आरक्षण बना वोट बैंक की राजनीति, लाभ उठाने वाले जातिगत समुदायों का नहीं हुआ समग्र विकास

ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को नहीं मिलेगी सरकारी नौकरियों में संबंधित आरक्षण की सुविधा पिछले सप्ताह राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 17 Feb 2021 09:51 AM (IST) Updated:Wed, 17 Feb 2021 10:05 AM (IST)
आरक्षण बना वोट बैंक की राजनीति, लाभ उठाने वाले जातिगत समुदायों का नहीं हुआ समग्र विकास
आरक्षण का लाभ उठाने वाले जातिगत समुदायों का समग्र विकास नहीं हुआ।

प्रमोद भार्गव। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले सप्ताह राज्यसभा में अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के संदर्भ में बताया कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले अनुसूचित जाति के लोगों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे लोग अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से संसदीय या विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ सकते हैं। हालांकि, जो हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म अपनाते हैं उन्हें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने और आरक्षण के अन्य लाभ मिलेंगे। लिहाजा इस संदर्भ में एक नई बहस छिड़ गई है।

राजनीतिक दल और नेता भले ही आरक्षण का खेल खेलकर वोट की राजनीति के तहत जातीय समुदायों को बरगलाते रहें, लेकिन हकीकत यह है कि आरक्षण भारतीय मानसिकता को झकझोरने के साथ जातीय और धर्म समुदायों में बांटने और उन्हें मजबूती देने का काम कर रहा है। रंगनाथ मिश्र और सच्चर समितियों ने भी मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में अल्पसंख्यकों के बहाने मुस्लिमों को आरक्षण देने की कवायद की थी, पर सफलता नहीं मिली।

यह सही है कि एक समय आरक्षण की व्यवस्था हमारी सामाजिक जरूरत थी, लेकिन हमें इस परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा कि आरक्षण बैसाखी है, पैर नहीं? याद रहे यदि शारीरिक अशक्तता में सुधार होने की दशा में चिकित्सक बैसाखी का उपयोग बंद करने की सलाह देते हैं और बैसाखी का उपयोगकर्ता भी यही चाहता है। किंतु राजनीतिक महत्वाकांक्षा है कि आरक्षण की बैसाखी से मुक्ति नहीं चाहती। शायद इसलिए आरक्षण भारतीय समाज में उत्तरोत्तर मजबूत हुआ है। वर्ष 1882 में नौकरियों में आरक्षण देने की शुरुआत हुई थी। तब ज्योतिबा फुले ने हंटर आयोग को ज्ञापन देकर मांग की थी कि सरकारी नौकरियों में कमजोर वर्गो को संख्या के अनुपात में आरक्षण मिले।

वर्ष 1937 में दलित समाज के लोगों को भी केंद्रीय कानून के दायरे में लाया गया। इसी समय अनुसूचित जाति शब्द युग्म पहली बार सृजित कर प्रयोग में लाया गया। वर्ष 1942 में भीमराव आंबेडकर ने नौकरी और शिक्षा में दलितों को आरक्षण की मांग की, जिसे फिरंगी हुकूमत ने मान लिया। आजादी के बाद वर्ष 1950 में अनुसूचित जाति और जनजाति के उत्थान, कल्याण एवं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए साढ़े सात और 15 फीसद आरक्षण का प्रविधान एक दशक के लिए किया गया था।

एक दशक बाद इस आरक्षण को खत्म करने के बजाय इसे अब तक जीवनदान दिया जाता रहा है। फलत: पिछड़ी जातियां भी आरक्षण की मांग करने लग गईं। परिणामस्वरूप 1953 में पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए आयोग का गठन किया गया। वर्ष 1978 में मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण की मांग की। वर्ष 1990 में अपनी कुर्सी बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने इस आरक्षण को मंजूरी दे दी। इसके बाद वर्ष 1995 में संविधान में 77वां संशोधन कर पदोन्नति में भी आरक्षण का प्रविधान किया गया।

यही नहीं बिहार के मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर ने तो अपने कार्यकाल में नवंबर 1978 में बिहार के गरीब सवर्णो के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी। साथ ही महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत और पिछड़े वर्गो के लिए भी 20 प्रतिशत के आरक्षण का प्रविधान कर दिया था। इस आरक्षण में सभी जाति की महिलाएं शामिल थीं। लेकिन जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 1990 में जातिगत भेदभाव बरतते हुए गरीब सवर्ण महिलाओं को मिलने वाले तीन प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर दिया था। हालांकि, नीतीश कुमार ने इस फैसले का विरोध किया था, लेकिन नतीजा शून्य रहा। इसी तरह मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं, तब उन्होंने भी गरीब सवर्णो को आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ा था। इसके बावजूद आरक्षण का लाभ उठाने वाले जातिगत समुदायों का समग्र विकास नहीं हुआ। इसीलिए आरक्षण आज भी बैसाखी बना हुआ है।

[स्वतंत्र पत्रकार]

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