...तो यह है राष्ट्रवादी तालिबान गुटों से भारत सरकार के संपर्क का निहितार्थ

शांति के साथ विकास के पथ पर अफगानिस्तान को आगे बढ़ाने के लिए भारत सदैव प्रयासरत रहा है। इसी क्रम में भारत सरकार ने हाल ही में तालिबान से भी संपर्क किया है जो दोनों देशों के लिए रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 19 Jun 2021 09:16 AM (IST) Updated:Sat, 19 Jun 2021 09:20 AM (IST)
...तो यह है राष्ट्रवादी तालिबान गुटों से भारत सरकार के संपर्क का निहितार्थ
तालिबान से वार्ता करना भारत अब जरूरी क्यों समझ रहा है।

विवेक ओझा। भारत सरकार ने हाल ही में स्पष्ट किया है कि वह अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया को मजबूती देने के लिए वहां शांति के लिए जरूरी सभी पक्षों से संपर्क में है। इसी क्रम में भारत सरकार ने इस बात से भी इन्कार नहीं किया कि वह तालिबान गुट से प्रत्यक्ष संपर्क में नहीं है। भारत ने अफगानिस्तान के सभी उन नृजातीय समुदायों उज्बेक, ताजिक, हजारा के संपर्क में भी होने की बात की है जो अफगान शांति प्रक्रिया के लिए जरूरी हैं।

दरअसल जब से अमेरिका और नाटो सदस्यों द्वारा अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटाने का मुद्दा गहराया है, तभी से भारत के समक्ष भी किसी न किसी रूप में सुरक्षा चिंताएं सामने आ खड़ी हुई हैं। जिस तरह से कोविड महामारी के समय भी तालिबानी हिंसा सामने आई है और अफगानिस्तान में कई बम धमाकों में निदरेष लोगों की जानें गई हैं, उससे भारत के सामने भी प्रश्न खड़ा हुआ है कि वह तालिबान को किस तरीके से मैनेज करे। यही कारण है कि पिछले वर्ष दोहा में तालिबान पर अनौपचारिक और इंट्रा अफगान वार्ता में भारतीय विदेश मंत्री ने वर्चुअल स्तर पर सहभागिता की थी। वास्तव में अमेरिका और कुछ अन्य शक्तियां यह सवाल खड़े करते रही हैं कि अफगान शांति वार्ता में भारत की भूमिका है ही क्या? इसका जवाब भी भारत समय समय पर देता रहा है कि हर समस्या का समाधान और उसमें योगदान सैन्य स्तर पर ही हो ऐसा जरूरी नहीं है। महत्वपूर्ण अवसंरचनाओं के विकास में योगदान करके भी किसी देश में शांति, स्थिरता और प्रगति को बढ़ावा दिया जा सकता है।

तालिबान अफगानिस्तान में एक बड़ी सच्चाई है, ठीक उसी प्रकार जैसे पाकिस्तान में लश्करे तैयबा है। कोई भी महाशक्ति या क्षेत्रीय शक्ति इसे नजरअंदाज इसलिए नहीं कर सकती, क्योंकि तालिबान जैसे गुट आतंकी संगठनों का नेटवर्क बनाकर, दुनिया भर के देशों में हिंसा और आतंक के बल पर इस्लामिक किंगडम बनाने के प्रयासों को अपना समर्थन देकर वैश्विक शांति और सुरक्षा को खतरा पहुंचाते हैं। अफगानिस्तान में चुनी हुई सरकार और उसके शासन में तालिबान द्वारा खलल न डालना भारत के लिहाज से इसलिए जरूरी है, क्योंकि भारत अफगानिस्तान होते हुए मध्य एशिया से व्यापार करता है, ईरान अफगानिस्तान के साथ मिलकर वैकल्पिक व्यापारिक मार्गो की तलाश में लगा है, उसे ओमान की खाड़ी में मजबूती लेनी है और इसलिए तालिबान द्वारा अफगानिस्तान में लगातार युद्धविराम का उल्लंघन करते रहने पर भारत के इन उद्देश्यों पर किसी न किसी रूप में नकारात्मक प्रभाव तो पड़ेगा ही। भारत ने अब तक अफगानिस्तान में जितनी भी अवसंरचनाओं को विकसित किया है, उन सबकी सुरक्षा भी बड़े स्तर पर तालिबान की मंशा पर निर्भर है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तालिबान अफगान सरकार से प्रत्यक्ष बातचीत करे, उससे हिंसा का रास्ता त्यागने का वचन ले, ताकि यह वार्ता शुरू हो जाए।

