अमेरिका में पिछले दो-तीन दशकों से वहां के चुनाव में लेखकों की आड़ में हो रही राजनीति

अमेरिका में राजनीति से इतर वो गतिविधियां तेज हो गई हैं जो राजनीति को प्रभावित करती हैं। राष्ट्रपति के चुनाव के पहले उम्मीदवारों के बारे में पुस्तकें प्रकाशित होने का चलन रहा है।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Sun, 12 Jul 2020 12:26 PM (IST) Updated:Sun, 12 Jul 2020 12:26 PM (IST)
अमेरिका में पिछले दो-तीन दशकों से वहां के चुनाव में लेखकों की आड़ में हो रही राजनीति
अमेरिका में पिछले दो-तीन दशकों से वहां के चुनाव में लेखकों की आड़ में हो रही राजनीति

नई दिल्ली [अनंत विजय]। नवंबर में अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव होना है। वहां चुनाव की सरर्गिमयां बहुत तेज हो रही हैं। कोरोना के भयावह संकट से जूझ रहे देश में भी राजनीति के दांव-पेच तो अपनी गति से चल ही रहे हैं, लेकिन राजनीति से इतर वो गतिविधियां तेज हो गई हैं जो राजनीति को प्रभावित करती हैं। राष्ट्रपति के चुनाव के पहले उम्मीदवारों के बारे में पुस्तकें प्रकाशित होने का चलन रहा है।

कभी किसी के पक्ष में तो कभी किसी को ध्वस्त करने की मंशा से पुस्तकें लिखी जाती रही हैं। चुनाव के मौसम में इस तरह की पुस्तकें बिकती भी हैं। पुस्तकों की बिक्री से प्रकाशक भी उत्साहित होते हैं और वो भी चुनाव के वक्त ऐसे लेखकों की तलाश में रहते हैं जो राष्ट्रपति के उम्मीदवार के करीब हों और उनके बारे में कुछ विस्फोटक लिख सकें। इसके अलावा पिछले दो तीन दशकों से वहां के चुनाव में लेखकों की आड़ में भी राजनीति शुरू हुई है।

अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के समर्थक लेखक अपने-अपने उम्मीदवारों के समर्थन में प्रत्यक्ष या परोक्ष अपील भी जारी करते रहे हैं। अब जब इसी वर्ष नवंबर में अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है तो वहां पुस्तकें भी छपने लगी हैं और अपील भी जारी होने लगी हैं।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बने लगभग चार साल होने को आए, लेकिन इसके पहले वहां के बुद्धिजीवियों को ये याद नहीं आया था कि पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाई जा रही है या स्वतंत्र राय व्यक्त करने पर सत्ता द्वारा परेशान किया जाने लगा है। कुछ दिनों पहले अमेरिका और वहां की संस्थाओं से संबद्ध डेढ़ सौ बुद्धिजीवियों, स्तंभकारों, नाटककारों और लेखकों ने एक पत्र जारी किया।

उन्होंने पूरी दुनिया में स्वतंत्र राय रखने वालों को हो रही मुश्किलों पर चिंता जताते हुए उदारवादी शक्तियों पर अनुदारवादी ताकतों के प्रबल होते जाने के खतरे को रेखांकित किया है। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में हैरी पॉटर सीरीज की लेखिका जेके रॉलिंग से लेकर बुकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, कहानीकार और कवयित्री के रूप में पूरी दुनिया के साहित्य जगत में समादृत मार्गेट अटवुड, वामपंथियों के 'परम श्रद्धेय' विचारक नोम चोमस्की और विवादास्पद लेखक सलमान रुश्दी के अलावा भी कई नामचीन हस्तियां शामिल हैं।

इन सबकी चिंता ये है कि पूरी दुनिया में स्वतंत्र विचारों का विनिमय बाधित किया जा रहा है। ये मानते हैं कि स्वतंत्र विचारों का विनिमय उदारवादी समाज की प्राणवायु है और इस पर प्रतिबंध लगाने की परोक्ष कोशिशों से अनुदारवादी समाज की तरफ बढ़ रहे हैं। इस पत्र में असहिष्णुता का मुद्दा भी उठाया गया है और अमेरिकी समाज में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई है। इस अपील के बाद अमेरिका में सोशल मीडिया पर इसको लेकर घमासान छिड़ गया। कुछ लोगों ने अमेरिका में 'स्थगित संस्कृति' का जुमला उछाला। हालांकि इस पत्र पर हस्ताक्षर करनेवाले चंद लोगों ने इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

जेनिफर बॉयलेन ने तो ट्वीट करके कहा कि वह नहीं जानती कि उनके अलावा और किसने इस पर हस्ताक्षर किए हैं, वह तो ये समझ रही थीं कि ये अपील इंटरनेट पर होनेवाले दुव्र्यवहार के विरोध में है। इतिहासकार केरी ग्रीनिज तो इससे भी एक कदम आगे चली गईं और साफ किया कि वो हार्पर पत्रिका में छपे पत्र से सहमत नहीं हैं। केरी ग्रीनिज के इस विरोध के बाद हार्पर ने उनका नाम इस पत्र से हटा भी दिया।

