अस्मिता की राजनीति पर हावी आकांक्षाएं: मतदाताओं में आए मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का समझ नहीं पा रहे कुछ दल

एक अदृश्य मतदाता समूह प्रकट हो गया है जो सामाजिक स्तर पर तो अपनी जातीयता पकड़े हुए है पर राजनीतिक स्तर पर उसे छोड़ने को तैयार है। यही वह मनोवैज्ञानिक परिवर्तन है जो अस्मिता की राजनीति करने वाले दल अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं।

By TilakrajEdited By: Publish:Tue, 26 Oct 2021 07:43 AM (IST) Updated:Tue, 26 Oct 2021 07:43 AM (IST)
अस्मिता की राजनीति पर हावी आकांक्षाएं: मतदाताओं में आए मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का समझ नहीं पा रहे कुछ दल
आज देश में संवैधानिक संस्थाओं का ही नहीं, वरन जन आस्थाओं का भी लोकतंत्रीकरण हो रहा

डा. एके वर्मा। जैसे-जैसे पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा के चुनाव पास आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सरगर्मियां और जनता की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। पिछली बार इन राज्यों में चुनाव आयोग द्वारा चार जनवरी, 2017 को चुनावों की घोषणा से चुनावी प्रक्रिया शुरू हुई थी, जो 11 मार्च को मतगणना के साथ खत्म हुई थी। चुनावों में दलों की विजय-पराजय होती रहती है, पर महत्व नूतन प्रवृत्तियों का होता है। कुछ दिनों पूर्व बंगाल चुनावों में ममता बनर्जी फिर सत्ता पर काबिज हो गईं, पर वामपंथ के गढ़ में वाम दलों का सफाया हो गया। लेफ्ट आफ द सेंटर कही जाने वाली कांग्रेस को शून्य पर सिमटना पड़ा, जबकि राज्य में अछूत समझी जानी वाली भाजपा 39 प्रतिशत वोट और 77 सीटें पाकर मजबूत विपक्ष के रूप में उभरी। इसी प्रकार 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा की विजय हुई थी, पर उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह था कि भारतीय लोकतंत्र में अस्मिता या पहचान की राजनीति को विस्थापित कर आकांक्षा की राजनीति ने जन्म ले लिया।

राजनीतिक दलों के परंपरागत जनाधार में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा है और अस्मिता की राजनीति करने वाले दलों के हाथ से सजातीय मतदाता छिटक रहा है। अस्मिता की राजनीति बहुत हुई। अब आकांक्षाओं के परवान चढ़ने का वक्त है। अस्मिता से सशक्तीकरण का रास्ता आकांक्षाओं की पगडंडी से जाता है, जिस पर देश का गरीब, दलित, पिछड़ा और उपेक्षित मतदाता चल पड़ा है, पर ऐसा हुआ क्यों? क्या राजनीति में जातीयता का लोप हो रहा है? क्या मतदाता जाति से वर्ग की ओर मुड़ रहा है? अभी भी ज्यादातर विश्लेषक जातीय गणक को सामने रख मतदान व्यवहार का विश्लेषण करना चाहते हैं। वे मतदाता को यह अधिकार नहीं देना चाहते कि वह स्वतंत्र नागरिक के रूप में भी मतदान कर सके, लेकिन गहराती लोकतांत्रिक जड़ें धीरे-धीरे मतदाता को सामाजिक संरचना के खांचे से निकाल कर नूतन राजनीतिक संरचनाओं के खांचे में डालने लगी हैं। जमीनी हकीकत बदल रही है।

मतदाता को अपने जीवन में धीरे-धीरे गुणात्मक परिवर्तन दिख रहा है। आज भारत सरकार के 54 मंत्रलयों की 311 योजनाओं द्वारा जनधन खातों में सीधे भेजी जाने वाली राशि का लाभ एक ऐसे बड़े गरीब वर्ग को मिल रहा है, जो मीडिया के केंद्र में नहीं है। कुछ ही वर्षो में 50-60 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा जनता का पैसा सरकार ने बचाया है, जो पहले बिचौलियों के पास या फर्जी खातों में जाता था। राज्यों में भी सरकारी योजनाएं जनधन खातों में सीधे धन भेज रही हैं, जैसे उत्तर प्रदेश ने 135 योजनाओं के तहत 2.73 लाख करोड़ रुपये की धनराशि सीधे जनधन खातों में भेजी। इसके अतिरिक्त आयुष्मान, ग्रामीण आवास, शहरी आवास, फसल बीमा, मुद्रा, जन औषधि, शौचालय आदि योजनाओं का लाभ जमीन पर दिख रहा है। जो लोग इसके लाभार्थी हैं, उनके लिए जाति महत्वपूर्ण होगी या सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा देने वाले ये लाभ?