दरअसल तालिबान लंबे समय से अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार को अमेरिका और उसके सहयोगियों की कठपुतली मानता रहा है। अमेरिका के पश्चिमी उदारवादी पूंजीवादी एजेंडे को तालिबान अपनी इस्लामिक पहचान के लिए खतरा मानता रहा है और इसी क्रम में उसने अमेरिका की तरह सोचने वाले देशों के प्रति भी एक पूर्वाग्रह और शत्रुता के भाव को बनाए रखा। चूंकि अफगान तालिबान का पाकिस्तानी आतंकी संगठनों से मजबूत संबंध रहा है और जब से जम्मू- कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाया गया है, तब से यह कयास लगाए जा रहे हैं कि तालिबान आइएस और उसके अफगानिस्तान स्थित खुरासान जैसे आतंकी गुट और पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों के साथ मिलकर भारत के लिए मुश्किल न खड़ी कर दे।

यही कारण है कि आज भारत इस बात पर पुनíवचार करने की स्थिति में आ गया है कि क्या उसे तालिबान और उसके घटकों से प्रत्यक्ष संवाद करना चाहिए। चूंकि पिछले वर्ष जब से दोहा अनौपचारिक वार्ता में अमेरिका और भारत सहित बड़े देशों ने इंट्रा अफगान वार्ता पर सर्वाधिक जोर दिया है यानी इस बात पर जोर दिया है कि तालिबान अफगान सरकार से बात करे, शासन सत्ता में सकारात्मक सहभागिता करे, तब से भारत ने यह सोचना भी शुरू कर दिया है कि भविष्य में जब तालिबान और अफगान सरकार की साङोदारी वाला शासन तंत्र बन जाएगा, तब भी भारत को शांति सुरक्षा और अन्य मसलों पर तालिबान के सहयोग की जरूरत पड़ेगी।

तो क्या तालिबान सकारात्मक स्तर पर सत्ता साङोदारी के नाम पर अफगान सरकार के साथ सहयोग करने के लिए तैयार होगा? तो ऐसा संभव बनाने के लिए तालिबान के उदारवादी घटकों, अलग अलग महत्वपूर्ण अफगान नृजातीयताओं और अन्य संबंधित गुटों को विश्वास में लेने का प्रयास एक बेहतर रणनीति है जिस पर अमेरिका, उसके सहयोगियों और भारत को भी विचार करने की जरूरत है, क्योंकि अगर एक बड़े धड़े का विश्वास अफगान स्थिरता के नाम पर अर्जति कर लिया गया तो तालिबान के भी कट्टर सोच में बहुत हद तक तब्दीली आ सकती है।

भारत और तालिबान वार्ता की पृष्ठभूमि: वर्ष 2018 में तालिबान मुद्दे पर मास्को बैठक का आयोजन किया गया था। रूस के विदेश मंत्री सर्जेइ लावरोव ने इसमें कहा था कि रूस और अन्य सभी प्रमुख देश अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता कायम करने के लिए सभी संभव प्रयास करेंगे। गौरतलब है कि तालिबान रूस में प्रतिबंधित है। भारत के अलावा मास्को बैठक में अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। भारत ने इस बैठक में अनौपचारिक तरीके से भाग लिया था और तालिबान से कोई बातचीत नहीं की थी। अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत अमर सिन्हा और पाकिस्तान में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त टी.सी.ए. राघवन द्वारा नौ नवंबर, 2018 को गैर आधिकारिक स्तर पर तालिबान संग मंच साझा करने पर भारत को सफाई भी देनी पड़ी थी। इसी क्रम में सात-आठ जुलाई, 2019 को कतर की राजधानी में अमेरिका तालिबान वार्ता को लेकर दोहा समझौता संपन्न किया गया था जिसमें मास्को वार्ता के बिंदुओं पर सहमति जताई गई थी।

तालिबान से वार्ता की व्यग्रता में महाशक्तियों की बीजिंग में 10-11 जुलाई 2019 को अफगान शांति प्रक्रिया पर हुई बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर अपने सामरिक महत्व को दर्शाते हुए बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में इस बात पर जोर दिया कि वार्ता अफगान नेतृत्व और अफगान स्वामित्व वाली सुरक्षा प्रणाली के विकास को लेकर होनी चाहिए। बीजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर हुई बैठक में अपेक्षा की गई है कि अफगानिस्तान में शांति का एजेंडा व्यवस्थित और जिम्मेदारीपूर्ण होना चाहिए। इसमें भविष्य के लिए समावेशी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा व्यापक प्रबंध होना चाहिए जो सभी अफगानों को स्वीकार्य हो।

