खलनायक को नायक बनाने की जिद, जिन्ना का गुणगान कट्टर मानसिकता और घटिया राजनीति का प्रतीक

पाकिस्तान के राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा प्रकाशित ‘जिन्ना पेपर्स’ और कराची विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति आइएच कुरैशी के अनुसार जिन्ना 1930 से ही एलिजाबेथ गिलियट के माध्यम से विघटनकारी मंत्रणा हेतु चर्चिल के साथ गुप्त संपर्क में बना हुआ था।

By Neel RajputEdited By: Publish:Mon, 29 Nov 2021 07:58 AM (IST) Updated:Mon, 29 Nov 2021 07:58 AM (IST)
खलनायक को नायक बनाने की जिद, जिन्ना का गुणगान कट्टर मानसिकता और घटिया राजनीति का प्रतीक
लाखों लोगों के कत्लेआम और करोड़ों के विस्थापन के जिम्मेदार जिन्ना का गुणगान कट्टर मानसिकता और घटिया राजनीति का प्रतीक

विकास सारस्वत। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले जिन्ना का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है। अब कांग्रेस नेता और झारखंड के पूर्व राज्यपाल अजीज कुरैशी ने कह दिया कि जिन्ना बड़े देशभक्त थे और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यानी एएमयू में उनकी और बड़ी फोटो लगनी चाहिए। इसके पहले समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के बाद नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी और फिर सहयोगी दल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने भी जिन्ना को स्वतंत्रता संग्राम का अग्रणी नेता बताया था। जिस ‘पंथनिरपेक्ष’ राजनीति में वीर सावरकर के लिए नफरत भरी है, उसमें जिन्ना के लिए अथाह प्रेम है। जो राजनीति आक्रांताओं द्वारा अपमान की दृष्टि से बदले शहरी नामों के प्रत्यावर्तन से उद्वेलित हो जाती है, उसमें भारत भंग के खलनायक जिन्ना के लिए भरपूर संवेदना है। सामान्यत: प्रत्येक जननेता का आकलन उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण प्रकरण को लेकर होता है, परंतु जिन्ना प्रेमी उनके प्रलयंकारी कालखंड को भुलाकर केवल पूर्व जीवन की चर्चा तक सीमित रखना चाहते हैं। यह कुछ वैसा ही विकार है जिसमें हिटलर के सभी पापों को भुलाकर उसके आरंभिक समाजवादी विचार और चित्रकार जीवन की दुहाई दी जाए।

जिन्ना की पाकिस्तान जिद को क्षणिक आवेश नहीं माना जा सकता। 1940 में लाहौर प्रस्तावना के बाद जिन्ना सात वर्ष के लंबे काल में वैमनस्य और रक्तपात का सूत्रधार बना रहा। पाकिस्तान के राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा प्रकाशित ‘जिन्ना पेपर्स’ और कराची विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति आइएच कुरैशी के अनुसार जिन्ना 1930 से ही एलिजाबेथ गिलियट के माध्यम से विघटनकारी मंत्रणा हेतु चर्चिल के साथ गुप्त संपर्क में बना हुआ था। यानी जिन्ना के जिस ‘पंथनिरपेक्ष’ काल का हवाला देकर कुछ नेता उसके बचाव में उतरते हैं, उसी दौर में जिन्ना दोहरा खेल खेल रहा था। बीस लाख लोगों के कत्लेआम और करीब एक करोड़ बीस लाख लोगों को विस्थापित कराने वाले जिन्ना के लिए सहानुभूति जितनी कट्टर मानसिकता की परिचायक है, उतनी ही घटिया राजनीति से प्रेरित भी। दरअसल भारतीय राजनीति की जिस विकृति को मुस्लिम तुष्टीकरण कहा गया, वह वास्तव में कट्टरपंथी इस्लाम का तुष्टीकरण है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस राजनीतिक दुराग्रह में एमसी छागला, एपीजे अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान जैसे मूर्धन्य मुस्लिमों को कभी स्थान नहीं मिला और सिर्फ मजहबी कट्टरपंथियों को तृप्त करने की कोशिश होती रही। इसी तरह रहीम, रसखान, मेजर उस्मान, वीर अब्दुल हमीद आदि की भी अनदेखी की जाती है।

