प्रदूषण पर्व: धुंध ने महज राजनेताओं को ही धुंधकाया नहीं है, बल्कि पब्लिक भी धुंधायमान हो गई

मुझे तो लगता है कि कि अभी प्रदूषण पर्व के महत्व को कायदे से समझा नहीं गया है। शायद भविष्य में इसे समझ लिया जाए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 18 Nov 2018 12:49 AM (IST) Updated:Sun, 18 Nov 2018 05:00 AM (IST)
प्रदूषण पर्व: धुंध ने महज राजनेताओं को ही धुंधकाया नहीं है, बल्कि पब्लिक भी धुंधायमान हो गई
प्रदूषण पर्व: धुंध ने महज राजनेताओं को ही धुंधकाया नहीं है, बल्कि पब्लिक भी धुंधायमान हो गई

[ अभिषेक कुमार सिंह ]: इन दिनों एक अर्से से हम सुबह उठते हैं तो चहुंओर धुंध, कोहरे की श्यामल चादर फैले हुए अपने आसपास पाते हैं। सायंकाल में घर-गमन को प्रस्तुत होते हैं तो धुंधप्रेरित कुहासा जो इधर स्मॉग नाम से चर्चित हो गया है, हमारा रास्ता रोके हुए मौजूद मिलता है। मानो कह रहा हो कि ‘अजी हम से बचके, कहां जाइएगा। जहां जाइएगा, हमें पाइएगा।’ यह धुंध पुराने दिनों वाली धुंध नहीं है। यह जानलेवा प्रदूषण है, लेकिन अब इसने एक पर्व का रूप ले लिया है-प्रदूषण पर्व। यह सालाना आयोजन की तरह आ धमकने वाला एक त्योहार है। कैलेंडरों को अब नया समायोजन कुछ इस तरह करना चाहिए कि अलां तारीख से फलां तारीख के बीच भारतवर्ष प्रदूषण पर्व मनाता है। यूं ज्ञानीजन कह रहे हैं कि स्मॉग असल में हमारी उत्सवधर्मिता में समानता का भाव स्थापित करने आता है।

वे उदाहरण देते हैं- जिस तरह होली में रंगे-पुते, कीचड़, कोलतार में नख-शिख लिपटे चेहरों को देखकर यह पहचान पाना मुश्किल होता है कि कौन अपना है, कौन पराया। कुछ वैसा ही भाव दीपावली पर भी रहे इसलिए प्रदूषण आसमान पर हाजिर हो जाता है। गहरी धुंध में पता नहीं चलता कि कौन चला आ रहा है और कौन उठकर चला गया है। होली में रंग और कीचड़ हमें जिस दशा को प्राप्त कराते हैं, दिवाली में पटाखा-पराली की कोख से जन्मी धुंध हमें उसी अवस्था में ले जाती है। होली-दिवाली में एकात्म और एकाकार होने का यह परम सुख हमें धुंध रूपी स्मॉग के सिवा भला और किस चीज से मिल सकता था।

स्मॉग नई परिभाषाओं, नए गीत, नए छंदों का जनक बनकर इस धरा पर अवतरित हुआ है। गीतकार अब कुछ इस तरह के गीत लिखेंगे- ‘यह देश है गाड़ी-वाहनों का, पराली का, कंस्ट्रक्शन का, इस देश की धुंध का क्या कहना, ये धुंध है सांसों का गहना।’ पर जैसा कि हाल में उद्घाटित हुआ है कि धुंध कन्फ्यूजियाती भी है। यह धुंध का मूल स्वभाव है कि ‘जब छाए, उसका जादू तो कोई बच न पाए।’ धुंध सिर्फ आंखों पर नहीं छाती, दिमाग की कोशिकाओं में भी कुहासा-अंधेरा सा भर जाती है। ऐसा होते ही हमारी वाणी पर हमारा वश नहीं रहता। हम कहना कुछ चाहते हैं, कह कुछ जाते हैं।

हमें मालूम नहीं चलता है कि पनामा पेपरलीक में हम जिनका नाम ले रहे हैं, उनकी सात पुश्तों का उससे कोई लेनादेना नहीं है,लेकिन घोटालों की धुंध इतनी है कि दिमाग चकरा जाता है। पनामा, मामा और उनके सगे-संबंधी सब हमें एक जैसे लगने लगते हैं। बाद में हमें अपने कहे का अहसास होता है। मुझे तो लगता है कि इस प्रदूषण के कन्फ्यूजन ने ही एक नई संख्या पचत्तीस का भी ईजाद किया। जल्द ही यह पता चले तो हैरत नहीं कि पचत्तीस प्रतिशत प्रदूषण का क्या असर होता है? इसकी खोज होनी चाहिए कि प्रदूषण रूपी धुंध या धुंध रूपी प्रदूषण और क्या-क्या नई चीजें पैदा करने में सक्षम है?

धुंध ने महज राजनेताओं को ही धुंधकाया नहीं है। पब्लिक भी धुंधायमान हो गई है। धुंध में फंसकर वह समझ नहीं पा रही है कि झगड़ा आखिर किसके-किसके बीच में है। उन्हें समझ नहीं आता कि आखिर सीबीआइ ही सीबीआइ से कैसे लड़ सकती है? यूं धुंध जैसा मौसम (अब इसे मौसम या ऋतु की संज्ञा देने से गुरेज कैसा) शायद ही कोई और हो।

धुंध गहरी हो तो प्रेमी जोड़ों को सड़क या बाजार में रंगे हाथों पकड़े जाने का भय नहीं रहता। चेहरे पर मास्क लगाए सभी प्रेमीजन एक जैसे दिखते हैं तो चाचा, बुआ, ताऊ क्या खाकर पहचानेंगे कि सामने से छोरी के साथ जो छोरा निकलकर अभी-अभी गया है, उसी को दो महीना पहले पीटकर वॉर्निंग दी थी कि खबरदार, जो छोरी के आसपास फिर कभी दिखा। अलबत्ता इसमें खतरा यह है कि छोरा समझकर मफलर ओढ़े, खांसते-खखारते प्रौढ़ बुजुर्ग न पिट लें। वैसे भी जब पीटने की हसरतों को पूरा करने का मौका आता है तो पीटक यानी पीटने वाले कहां देखते हैं कि जिसे पीट रहे हैं, उसकी उम्र, कद-काठी वगैरह क्या है। इन बातों का पता तो तब चलता है, जब धुंध थोड़ा छंटती है, लेकिन पिटाई का पुनीत कार्य संपन्न हो जाने के बाद अपराधबोध पालने की गलती समझदार भूले से नहीं करते।

वैसे यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि धुंध है तो धंधे-पानी का जुगाड़ है। अभी जो इतनी कवायद धुंध से निजात पाने के लिए हो रही है, हो सकता है कि धुंध के धंधे की समझ आने पर सारे समीकरण पलट जाएं। देश से धुंध हटाने की जगह धुंध पैदा करने के नुस्खों की खोज होने लगे। ताकि नई-नई योजनाएं, नीतियां, रणनीतियां बन सकें और समितियां गठित हो सकें। यह सब होगा तो लोगों को काम भी मिलेगा और प्रदूषण फिर भी नहीं दूर होगा जैसे कि अभी नहीं दूर हो रहा तो और समितियां-कमेटियां बनेंगी। जाहिर है कि इससे और लोगों को काम मिलेगा। मुझे तो लगता है कि कि अभी प्रदूषण पर्व के महत्व को कायदे से समझा नहीं गया है। शायद भविष्य में इसे समझ लिया जाए।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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