इस बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने प्रासंगिक पक्षों से शांति के इस अवसर का लाभ उठाने और तत्काल तालिबान, अफगानिस्तान सरकार और अन्य अफगानों के बीच अंतर-अफगान बातचीत शुरू करने को कहा है। इस बैठक में भारत की भूमिका को महाशक्तियों ने खास तवज्जो नहीं दी थी। चीन ने माना था कि उसने बीजिंग बैठक में अफगानिस्तान तालिबान के मुख्य शांति वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अपने देश में आमंत्रित किया। तालिबान की मुख्य मांग है कि अफगानिस्तान से विदेशी सुरक्षा बल बाहर चले जाएं। तालिबान से उसकी इस मांग के बदले में यह सुनिश्चित करने को कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादियों के अड्डे के रूप में इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा। भारत अफगानिस्तान में सबसे बड़ा क्षेत्रीय योगदानकर्ता रहा है जिसे इस बैठक और वार्ता से बाहर ही रखा गया और उसकी कोई राय नहीं ली गई। वहीं दूसरी ओर इस प्रक्रिया में पाकिस्तान को तवज्जो दी गई।

अफगानिस्तान के विकास को प्राथमिकता: भारत ने अफगानिस्तान में विकासात्मक गतिविधियों को हर संभव बढ़ावा देने की कोशिश की है। भारत ने पिछले करीब एक दशक में अफगानिस्तान में चार अरब डॉलर से अधिक का विकास निवेश किया है। अफगानिस्तान में संसद के पुनíनर्माण में भारत ने व्यापक वित्तीय सहयोग किया। इसके अलावा, 1500 इंजीनियरों ने मिलकर भारत अफगान मैत्री बांध के तौर पर सलमा बांध का निर्माण किया है। इसमें भारत ने वित्तीय और तकनीकी मदद मुहैया कराई है। भारत ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जेरांज डेलारम राजमार्ग निर्माण में भी सहयोग किया है जो ईरान के चाबहार बंदरगाह मिलाक मार्ग के जरिए जोड़ दिया गया है।

ईरान भारत के वित्तीय सहायता से चाबहार मिलाक सड़क को और उन्नत कर रहा है। चाबहार मिलाक जेरंज देलारम राजमार्ग अफगान कृषि उत्पादों और अन्य निर्यातों के लिए भारतीय बाजार को खोल देगा। जेरांज देलारम राजमार्ग गारलैंड राजमार्ग से जुड़ जाता है और गारलैंड राजमार्ग अफगानिस्तान के सभी शहरों से जुड़ा है और चाबहार से जुड़ने के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण संपर्क बिंदु की भूमिका निभाता है। यहां यह भी जानने योग्य है कि देलारम अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित शहर है जिसे निमरुज प्रांत की राजधानी जेरांज से जोड़ने के लिए भारत सरकार ने 600 करोड़ रुपये की लागत से सीमा सड़क संगठन को जिम्मेदारी सौंप कर जेरांज डेलारम राजमार्ग को पूर्ण रूप से निर्मित कराया है।

चूंकि अफगानिस्तान एक स्थलरुद्ध देश है और उसका अंतरराष्ट्रीय व्यापार पाकिस्तान के समुद्री बंदरगाहों के जरिए होता है, इसलिए भारत ने ईरान से होते हुए एक वैकल्पिक व्यापारिक मार्ग से अफगानिस्तान को जोड़ने की रणनीति निíमत की। भारत ने बामियान से बंदर-ए-अब्बास तक सड़क निर्माण समेत काबुल क्रिकेट स्टेडियम के निर्माण में भी अफगानिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान की है। इसके साथ ही भारत ने अफगानिस्तान के प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूती देने के लिए मिग 25 अटैक हेलीकॉप्टर दिए हैं। अफगान प्रतिरक्षा बलों को सुरक्षा मामलों में भारत प्रशिक्षण भी दे रहा है। चाबहार और तापी जैसी परियोजनाओं से दोनों देश जुड़े हुए हैं। ये तमाम तथ्य दोनों देशों के बीच के पारस्परिक संबंधों को दर्शाते हैं।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]

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