प्रधानमंत्री मोदी ने लेह में पढ़ी थी दिनकर की रचना, उनकी रचनाओं में इतना दम कि दबाना मुश्किल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लेह की यात्रा की और वहां सेना के जवानों को संबोधित करते हुए दिनकर की कविता की पंक्तियों को भी उद्धृत किया।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Sun, 05 Jul 2020 11:14 AM (IST) Updated:Sun, 05 Jul 2020 01:35 PM (IST)
प्रधानमंत्री मोदी ने लेह में पढ़ी थी दिनकर की रचना, उनकी रचनाओं में इतना दम कि दबाना मुश्किल
प्रधानमंत्री मोदी ने लेह में पढ़ी थी दिनकर की रचना, उनकी रचनाओं में इतना दम कि दबाना मुश्किल

नई दिल्ली [अनंत विजय]। चीन से जारी तनातनी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लेह की यात्रा की और वहां सेना के जवानों को संबोधित करते हुए दिनकर की कविता की पंक्तियों को भी उद्धृत किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीति में अपने गैरपारंपरिक तौर तरीकों से चौंकाते रहे हैं। अब कूटनीति के एक नए आयाम में भी उन्होंने कविता के मार्फत संदेश देकर चौंकाना शुरू किया है।

मोदी की साहित्य में रुचि रही है, गुजराती में छपी उनकी कविताओं को देखकर ये समझा जा सकता है। किताबों से उनको प्रेम है। किसी का स्वागत करने के लिए फूल की जगह किताब की पैरोकारी कर प्रधानमंत्री ने पुस्तकप्रेमियों को दिल जीत लिया था। इसी तरह से कुछ साल पहले एक पुरस्कार समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि घर बनाते समय आर्किटेक्ट से नक्शे में पुस्तकालय के प्रावधान के लिए अनुरोध किया जाना चाहिए।

इसके अलावा जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं बने थे और संगठन का काम संभालते थे तो उस वक्त वो खूब पत्र लिखा करते थे। उन पत्रों को देखने से भी इस बात का पता चलता है कि मोदी में एक गहरी साहित्यिक अभिरुचि है। यह अकारण नहीं है कि वो समय-समय पर अपनी रैलियों में कविताओं का उपयोग करते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उन्होंने ‘ये देश नहीं मिटने दूंगा’ जैसी ओजपूर्ण कविता के माध्यम से देश को संदेश दिया था। कविता के माध्यम से जनता से जुड़ने और उनके दिलतक अपनी बात पहुंचाने का उनका अपना एक अलग ही अंदाज है।

प्रधानमंत्री मोदी का दिनकर की कविताओं को उद्धृत करना कई लोगों को खल गया। कुछ लोग दिनकर की उन पंक्तियों को उद्धृत करने लगे जिनमें उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा की थी। कई वामपंथी विचारधारा की तरफ झुकाव रखनेवाले लेखकों ने तो दिनकर को दक्षिणपंथी करार दे दिया। अपने कहे के समर्थन में वो प्रसंग उठा लाए जब दिनकर ने पांचजन्य पत्रिका के लिए छात्रों से बातचीत की थी। यहां सवाल दिनकर की रचनाओं को समझने का है।

हिंदी में दिनकर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपनी रचनाओं में खुद को अपने समय का सूर्य घोषित करते हैं – ‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं।‘ तो सूर्य का ताप उनकी कविताओं में भी दिखाई देता है। वामपंथियों ने लंबे समय तक दिनकर को हाशिए पर डालने की कोशिश की, उनके खिलाफ लिखा गया, उनकी उपेक्षा की गई। दिनकर को उनके जीवनकाल में ही साहित्य की परिधि पर धकेलने का प्रयास विदेशी विचारधारा के प्रभाव में काम कर रहे आलोचकों और लेखकों ने संगठित रूप से किया।

उऩकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाओँ का मूल्यांकन ना हो पाए, इस बात की कोशिश की गई। लेकिन दिनकर की रचनाओं में इतना दम है कि उसको दबाया नहीं जा सका। वामपंथियों की दिनकर से चिढ़ पुरानी है। 1962 में चीन से पराजय के बाद जब दिनकर ने परशुराम की प्रतीक्षा लिखा को उनके खिलाफ इस विचारधारा के लोगों ने काफी दुष्प्रचार किया था। दिनकर ने लिखा भी है कि ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा’ से तीन प्रकार के लोग नाराज हुए।

