गंगा की अविरलता को लेकर अनशनकारी स्वामी सानंद का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा

86 वर्षीय व्यक्ति यदि अनशन पर हो और लाख कोशिश के बाद भी डिगे नहीं तो साफ है कि वह लक्ष्य के सामने शरीर मोह से ऊपर उठ चुका है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 15 Oct 2018 11:52 PM (IST) Updated:Tue, 16 Oct 2018 05:00 AM (IST)
गंगा की अविरलता को लेकर अनशनकारी स्वामी सानंद का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा
गंगा की अविरलता को लेकर अनशनकारी स्वामी सानंद का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा

[ अवधेश कुमार ]: स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद की मौत पर इस समय जितनी प्रतिक्रियाएं हो रहीं हैं उनमें अधिकांश तात्कालिक भावावेश का प्रकटीकरण हैं। वह हरिद्वार के मातृसदन में 22 जून से अनशन पर थे। इतनी लंबी अवधि में कहीं कोई हलचल नहीं देखी गई। अन्ना हजारे ने दिल्ली में दो बार अनशन किया तो वहां मीडिया का पूरा जमघट लग गया। उनके धरने को व्यापक समर्थन मिला। उस समय भी तमाम विवेकशील लोग यही मानते थे कि इससे कुछ बदलने वाला नहीं। दूसरी ओर विकास के नाम पर गंगा को मौत से बचाने के संकल्प के साथ प्राण त्यागने का निश्चय कर चुके स्वामी सानंद के पक्ष में कुछ छिटपुट कार्यक्रम हुए, किंतु सब प्रभावहीन।

मातृसदन में भी कुछ ही लोगों ने जाकर उन्हें समर्थन देने की रस्म अदायगी की। उनके समर्थन में कभी चार-पांच हजार लोगों का हुजूम भी देखने को नहीं मिला। देह त्यागने के बाद जरूर सब संज्ञान ले रहे हैैं, किंतु उसमें निशाने पर केवल सरकार है जबकि मूल विषय चर्चा से गायब है। इन सबसे पूछा जाना चाहिए कि 112 दिनों के अनशन में आपने कितने दिन उनकी सुधि ली? उनकी मांगों पर कितनी बार मीडिया में चर्चा हुई?

स्वामी सानंद का मूल नाम डॉ. गुरुदास अग्रवाल था। वह एक इंजीनियर और पर्यावरण वैज्ञानिक थे। संप्रति वह महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के मानद प्राध्यापक थे। वह आइआईटी, कानपुर के सिविल इंजीनियरिंग और पर्यावरण विभाग में प्राध्यापक, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में प्रथम सचिव और राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार रह चुके थे। गंगा के प्रति उनकी निष्ठा को कोई नकार नहीं सकता। यह निष्ठा न अतार्किक थी न कपोल कल्पनाओं पर आधारित। इसके पीछे दूरगामी सोच और मानव सभ्यता को बचाने की भावना थी। जिन स्थितियों में उनका निधन हुआ वह सबको विचलित कर गया।

86 वर्षीय व्यक्ति यदि अनशन पर हो और लाख कोशिश के बाद भी डिगे नहीं तो साफ है कि वह लक्ष्य के सामने शरीर मोह से ऊपर उठ चुका है। बीते एक दशक से भी ज्यादा समय से उनका यही रवैया बना हुआ था। यह उनका चौथा अनशन था जो आखिरी भी साबित हुआ। हर बार बीच-बचाव करने वालों ने कुछ रास्ता निकालकर उनके प्राण बचाए। वर्ष 2008, 2012 में तो गोविंदाचार्य ने सक्रिय होकर सरकार से वार्ता कर किसी तरह उनका अनशन तुड़वाया। इस बार ऐसा न हो सका। वह इस पर अड़ गए थे कि गंगा के लिए विशेष कानून बने जिसमें इस पर बनने वाली सभी जल विद्युत परियोजनाओं को रद करने और भविष्य में कोई परियोजना नहीं बनाने की बात हो।

