सोनिया 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करके मोदी और शाह के दांव का सामना कर सकती हैं

नानाजी देशमुख ने इंदिरा गांधी के बारे में लिखा ‘आखिर इंदिरा गांधी ने एक महान शहीद के रूप में इतिहास में स्थाई स्थान प्राप्त कर ही लिया।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 17 Sep 2019 02:32 AM (IST) Updated:Tue, 17 Sep 2019 02:32 AM (IST)
सोनिया 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करके मोदी और शाह के दांव का सामना कर सकती हैं
सोनिया 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करके मोदी और शाह के दांव का सामना कर सकती हैं

[ रशीद किदवई ]: वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों की कुछ वे फाइलें नए सिरे से खुल गई हैैं, जिनमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ का भी नाम है। यह एक तरह से कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती है। सोनिया गांधी और कांग्रेस के लिए यह मुनासिब वक्त है कि वह 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करें। बताएं कि तब उग्रवाद और अलगाववाद के चलते पंजाब के क्या हालात थे? कांग्रेस ऐसा करके ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इस दांव का सामना कर सकती है। हालांकि किसी भी सभ्य एवं लोकतांत्रिक समाज में जनमत के लिए प्रस्तुत किए गए तर्कों का गलत हो जाना कोई नई बात नहीं। इसके बावजूद कांग्रेस यह तो बता ही सकती है कि वर्ष 1992-97, 2007-2012 और 2017 से अब तक पंजाब में जब कांग्रेस का शासन रहा तब उस दौरान राज्य किन परिस्थितियों से गुजरा। दिल्ली में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस 15 वर्षों तक सत्तारूढ़ रही और उस समय पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में था।

1984 के सिख विरोधी दंगे संवेदनशील मामला है

1984 के सिख विरोधी दंगे बहुत भावुक और संवेदनशील मामला है। लिहाजा उन पर चर्चा करते हुए राहुल गांधी पूरी तरह सचेत रहते हैं। इंग्लैंड के सांसदों और स्थानीय नेताओं के साथ वार्ता में राहुल गांधी ने कहा, ‘उसे लेकर मेरे दिमाग में कोई शंका नहीं है। वह एक त्रासदी थी, एक दुखद अनुभव। आप कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी उसमें लिप्त थी। मैं इससे सहमत नहीं हूं। वह तो बस मारकाट और एक त्रासदी थी।’ इसके विपरीत अर्णब गोस्वामी को दिए एक साक्षात्कार में राहुल गांधी ने स्वीकार किया था कि 1984 के सिख विरोधी दंगों में कुछ कांग्र्रेसी लिप्त थे। इस साक्षात्कार के दौरान कुछ इस तरह की बातें हुई थीं:

अर्णब: क्या सिख विरोधी दंगों में कांग्रेसी लिप्त थे?

राहुल: शायद कुछ कांग्रेसी लिप्त रहें होंगे।

अर्णब: क्या पीड़ितों को इंसाफ मिला?

राहुल: एक कानूनी प्रक्रिया होती है, जिससे उन्हें गुजरना पड़ा।

अर्णब: आप स्वीकार करते हैं कि कुछ कांग्र्रेसी इसमें लिप्त रहे होंगे?

राहुल: कुछ कांग्र्रेसियों को इसके लिए सजा दी गई।

1999 में मल्होत्रा के हाथों हार का सामना

अपनी राजनीतिक और चुनावी मजबूरियों के तहत राहुल गांधी वे बातें नहीं कह सके जो 1999 में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ते वक्त डॉ. मनमोहन सिंह ने कही थीं। हालांकि पूरे दमखम से चुनाव लड़ने के बावजूद उन्हें भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। 1999 के चुनाव में मनमोहन सिंह ने उन दंगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की थी।

सिख विरोधी दंगा ‘एक काला धब्बा और बेहद दुखद घटना’

2 सितंबर 1999 को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख विरोधी दंगों को ‘एक काला धब्बा और बेहद दुखद घटना’ करार दिया था। इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इसमें बतौर संगठन कांग्र्रेस का कोई हाथ नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज एफआइआर से साबित होता है कि इन दंगों में आरएसएस के कई कार्यकर्ता लिप्त थे। बाद में मनमोहन सिंह ने सफाई दी कि इन दंगों के लिए उन्होंने पूरे तौर पर आरएसएस को जिम्मेदार नहीं ठहराया था। 13 दिसंबर 1999 को उन्होंने कहा, ‘चुनावी फायदा उठाने के लिए मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया। मैंने कहा था कि कांग्र्रेस, आरएसएस या अन्य संगठनों से जुड़े जो भी लोग इन दंगों में लिप्त थे, उन्हें इसकी सजा जरूर मिलनी चाहिए।’

मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में बिना शर्त माफी मांगी थी

1984 के दंगों में हुए सिखों के नरसंहार पर 11 अगस्त, 2005 को बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में बिना शर्त माफी मांगी थी। उस वक्त उन्होंने जो कुछ बोला उसमें से आरएसएस का नाम गायब था। उन्होंने कहा कि वे किसी ‘झूठे सम्मान’ की खातिर नहीं खड़े हैं और उनका सिर शर्म से झुका हुआ है। उन्होंने तब 1999 की एक घटना भी याद की कि कैसे उस वक्त वह हरमिंदर साहिब में सोनिया गांधी के साथ थे और ‘दोनों ने यह दुआ की कि हमें हिम्मत दें और राह दिखाएं कि अपने देश में दोबारा ऐसी घटनाएं कभी न हों।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘इंसान होने के नाते हमें गर्व है और हममें इतनी प्रतिभा है कि सबके लिए भविष्य की नई इबारत लिख सकें।’

सिख विरोधी दंगे जैसे मामले में राहुल गांधी लिबरल

कांग्रेस का एक प्रभावशाली वर्ग निजी तौर पर मानता है कि सिख विरोधी दंगे जैसे संवेदनशील मामले में राहुल गांधी लिबरल और वामपंथी विचारकों से प्रभावित हैं, अन्यथा वह यह भी बता सकते थे कि मनीष तिवारी और अजय माकन जैसे कांग्रेस के नेताओं ने खुद पंजाब में फैले आतंकवाद के दंश झेले हैं। मनीष तिवारी के पिता डॉ. वीएन तिवारी प्रोफेसर और लगभग 40 किताबों के लेखक थे। 1984 में आतंकवादियों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी। इसी तरह अजय माकन के भाई, सांसद और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन की 31 जुलाई, 1985 को दक्षिण दिल्ली में एक खौफनाक हमले में हत्या कर दी गई थी।

सरकारी संरक्षण में होने वाली हिंसा और किसी आतंकी हमले में खासा अंतर होता है, लेकिन प्रो.वीएन तिवारी, ललित माकन और इसी तरह की कुछ और नृशंस हत्याओं का गहरा असर हुआ।

पंजाब में लंबे समय तक चलने वाला उग्रवाद

इस तरह की बातें भी कही जाती हैं कि पंजाब में लंबे समय तक चलने वाले उग्रवाद के दौरान कई हजार निर्दोष लोग मारे गए, लेकिन उन पर किसी तरह का राजनीतिक विमर्श शुरू नहीं हुआ। 1980 के दौर में भाजपा के वरिष्ठ नेता मदनलाल खुराना पंजाब की घटनाओं का जिक्र अवश्य करते थे। उस वक्त पंजाब में होने वाले हिंसक हमलों के बाद वह ‘हम लाशें गिनते-गिनते थक गए’ जैसे नारों से दिल्ली की दीवारों को रंग देते थे।

अलगाववादी आंदोलन

मैंने अपनी किताब ‘बैलेट-टेन एपीसोड्स दैट हैव शेप्ड इंडियाज डेमोक्रेसी में बताया है कि पंजाब में 1980 के प्रारंभ में जब अलगाववादी आंदोलन पनप रहा था तो उसे दबाने के इंदिरा गांधी के प्रयासों को आरएसएस का समर्थन प्राप्त था। संघ के विचारक नानाजी देशमुख ने हिंदी पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ (25 नवंबर 1984) में एक आलेख लिखा था। उसके अंत में उन्होंने राजीव गांधी को शुभकामनाएं देते हुए उनका हौसला बढ़ाया। यह वह समय था जब 1984-85 के आम चुनाव में एक माह से भी कम समय बचा था। नानाजी देशमुख ने इंदिरा गांधी के बारे में लिखा, ‘आखिर इंदिरा गांधी ने एक महान शहीद के रूप में इतिहास में स्थाई स्थान प्राप्त कर ही लिया। अपनी नैसर्गिक निर्भीकता और मेधा के बल पर उनमें यह क्षमता थी कि देश को एक दशक आगे ले जा पाएं। उनमें इतनी प्रतिभा थी कि एक भ्रष्ट और विभाजित समाज में प्रचलित पतनोन्मुखी राजनीतिक तंत्र को बखूबी चला सकें।’ क्या पीएम मोदी और शाह इन वास्तविकताओं का सामना करने को तैयार हैं?

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं ओआरएफ में विजिटिंग फेलो हैं )

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