सर्दी में स्नान का साहस: देश में नहाने से भी ज्यादा जरूरी और भी काम हैं, पर उनकी किसी को फिक्र नहीं

कुछ कानून स्थगित हैं कुछ की वैक्सीन स्थगित है। एक पार्टी ने तो ‘ठंड’ के प्रकोप से बचने के लिए अपने अध्यक्ष का चुनाव गर्मियों तक स्थगित कर दिया। फिर मेरा नहाना कुछ दिनों के लिए क्यों नहीं स्थगित हो सकता है?

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 24 Jan 2021 12:40 AM (IST) Updated:Sun, 24 Jan 2021 12:40 AM (IST)
सर्दी में स्नान का साहस: देश में नहाने से भी ज्यादा जरूरी और भी काम हैं, पर उनकी किसी को फिक्र नहीं
देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा जरूरी और भी काम हैं।

[ संतोष त्रिवेदी ]: कहते हैं मुसीबत अकेले नहीं आती। एक ठीक से जा भी नहीं पाती कि दूसरी और ‘बेहतर’ तरीके से हमें दबोच लेती है। वायरस से बचाव के बाद अब ठंड से बचने के जतन करने पड़ रहे हैं। इसी के साथ वैक्सीन लगवाने की भी तैयारी करनी पड़ रही है। रजाई में घुसा हुआ वैक्सीन लगवाने की हिम्मत जुटा ही रहा था कि श्रीमती जी ने नहाने के लिए अंतिम चेतावनी जारी कर दी। शहर में हफ्ते भर से जारी शीतलहर की खबर शायद उन तक नहीं पहुंच पाई थी। मैं उन्हेंं पहले भी सूचित कर चुका हूं कि अभी संक्रांति पर ही तो ‘अस्नान’ किया था। लगता है, मेरी इस बात का श्रीमती जी से ज्यादा मौसम ने बुरा मान लिया। उसने हवाओं को भी अपने साथ मिला लिया। मासूम-सी मेरी जान के खिलाफ पूरी कायनात जुट गई। मेरी हालत देखिए कि इस ‘अत्याचार’ और ‘शोषण’ के विरुद्ध मैं कोई आंदोलन भी नहीं कर सकता। मैंने श्रीमती जी के प्रस्ताव पर दसवीं बार गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया।

न नहाने से संक्रामक बीमारी फैलना निजी और संवेदनशील मामला

पहले तो रजाई ही मुझे नहीं छोड़ रही थी। मुझसे ज्यादा तो वह बेचारी ठंडी थी। बचपन में पढ़ी ‘त्याग’ और ‘बलिदान’ की कहानियों को एक-एक कर याद किया। मैंने रजाई से क्षमा मांगी और ‘आत्म-बलिदान’ के लिए खुद को सशरीर प्रस्तुत कर दिया। जैसे ही हमारे चरण संगमरमरी फर्श पर पड़े, अंगद के पांव की तरह वहीं जम गए। हमने मन ही मन ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ शुरू कर दिया। थोड़ी संजीवनी पाकर मैं स्नानघर के दरवाजे की ओर बढ़ा। घटनास्थल तक मैं ऐसे पहुंचा, जैसे कसाई बकरे को जिबह के लिए पकड़कर ले जाता है। मामला केवल नहाने या सफाई भर का होता तो कोई न कोई तोड़ मैं निकाल ही लेता, पर बात यहां तक पहुंच गई थी कि हमारे न नहाने से यदि कोई संक्रामक बीमारी फैली तो उसका सीधा-सीधा जिम्मेदार मैं ही होऊंगा। घर के बाहर का मसला होता तो ‘जल-संरक्षण’ पर गर्म बयान देकर निकल लेता, लेकिन यहां बात बिल्कुल निजी थी और संवेदनशील भी।

मेरे सामने कोई उपाए न था

मेरे सामने अब कोई चारा न था। केवल आधी बाल्टी पानी था, जो बड़ी देर से मुझे ललकार रहा था। बाल्टी की ओर से नजरें हटाकर बाहर की ओर देखा, पर कोहरे की घनी चादर ने हमें वहीं ठिठका दिया। बाहर की धुंध के बजाय मुझे बाल्टी के अंदर का खुलापन ज्यादा अच्छा लगा। इससे मुझे बड़ी हिम्मत मिली। पानी से अध-भरा डिब्बा पहले मैंने अपनी हिम्मत पर ही उड़ेला, वह वहीं जम गई। अंगुलियों ने आपस में सहयोग करने से एकदम इन्कार कर दिया। अभी तक मैं ठीक से पानी के संसर्ग में आया भी नहीं था कि बाहर से श्रीमती जी की नसीहत आई, ‘अजी सुनते हो! साबुन वहीं रखा है, उसे भी आजमा लेना।’ इतना सुनते ही मेरे बचने की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं। मैंने झट से पानी का दूसरा डिब्बा साबुन पर ही न्योछावर कर डाला। बाल्टी में अभी भी काफी पानी था, जो मुझे लगातार घूर रहा था। मुझे उसे भी खत्म करना पड़ा। जब बाथरूम में मेरे नहाने के सारे साक्ष्य मौजूद हो गए, ‘अच्छे दिनों’ के तौलिए में लिपटकर मैं बाहर आ गया।

बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था

बाथरूम के बाहर जश्न का माहौल था। बच्चों ने हमारे स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। रेडियो में देशभक्ति के गाने बज रहे थे। श्रीमती जी ने गोभी के गरम पकौड़ों के साथ गिलास भर चाय हमारे सामने पेश कर दी। पकौड़े खाते हुए मैं सोचने लगा कि देश में हमारे नहाने से भी ज्यादा जरूरी और भी काम हैं, पर उनकी किसी को फिक्र नहीं। कुछ कानून स्थगित हैं, कुछ की वैक्सीन स्थगित है। एक पार्टी ने तो ‘ठंड’ के प्रकोप से बचने के लिए अपने अध्यक्ष का चुनाव गर्मियों तक स्थगित कर दिया। फिर मेरा नहाना कुछ दिनों के लिए क्यों नहीं स्थगित हो सकता है? यही सवाल मैंने श्रीमती जी से कर दिया। श्रीमती जी पहले से ही तैयार बैठी थीं। कहने लगीं, ‘लगता है तुम्हारे दिमाग में सर्दी ज्यादा चढ़ गई है, जो सर्र-बर्र बक रहे हो। इसीलिए कहती हूं, रोज नहाया करो। इम्युनिटी मजबूत होगी और दिमाग भी ठीक रहेगा।’ अचानक मेरी नजर अखबार की ओर गई। पहली ही खबर थी, ‘ठंड ने बीस साल का रिकॉर्ड तोड़ा। इतना पढ़ते ही पकौड़े छोड़कर मैं रजाई में फिर से समा गया!

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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