लोकतांत्रिक परंपरा के संरक्षक: सरदार पटेल की प्रतिमा की छत्रछाया में हुए सम्मेलन से निकले कई अहम संदेश

वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों के जानकार अरविंद कुमार सिंह ने लिखा भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। सदनों को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। इसकी गरिमा बनाए रखने से लेकर पीठासीन अधिकारियों के जिम्मे तमाम अहम भूमिकाएं होती हैं।

By Nitin AroraEdited By: Publish:Sat, 28 Nov 2020 10:46 AM (IST) Updated:Sat, 28 Nov 2020 10:46 AM (IST)
लोकतांत्रिक परंपरा के संरक्षक: सरदार पटेल की प्रतिमा की छत्रछाया में हुए सम्मेलन से निकले कई अहम संदेश
लोकतांत्रिक परंपरा के संरक्षक: सरदार पटेल की प्रतिमा की छत्रछाया में हुए सम्मेलन से निकले कई अहम संदेश।

अहमदाबाद, अरविंद कुमार सिंह। गुजरात के केवड़िया में विश्वविख्यात सरदार पटेल की प्रतिमा स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की छत्रछाया में हुए भारत के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में इस बार कई अहम संदेश निकले हैं। अपने शताब्दी वर्ष में बेहद अलग अंदाज में 25 और 26 नवंबर को हुए इस सम्मेलन में पहली बार राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से लेकर तमाम दिग्गजों की मौजूदगी रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वर्चुअल तरीके से इसके समापन सत्र को संबोधित किया। संविधान दिवस बीच में पड़ने के नाते यह और विशेष बन गया, लिहाजा इसमें सशक्त लोकतंत्र के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का आदर्श समन्वय को चर्चा का मुख्य विषय रखा गया था।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। सदनों को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। इसकी गरिमा बनाए रखने से लेकर पीठासीन अधिकारियों के जिम्मे तमाम अहम भूमिकाएं होती हैं। वे सदस्यों के अधिकारों के संरक्षक और अभिभावक होते हैं। इनका सबसे बड़ा संगठन विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन है जिसके पदेन अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष होते हैं। इसके सम्मेलनों में उपलब्धियों, नई योजनाओं, कार्यसंचालन नियमों में बदलाव समेत विधायी मसलों पर अहम चर्चाएं होती हैं।

भारत में संसदीय लोकतंत्र में विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों का बहुत महत्व है। उनमें स्वस्थ परंपराओं और परिपाटियों के विकास के लिए पीठासीन अधिकारियों का पहला सम्मेलन 14 सितंबर 1921 को शिमला में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के तत्कालीन अध्यक्ष सर फ्रेडरिक वाइट के नेतृत्व में हुआ। बाद में यह बेहद अहम और प्रतिष्ठित संगठन बना।

वर्ष 1926 से यह अंग्रेजों द्वारा मनोनीत अध्यक्षों की जगह निर्वाचित अध्यक्षों का सम्मेलन बन गया, क्योंकि विट्ठल भाई पटेल 1925 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के पहले भारतीय निर्वाचित अध्यक्ष बन गए थे। इसकी अध्यक्षता उनके हाथों में आ गई। हालांकि 1950 तक यह सम्मेलन दिल्ली या शिमला में ही होता था। वर्ष 1951 में जीवी मावलंकर की पहल पर इसे अन्य राज्यों में करने का फैसला हुआ और 1951 में तिरुअनंतपुरम में इसका आयोजन किया गया। इसके बाद इसके स्वरूप में काफी बदलाव आया।

केवड़िया में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए संवाद को लोकतंत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम बताया और कहा कि यही विचार-विमर्श को विवाद में परिणत नहीं होने देता। उनका विचार था कि संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सामंजस्य, सहयोग और सार्थक विमर्श जरूरी है। वहीं पीठासीन अधिकारियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे सदन में जन प्रतिनिधियों को स्वस्थ बहस के लिए अनुकूल परिवेश प्रदान करें।

वैसे उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने यहां चर्चा में नया मोड़ दिया कि पटाखों पर अदालत के फैसले और जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका को भूमिका देने से इन्कार करने जैसे फैसलों से लगता है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है। कई न्यायिक फैसले किए गए जिनमें हस्तक्षेप का मामला लगता है। आजादी के बाद बेशक सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्ट ने ऐसे फैसले दिए जिनका सामाजिक-आíथक मामलों में दूरगामी असर हुआ। लेकिन कई बार विधायिका ने भी लक्ष्मण रेखा लांघी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में कहा कि कोरोना संकट जैसे विषम हालात में 130 करोड़ से अधिक भारतीयों ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया, उसकी एक बड़ी वजह उनके द्वारा संविधान के तीनों अंगों पर पूर्ण विश्वास है। संविधान में ही उसके तीनों अंगों की भूमिका से लेकर मर्यादा तक सब कुछ वíणत है। तीनों संस्थाओं में आपसी विश्वास को बढ़ाने के लिए निरंतर काम हुआ है, इस नाते हमें संविधान से जो ताकत मिली है, वह हर मुश्किल कार्य को आसान बना देती है। हर नागरिक का आत्मसम्मान व आत्मविश्वास बढ़े यह संविधान की भी अपेक्षा है। लेकिन यह तभी संभव है, जब हम अपने कर्तव्यों को अपने अधिकारों का स्नोत मानते हुए उनको सर्वोच्च प्राथमिकता दें। हमारे कानूनों की भाषा इतनी सरल होनी चाहिए कि आम आदमी उसे आसानी से समझ ले।

इस सम्मेलन के प्रमुख और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने समापन भाषण में इस बात पर संतोष जताया कि विषम परिस्थितियों के बावजूद इस सम्मेलन में 20 विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारी उपस्थित रहे। सम्मेलन में सभी का यह मत था कि संविधान की मूल भावना के अनुसार लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को अपनी-अपनी सीमाओं के अंदर सहयोग, सामंजस्य और समन्वय की भावना से काम करना चाहिए। पीठासीन अधिकारियों ने महसूस किया कि राज्यों के विधानमंडलों को वित्तीय अधिकार देने के विषय पर सभी से संवाद होना चाहिए।

हालांकि हमारी संसदीय प्रणाली ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली के अनुसरण में बनी हैं। लेकिन बीते दशको में तमाम विधानमंडलों ने अपनी जरूरतों के हिसाब से तमाम अभिनव प्रयोग किए हैं और नए विचारों को आत्मसात किया है। समय की मांग के लिहाज से खुद को बदला है, लेकिन व्यवधानों से विधायिका की छवि आहत हुई है। सदन सुचारु रूप से चलें और बैठकों की संख्या बढ़े तो बहुत से सवालों का हल हो सकता है।

गुजरात में आयोजित पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन देश में विधायी निकायों के लिए एक मार्गदर्शक साबित हो सकता है। इस मंच की मदद से कई बेहतर प्रथाओं की शुरुआत हुई है।

[लेखक- वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों के जानकार हैं]

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