहीं रह गई। असल में सरकार ही उनकी आवाज है। यद्यपि अभी तक किसान आंदोलन शांतिपूर्ण रहा है और अदालत ने भी इसकी सराहना की है, परंतु पिछले वर्ष जैसी हिंसक और सुनियोजित वारदात दिल्ली में हुई, वैसी ही किसी घटना की आशंका से इन्कार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसे धरने-प्रदर्शन में अराजक और समाज विरोधी तत्वों का घुस जाना बहुत आसान है। वे कब उसे हिंसक मोड़ दे दे, उसका उत्तरदायित्व तो किसान संगठन लेंगे नहीं।

समाज विरोधी तत्वों पर कड़ी निगरानी रखी जाए जो किसान आंदोलन की दिशा तय कर रहे हैं

ऐसे में यह बहुत आवश्यक है कि उन तत्वों को चिन्हित किया जाए जो किसान आंदोलन की दिशा तय कर रहे हैं। उन समाज विरोधी तत्वों पर कड़ी निगरानी रखी जाए जो इसे हिंसक दिशा में मोड़ सकते हैं और वे सभी कदम उठाए जाएं जिससे कि गणतंत्र दिवस पर कोई अप्रिय और लज्जित करने वाली घटना न घटित हो।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )

chat bot
आपका साथी