एक तो वे, जो गांधीवाद का अर्थ यह समझते हैं कि कि दुश्मन जब धावा करे, तब उसे रोकने के लिए निहत्थे आदमियों को सरहद पर लेट जाना चाहिए। दूसरे वे लोग, जो यह समझते थे कि चूंकि चीन कम्युनिस्ट है, उसलिए उसके विरुद्ध उत्पन्न क्रोध की लपट प्रगतिशील भावनाओं को भी आंच पहुंचा सकती है। और तीसरे वे लोग, जो समझती थे कि सरकार अकर्मण्य रहना चाहती है, अतएव इस कविता के विरोध से सरकार के नेता खुश हो जाएंगें।‘

दिनकर को इस बात का भान था कि कम्युनिस्ट उनकी इस रचना के खिलाफ हैं और वो चीन को ललकारने की भावना को बढ़ाना नहीं देना चाहते हैं। इस वजह से भी उन्होंने दिनकर की इस कृति का नोटिस नहीं लिया। तब दिनकर ने लिखा था कि उनकी नजर में समाचारपत्रों के वे संपादक साहसी थे जिन्होंने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की समीक्षाएं प्रकाशित की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि दिनकर उन दिनों कम्युनिस्टों से इस बात को लेकर झुब्ध थे कि वो चीनी आक्रमण के बाद भी चीन की निंदा नहीं कर रहे थे। दिनकर ने लिखा, ‘कम्युनिस्टों ने खुली आलोचनाएं तो बहुत कम लिखीं, किन्तु कानाफूसी के जरिए उन्होंने अपनी नाराजगी का समाचार सरहद के पार तक पहुंचा दिया था।

इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ कि पिछले 8 अक्तूबर 1964 ई. को साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित अपने स्वागत समारोह में श्री चेलीशेव ने यह कहा कि ‘चीनी आक्रमण के समय आपलोगों ने क्या लिखा, यह रूस में हम नहीं जान सके। हमने तो केवल ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ को पढ़ा और उसी काव्य की चर्चा हमारे देश में फैली है। आश्चर्य, संभव है, कुछ साम्यवादी पंडितों को भी हुआ हो।‘ तो यह कहा जा सकता है कि दिनकर ने अपनी रचनाओं में बहुधा वामपंथियों के दोहरे चरित्र को उजागर किया और उनके असली चेहरे को सामने लाने में हिचके नहीं।

वो कहते भी थे कि उनको क्रेमलिन से आया फरमान कतई मंजूर नहीं है।

इस वक्त जो वामपंथी दिनकर की आलोचना करने में लगे हैं या फिर दिनकर को कांग्रेसी और नेहरू का चमचा कह रहे हैं उनको न तो दिनकर के बारे में पता है और न ही इतिहास बोध। वो तो बस उस सूखे पुआल के रखवाले की तरह हैं जो अंगार से डरता है। अब वामपंथी विचारधारा सूखा हुआ पुआल हो चुका है और ये वामपंथी उनके रखवाले जो दिनकर की रचनाओं के अंगार से भयाक्रांत दिखाई देते हैं।

डर इस बात का है कि अगर इतिहास की लिखी सारी बातें अंगार के रूप में सामने आ जाएंगी तो सूखे पुआल को जलते देर नहीं लगेगी। दरअसल ये समझना होगा कि दिनकर की कविताओं में जो राजनीतिक चेतना है उसके आधार में राष्ट्र का हित है। नेहरू से वामपंथी इस वजह से भी चिढ़ते थे कि वो लगातार नेहरू के वामपंथ के प्रभाव से मुक्त होने की बात भी करते थे। एक बार दिनकर ने कह दिया था कि जैसे जैसे मार्क्स के सिद्धांत काल के गियर से छूटते गए वैसे वैसे पंडित जी की आस्था मार्क्स पर कम होती गई। इस तरह के बेबाक बोल उस वक्त की ताकतवर विचारधारा के कर्ताधर्ताओं को नहीं भाता था।

एक किस्सा कई बार सुनाया जाता है कि एक बार किसी कार्यक्रम में दिनकर और जवाहरलाल नेहरू दोनों पहुंचे थे। कार्यक्रम स्थल पर जाने के दौरान नेहरू सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे, उस वक्त दिनकर ने उनका हाथ थाम लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर को धऩ्यवाद कहा। इस धन्यवाद के उत्तर में दिनकर ने कहा था ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है।‘

दिनकर ने ये बात भले ही मजाक में कही हो लेकिन उस वक्त नेहरू की लड़खड़ाती सत्ता पर ये कड़ा व्यंग्यात्मक प्रहार था। आज दिनकर की आलोचना करनेवाले ये भूल जाते हैं कि उन्होंने राज्यसभा सांसद रहते कई मुद्दों पर नेहरू की आलोचना भी की थी। चाहे वो भाषा का मुद्दा हो या फिर भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का, दिनकर ने खुलकर अपनी बात रखी थी। उस वक्त की सरकार को कभी अपनी रचनाओं के माध्यम से तो कभी भाषणों से कठघरे में खड़ा किया था।

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