वास्तव में एक अदृश्य मतदाता समूह प्रकट हो गया है, जो सामाजिक स्तर पर अपनी जातीयता को पकड़े है, लेकिन राजनीतिक स्तर पर उसे छोड़ने को तैयार है। यही वह मनोवैज्ञानिक परिवर्तन है, जो अस्मिता की राजनीति करने वाले दल अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं और वे पुराने प्रयोगों में ही उलझे हैं। इसी में चुनावी विजय और पराजय के सूत्र छिपे हैं। देश में अस्मिता और आकांक्षा के मिलन का एक इतिहास है। स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों से लड़ाई में जिन अमर शहीदों ने बलिदान दिया, वे अस्मिता और आकांक्षा दोनों की लड़ाई लड़े। उन्हें भारतीय अस्मिता चाहिए थी और उनकी आकांक्षा थी कि अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिले, जिससे वे स्वतंत्र भारत में खुली हवा में सांस ले सकें। उनकी अस्मिताएं राष्ट्रीय और आकांक्षाएं सामूहिक थीं।

स्वतंत्रता के बाद यदि हमसे सबसे बड़ी भूल हुई, तो यह कि हमने लोकतांत्रिक स्पर्धा द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता को अनेक सामाजिक अस्मिताओं में बांट दिया और सामूहिक आकांक्षाओं को क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और वैयक्तिक आकांक्षाओं की शक्ल दे दी। कांग्रेस के पास अवसर था, क्योंकि वह राजनीतिक दल नहीं, वरन राष्ट्रीय आंदोलन था। उसे समाज का इंद्रधनुषीय गठबंधन कहा जाता था, क्योंकि उसमें सभी सामाजिक वर्गो और समूहों का समावेश था, लेकिन गांधी जी की इच्छा के विरुद्ध जब कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन से राष्ट्रीय दल में रूपांतरण हुआ तो वह समाज के सभी घटकों को सत्ता संरचना में समुचित स्थान न दे सकी, जिससे सिसकती अस्मिताएं और उपेक्षित आकांक्षाएं अवसर पाकर कांग्रेस से अलग हो गईं। इसी कारण आज कांग्रेस की यह दुर्दशा है। जिस समावेशी राजनीति की आज बात होती है, वह तो हमारी थाती है, जिसे कांग्रेस ने नष्ट कर दिया। जो अपनी विरासत को ही नष्ट करे, उसका नाश अवश्यंभावी है।

आज देश में संवैधानिक संस्थाओं का ही नहीं, वरन जन आस्थाओं का भी लोकतंत्रीकरण हो रहा है। अस्मिता की राजनीति सामंतवादी सामाजिक संरचना और मनोवृत्ति की देन है, जो किसी जातीय, भाषाई, धार्मिक या क्षेत्रीय समूह को एक राजनीतिक दल से स्थायी रूप से प्रतिबद्ध कर, उसके चयन के विकल्पों को खत्म कर देती है। लोकतंत्र की मांग है कि मतदाता के सामने चयन के विकल्प खुले हों और वह उनमें से किसी विकल्प का चयन करने को स्वतंत्र हो। ऐसा करने में जरूरी नहीं कि उस पर कोई बाह्य अवरोध हो। वह अपने संस्कार और अपने मनोविज्ञान का भी बंधक हो सकता है, लेकिन जब हम संकीर्ण जातीय बंधन को तोड़ संपूर्ण समाज का आलिंगन करते हैं और समाज भी हमें गर्मजोशी और सौहार्द के साथ स्वीकार करे तो जातीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद हमारे राजनीतिक विकल्प खुल जाते हैं।

ऐसा सौहार्द परिस्थितियां पैदा करती हैं, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय आपदा या कोई स्थानीय चुनौती, जिससे सभी ने मिलकर लड़ा हो। ऐसे प्रत्येक कठिन समय में गजब की सामाजिक समरसता और सौहार्द पैदा हो जाता है और वैसी एकता एवं अखंडता पैदा हो जाती है, जिसका उल्लेख हमारे संविधान की प्रस्तावना करती है। अस्मिता के ऊपर हावी होती आकांक्षा की यह प्रवृत्ति आगामी चुनावी स्पर्धा को अवश्य प्रभावित करेगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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