उन्हें मनाने के लिए केंद्रीय मंत्री उमा भारती दो बार खुद मातृसदन आईं, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अपने पत्र के साथ संदेशवाहक भेजकर उनसे आंदोलन खत्म करने का अनुरोध किया। 9 अक्टूबर को भी हरिद्वार के सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक फिर से गडकरी का पत्र लेकर उनके पास पहुंचे जिसमें गंगा सफाई के लिए हो रहे कार्यों का विवरण एवं उनकी मांगों पर विचार करने का आश्वासन था, किंतु शाम होते ही स्वामी सानंद ने घोषणा कर दी कि उन्होंने दोपहर से ही जल त्याग दिया है। इसके बाद जिला प्रशासन ने उन्हें जबरन ऋषिकेश स्थित एम्स में भर्ती करा दिया। इसके पहले भी उन्हें 11 जुलाई को देहरादून स्थित दून अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

उन्हें दून अस्पताल में भर्ती किए जाने के खिलाफ लोग उच्च न्यायालय चले गए। उच्च न्यायालय ने राज्य के मुख्य सचिव को 12 घंटे के भीतर स्वामी सानंद के साथ बैठक करने और मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का निर्देश दिया। उनकी मांग पर विचार करना मुख्य सचिव के वश में नहीं था। उनसे बातचीत होती रही, किंतु वह अनशन त्यागने को तैयार नहीं हुए। इन प्रसंगों का यहां जिक्र करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह स्पष्ट हो सके कि जो लोग उनके साथ थे वे भी स्थिति की गंभीरता को समझकर उनका अनशन तुड़वाने में रुचि नहीं ले रहे थे।

गंगा की अविरलता और पवित्रता व्यापक प्रश्न है। इसका समाधान अनशन से संभव भी नहीं है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति अनशन पर बैठ जाए तो सरकार को पूरी संवेदनशीलता दिखाकर उसे मनाने की हरसंभव कोशिश करनी ही चाहिए थी। जाहिर है इसमें कमी रह गई तो फिर उनके साथियों का ज्यादा दायित्व था। विभिन्न संगठनों के लोग अपना समर्थन देकर वापस आ जाते थे। उनके जैसे व्यक्त्वि की ऐसी विदाई यकीनन दुखद है और देश के लिए एक बहुत बड़ी क्षति भी, लेकिन सत्याग्रह कभी जिद से नहीं होता। हमने 13 जून 2011 को इसी मातृसदन के एक संन्यासी स्वामी निगमानंद का बलिदान देखा था। वह गंगा की खोदाई के खिलाफ आमरण अनशन पर थे।

निगमानंद की हालत खराब होती गई, पर कोई सुध लेने वाला नहीं। जब तक प्रशासन चेतता तब तक स्थिति हाथ से निकल चुकी थी। प्रशासन ने निगमानंद को भर्ती कराया भी तो जिला अस्पाल में जहां इलाज की उचित सुविधाएं भी नहीं थीं। जब वहां स्थिति बिगड़ी और उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया के माध्यम से मामले को उठाना शुरू किया तब जाकर उन्हें हिमालयन इंस्टीट्यूट में भर्ती कराया गया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हालांकि निगमानंद के बलिदान से गंगा की खोदाई काफी हद तक रुक गई, लेकिन गंगा की परेशानियों का अंत नहीं हुआ।

गंगा की अविरलता का अर्थ है सभी जल विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं का अंत। कोई सरकार यह नहीं कर सकती। जून 2008 में जब उत्तराखंड स्थित उत्तरकाशी में भागीरथी के तट पर यही जीडी अग्रवाल जो उस समय स्वामी सानंद नहीं बने थे, आमरण अनशन पर बैठे थे तो स्थानीय लोगों ने हंगामा किया और प्रशासन को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में उन्हें वहां से हटाना पड़ा। यह घटना उत्तराखंड सरकार द्वारा पाला मनेरी और भैरोंघाटी जल विद्युत परियोजनाओं को स्थगित करने की घोषणा के दूसरे दिन हुई।

जनता ने उनसे कहा कि आप हमारे विकास को बाधित कर रहे हैं। ऐसे अभियान तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक जनता को समझ न आए कि जिसे आप विकास समझ रहे हैं वह भविष्य के लिए कितना विनाशकारी है। स्वामी सानंद की मांग का विस्तारित स्वरूप यही था कि विकास का पूरा ढांचा बदल दिया जाए। इसलिए तरीका यही था कि जितना तत्काल संभव है उतना सरकारों से करवाएं और भविष्य के लिए जन-जागरूकता चलाकर धीरे-धीरे लोगों को जोड़ें।

संप्रग सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया और गंगा राष्ट्रीय बेसिन प्राधिकरण तक का गठन किया। इसके बावजूद यदि स्थिति नहीं बदली तो इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि आखिर समस्या कहां है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]

chat bot
आपका साथी