लोगों को यदि सिर्फ रोजी-रोटी के लिए ही अपना राज्य छोड़ना पड़े तो यह चिंताजनक है

यदि केंद्र सरकार देश के सम्यक विकास पर जोर दे तो कोरोना महामारी जैसी स्थिति में घरों को लौटने के लिए मजदूरों की जिद्दोजहद की नौबत नहीं आएगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 12 May 2020 12:04 AM (IST) Updated:Tue, 12 May 2020 12:04 AM (IST)
लोगों को यदि सिर्फ रोजी-रोटी के लिए ही अपना राज्य छोड़ना पड़े तो यह चिंताजनक है
लोगों को यदि सिर्फ रोजी-रोटी के लिए ही अपना राज्य छोड़ना पड़े तो यह चिंताजनक है

[ सुरेंद्र किशोर ]: बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों की वापसी और इस दौरान उनकी तकलीफें वास्तव में आजादी के बाद देश का समरूप विकास न हो पाने का नतीजा हैं। आजादी के बाद 1952 में एक अविवेकपूर्ण समझ के तहत केंद्र सरकार ने रेल भाड़ा समानीकरण नीति बनाई। इसके कारण बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के एक बड़े हिस्से को उनके खनिज पदार्थों के भारी भंडारों का पूरा लाभ नहीं उठाने दिया गया।

मजदूरों की कमी के कारण राज्यों की कृषि विकसित नहीं हुई

जिन राज्यों ने लाभ उठाया, उन्होंने पिछड़े राज्यों से सस्ते मजदूर बुलाकर उन पर दोहरी चोट कर दी, क्योंकि मजदूरों की कमी के कारण उन राज्यों की कृषि भी विकसित नहीं हुई। लिहाजा वहां से मजदूरों का पलायन होता रहा। इसी समस्या के चलते 1960-70 में देश के भीतर आंतरिक उपनिवेश बनाने का आरोप लगा। इसके बाद भी केंद्र सरकार की नींद नहीं टूटी। लगातार मांग के बाद अंतत: 1992 में रेल भाड़ा समानीकरण नीति को समाप्त किया गया, लेकिन तब तक बिहार जैसे गरीब राज्य को एक अनुमान के अनुसार दस लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका था।

बिहार में निवेश होता तो 30 लाख मजदूरों को रोजी-रोटी के लिए पलायन नहीं करना पड़ता

1952 से लेकर 1992 तक इतनी राशि का बिहार में निवेश हुआ होता तो वहां के करीब 30 लाख मजदूरों को रोजी-रोटी के लिए पलायन नहीं करना पड़ता। आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्र में केंद्र ने बिहार में प्रति व्यक्ति करीब 172 रुपये खर्च किए, जबकि उसी अवधि में पंजाब में 594 रुपये खर्च किए। भाखड़ा नांगल परियोजना पर तो भारी खर्च किया गया, लेकिन जब बिहार ने कोसी योजना के लिए पैसे की मांग की तो केंद्र ने कहा कि श्रमदान से बांध बनवाइए। बाद में बिहार की दो सबसे बड़ी कोसी और गंडक सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो गईं। कृषि क्षेत्र में इच्छित उपलब्धि नहीं मिल सकी। उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग हुई तो उसे पूरा करने में केंद्र ने संवैधानिक कठिनाई बताई।

सबसे ज्यादा बिहार के मजदूर दूसरे राज्यों में जाने को बाध्य हैं अधिक मजदूरी मिलने के कारण्

देश के जिन राज्यों से प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में जाने को बाध्य हैं उनमें बिहार अग्रणी है। नतीजतन बिहार के किसानों को भी मजदूरों की कमी महसूस होती है। इन मजदूरों को दूसरे राज्यों में अपने यहां की अपेक्षा कुछ अधिक मजदूरी मिल जाती है तो इसकी वजह उन राज्यों का संपन्न होना है। उनकी संपन्नता में अन्य बातों के अलावा रेल भाड़ा समानीकरण नीति का बड़ा हाथ है।