दरअसल ये वामपंथी रुझानवाले लेखकों और बुद्धिजीवियों की अपनी विचारधारा वाले राजनीतिक दल को समर्थन करने का एक औजार मात्र है। इसमें वो समाज में अपनी साख का उपयोग अपनी विचारधारा को मजबूत करने और उस विचारधारा के आधार पर चलनेवाले राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाने के लिए करते हैं।

हमारे देश ने भी चुनाव के समय बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों के कई ऐसे पत्र या अपील देखे हैं। अमेरिका में जो पत्र जारी किया गया है उसमें वैश्विक स्तर पर अनुदारवादी विचार के मजबूत होने को लेकर चिंता जताई गई है। लेकिन नोम चोमस्की जैसे लोग भी ये भूल जाते हैं कि रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कुछ दिनों पहले ही कहा था कि उदारवादी विचार को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है।

अब वह दौर आ गया है कि उदारवादी किसी को भी किसी भी समय इस अवधारणा की आड़ में कुछ भी करने को मजबूर नहीं कर सकते हैं। पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह तरह के आदेश देकर सत्ता ने अपने हिसाब से काम करवाया।

उदारवाद के नाम पर अराजकता की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती है। पुतिन का मानना है कि उदारवाद का सिद्धांत किसी भी देश के बहुमत के अधिकारों के खिलाफ जाता है, लिहाजा अब वह अर्थहीन हो चुका है। पुतिन ने तब उदारवादी व्यवस्था की कमियों को लेकर बेहद आक्रामक तरीके से अपनी बातें रखी थीं। इस आलोक में अगर इन बुद्धिजीवियों की चिंता को देखें तो वो महज एक चुनावी दांव ही नजर आता है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले पुस्तकों का प्रकाशन भी शुरू हो गया है।

चंद दिनों पहले राष्ट्रपति ट्रंप की भांजी मैरी एल ट्रंप की एक पुस्तक आई है, 'टू मच एंड नेवर एनफ, हाउ माई फैमिली क्रिएटेड द वल्ड्र्स मोस्ट डेंजरस मैन' जिसमें ट्रंप के कई राज खोलने का दावा किया गया है। मैरी ट्रंप ने अपनी इस पुस्तक में अपने पारिवारिक झगड़ों और रिश्तों के बननेबिगड़ने की कथा लिखी है। किताब खूब बिक भी रही है। इसके विवादास्पद अंश भी अमेरिका समेत पूरी दुनिया के अखबारों में छप रहे हैं। जैसाकि पुस्तक के नाम से ही जाहिर है कि लेखिका ने किताब में क्या लिखा होगा। इस पुस्तक के विवादास्पद अंशों को लेकर अमेरिका में राजनीतिक बयानबाजी भी हो रही है।

अमेरिका के चुनावी इतिहास को देखते हुए इस बात की संभावना है कि इस तरह की कई किताबें नवंबर के पहले प्रकाशित होंगी। जब से हमारे देश में चुनाव लड़वाने वालों की पूछ बढ़ी है, जो आंकड़ों के अलावा चुनावी माहौल बनाने का वैज्ञानिक तंत्र खड़ा करने का भी दावा करते हैं, तब से यहां भी चुनाव के पहले पुस्तकों का प्रकाशन या बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों या नाटककारों से अपील करवाने का चलन बढ़ा है।

मतलब कि अमेरिका की तर्ज पर उन चुनावी औजारों का यहां भी उपयोग होने लगा है। हमारे देश में भी चुनावों के पहले असहिष्णुता का मुद्दा एक बार अवश्य उठता है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले तो चुनाव को ध्यान में रखकर किताबें भी लिखी भी गईं और प्रकाशित भी हुईं। चुनाव के पहले 'व्हाइ आइ एम ए हिंदू' से लेकर 'व्हाइ आइ एम ए लिबरल' जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

उदारवादियों ने 2014 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि सरकार अनुदारवादी है। वर्ष 2014 से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक यह भी कहा जाता रहा कि सरकार में अनुदारवादी शक्तियां प्रबल हैं। केंद्र सरकार पर तानाशाही से लेकर फासिज्म तक के आरोप जड़े जाते रहे।

लेकिन चुनाव लड़वाने वाले और जितवाने वाले चाहे जितना दावा करें, जनता के मानस को समझने की जो दृष्टि जमीन से जुड़े नेताओं में होती है वो इन चुनावी मैनेजरों के पास नहीं होती। इसलिए न तो अमेरिका के चुनाव में अपील और किताबों के प्रकाशन का बहुत असर दिखता है और न ही भारत में पिछले दो आम चुनाव में दिखा।  

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