पाकिस्तान की मांग, विभाजन की विभीषिका और उस उन्मादी उत्पात को जिन्ना की अगुआई इसी इस्लामी कट्टरपंथ का एक हालिया चेहरा है। विभाजन के 75 वर्ष बाद भी यह कट्टरपंथ और अलगाव भारत में जीवित है। कभी क्रिकेट मैच में भारत के खिलाफ पाकिस्तान की जीत पर आतिशबाजी तो कभी सीएए विरोधी दंगों के रूप में यह कट्टरता दिखती रहती है। घाघ नेता मजहबी कट्टरता और अलगाववाद की व्यापकता से बखूबी परिचित हैं। जिन्ना का ‘पंथनिरपेक्ष’ नेता के रूप में ही सही, मगर दलों द्वारा अनुमोदन वह सांकेतिक भाषा है, जिसे इस्लामी कट्टरपंथी तुरंत समझ लेते हैं। वे जानते हैं कि जिन्ना को स्वतंत्रता सेनानी या ‘पंथनिरपेक्ष’ बताना इन दलों की विवशता है और असली मंतव्य उनकेकट्टरवादी एजेंडे से सहमति और समर्थन है। इसी संदर्भ में सपा का जिन्ना जाप प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस द्वारा उत्पन्न मुस्लिम वोटों की प्रतिस्पर्धा के बीच इस्लामिक कट्टरपंथियों को इशारा है कि वह और अन्य दलों से अधिक ‘लीगी’ है।

उत्तर प्रदेश वह राज्य है, जिसमें देवबंद और अलीगढ़ जैसे मुसलमानों की दीनी और दुनियावी शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। राज्य में मजहबी उन्माद और ¨हसा का लंबा इतिहास रहा है। पाकिस्तान की मांग को सबसे व्यापक समर्थन भी इसी क्षेत्र में तब मिला था, जब यह यूनाइटेड प्रोविंसेस कहलाता था। सन 1934 में लंदन से वापसी के बाद जिन्ना ने अपनी दूसरी राजनीतिक पारी प्रदेश के मुसलमानों के आग्रह पर ही शुरू की थी। जिन्ना को कायदे आजम की उपाधि भी 1937 में लखनऊ में ही मिली थी। भले ही पाकिस्तान की मांग 1940 के लाहौर अधिवेशन में उठी हो, पर उससे पहले ही बरेली के अनीस अल दीन अहमद रिजवी ने एक पत्रक के माध्यम से नक्शे समेत पाकिस्तान का स्पष्ट खाका खींच दिया था। एएमयू तो पाकिस्तान मुहिम का ऐसा केंद्र बना कि जिन्ना ने संस्थान को पाकिस्तान का शस्त्रगार बता दिया। ‘क्रिएटिंग ए न्यू मदीना’ पुस्तक में वेंकट धुलिपला ने ठोस सबूतों के माध्यम से बताया कि पाकिस्तान का आंदोलन एक तरह से यूपी की ही देन था। बंटवारे का आधार बनने वाले 1946 के प्रांतीय चुनावों में सिंध, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर और पंजाब से ज्यादा समर्थन लीग को यूपी में मिला था।

भारत ने सदियों से इस्लामिक कट्टरवाद का दंश ङोला है। गौरी, खिलजी, तुगलक, बाबर और औरंगजेब जैसे आक्रांताओं की इस कड़ी में जिन्ना अंतिम खलनायक हैं। जिन्ना के बारे में यह बोध इस्लामिक कट्टरपंथियों को पाकिस्तान बनने से पहले ही था। इसकी बानगी 1942 में इलाहाबाद के एक जलसे में दिखी, जहां मुस्लिम जमींदारों ने जिन्ना को 110 द्वारों के मध्य से एक लंबे जुलूस के रूप में निकाला। सभी द्वारों पर भारत पर इस्लामिक जीत के लिए प्रयासरत आक्रांताओं के नाम लिखे थे। पहला द्वार मोहम्मद बिन कासिम और अंतिम द्वार जिन्ना के नाम पर था। विभाजन के बाद आस बंधी कि भारत विजय के इस इस्लामी जुनून पर अब विराम लग जाएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि हमारे कई नेता मुस्लिम तुष्टीकरण में लग गए।

अखिलेश यादव जैसे नेता जिन्ना का गुणगान कर कट्टरपंथियों को जाने-अनजाने यही संकेत दे रहे हैं कि यदि आप हमें जिता दें तो भारत अब भी गजवा-ए-हंिदू के लिए खुला मैदान है। अखिलेश जिन्ना को लेकर अपने बयान पर न केवल कायम रहे, बल्कि आलोचकों पर बरसे कि वे सही इतिहास से वाकिफ नहीं। साफ है कि उन्होंने सोच-समझ कर जिन्ना का गुणगान किया।

देश और प्रदेश इस्लामी कट्टरता की बड़ी कीमत दे चुका है। यदि धृष्ट राजनेता फिर भी सबक लेने को तैयार नहीं हैं तो जनता को चाहिए कि ऐसी घातक राजनीति का अंत अपने वोट की ताकत से करे।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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