रेल भाड़ा नीति ने उद्यमियों को खनिज बहुल राज्य बिहार, ओडिशा में जाने से रोक दिया

इस नीति के तहत खनिज पदार्थों को एक से दूसरी जगह ले जाने का रेल भाड़ा समान कर दिया गया था यानी सौ टन खनिज पदार्थ धनबाद से रांची ले जाने का जितना भाड़ा लगता था, उतना ही भाड़ा धनबाद से मुंबई ले जाने के लिए लगता था। ऐसे में दूसरे प्रदेशों का कोई उद्योगपति बिहार या ओडिशा में उद्योग क्यों लगाता? अंग्रेजों के जमाने में ऐसी कोई नीति नहीं थी। इसीलिए गुजरात के जमशेदजी टाटा ने अविभाजित बिहार के खनिज बहुल इलाके में बड़ा उद्योग लगाया। आज वह जमशेदपुर के नाम से जाना जाता है। वहां टाटा उद्योग में बिहार और आसपास के राज्यों के हजारों लोगों को नौकरियां मिलीं, पर भाड़ा नीति के आ जाने के बाद अन्य राज्यों के किसी उद्यमी के समक्ष उद्योग लगाने के लिए खनिज बहुल राज्यों में आने की मजबूरी नहीं रह गई। नतीजा यह हुआ कि बिहार, ओडिशा जैसे राज्यों का विकास थम गया।

कृषि पर आधारित उद्योग लगते तो किसानों की क्रय शक्ति बढ़ती, मजदूर पलायन नहीं करते

यदि कृषि पर आधारित उद्योगों का जाल बिछाया गया होता तो आम किसानों की क्रय शक्ति बढ़ती और उससे उद्योगों का भी विकास होता। इसके साथ ही मजदूरों को अपने ही घर में काम भी मिल जाता। विकास नहीं होने के कारण राज्य सरकारों के पास आंतरिक संसाधन जुटाने के स्नोत नहीं बढ़ सके। चूंकि केंद्रीय सहायता राज्य के आंतरिक राजस्व के अनुपात में मिलती है इसलिए पिछड़े राज्यों को वह भी कम ही मिली। जरूरत के अनुपात में कृषि और उद्योग का विकास नहीं होने के कारण पिछड़े राज्यों को आंतरिक संसाधन जुटाने में भी दिक्कतें आती रहीं। परिणामस्वरूप ऐसे राज्य मजदूर आपूर्तिकर्ता राज्य बनकर रह गए।

मोदी सरकार का बिहार के लिए सवा लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज नाकाफी साबित हो रहा

1970 में बिहार का विकास के मामले में देश में नीचे से दूसरा स्थान था। उससे निचले पायदान पर ओडिशा था। वह भी खनिज पदार्थों की उपलब्धता के मामले में संपन्न है। बिहार में कुछ दशकों तक ऐसी भी सरकारें रहीं जिनकी विकास में कम ही रुचि थी। 2005 के बाद विकास की एक नई शुरुआत हुई। फिर 2015 में मोदी सरकार ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रुपये के एक बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा की। उसके तहत काम भी शुरू हो चुका है। इससे राज्य को कुछ राहत मिली है, लेकिन वह पैकेज भी राज्य की कायापलट के लिए नाकाफी साबित हो रहा है। इसीलिए समय-समय पर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठती रही है।

कोई व्यक्ति सिर्फ रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में जाए तो यह चिंताजनक है

कोई व्यक्ति बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए किसी अन्य राज्य जाए तो बात समझ में आती है, पर सिर्फ रोजी-रोटी के लिए अपना राज्य छोड़कर कहीं और जाए तो यह चिंताजनक तो है ही, असमान विकास का सूचक भी है। कोरोना के इस दौर में यूपी, बिहार, ओडिशा आदि के प्रवासी मजदूरों को अन्य राज्यों में जो कटु अनुभव हुए हैं उससे यही लगता है कि अब वे पहले जैसे उत्साह से बाहर नहीं जाएंगे। इसीलिए जहां वे हैं, वहीं विकास का काम करना पड़ेगा।

यदि केंद्र सम्यक विकास पर जोर दे तो घरों को लौटने को मजदूरों की जिद्दोजहद की नौबत नहीं आएगी

इन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के हजारों मजदूर अपने घर लौट रहे हैं। कुछ घर जाने की जिद में उग्र हो रहे हैं। यदि मौजूदा केंद्र सरकार देश के सम्यक विकास पर जोर देकर आजादी के बाद के अधूरे काम को पूरा करे तो मजदूरों के सामने कोरोना महामारी जैसी स्थिति में अपने घरों को लौटने के लिए ऐसी जिद्दोजहद करने की नौबत फिर नहीं आएगी। यह काम राज्य और केंद्र मिलकर ही कर सकते हैं।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )

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