मर्यादा में रहें संसदीय विशेषाधिकार: विशेषाधिकार सदन संचालन में सुविधा के लिए हैं, न कि आपराधिक कृत्यों के सुरक्षा कवच

सदनों का व्यवधान राष्ट्रीय चिंता है। पीठासीन अधिकारियों के तमाम सम्मेलनों में इस पर चर्चा हुई है लेकिन परिणाम शून्य हैं। संसद ही अपनी प्रक्रिया की विधाता है। गहन आत्मचिंतन ही उपाय है। सरकार संसद में जवाबदेह है। सदन में संवाद की ही उपयोगिता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 02 Aug 2021 04:21 AM (IST) Updated:Mon, 02 Aug 2021 04:56 AM (IST)
मर्यादा में रहें संसदीय विशेषाधिकार: विशेषाधिकार सदन संचालन में सुविधा के लिए हैं, न कि आपराधिक कृत्यों के सुरक्षा कवच
संसद को सर्वोच्च विधायी अधिकार प्राप्त हैं। उच्चतम न्यायालय ने संसदीय व्यवस्था को संविधान का आधारिक ढांचा बताया है।

[ हृदयनारायण दीक्षित ]: संसद को सर्वोच्च विधायी अधिकार प्राप्त हैं। उच्चतम न्यायालय ने भी संसदीय व्यवस्था को संविधान का आधारिक ढांचा बताया है। संसद के अपने विशेषाधिकार हैं। विशेषाधिकार संसद सदस्यों को भी प्राप्त हैं। संविधान के अनुच्छेद 105(1) में कहा गया है कि ‘संविधान के उपबंधों, संसद की प्रक्रिया के नियमों और स्थायी आदेशों के अधीन संसद में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।’ आगे इसी अनुच्छेद के खंड (2) में उल्लिखित है, ‘संसद या संसद की समिति में सांसद द्वारा कही गई किसी बात या मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।’ संप्रति विपक्ष के कुछ सांसद विचार स्वातंत्र्य को शोर स्वातंत्र्य मानते हैं। वे हंगामे और व्यवधान को भी संसदीय कार्यवाही का अंग मानते हैं। राष्ट्रीय चुनौतियों और जनहित के मूलभूत प्रश्नों पर चर्चा नहीं होती। संविधान के अनुसार सरकार संसद में जवाबदेह है। सदन में संवाद की ही उपयोगिता है। इसी से सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है, लेकिन कुछ समय से सदन में बाधा डालने, नियमावली को तार-तार करने का चलन बढ़ा है। संसद का चालू मानसून सत्र भी कोई अपवाद नहीं।

विशेषाधिकार सदन संचालन में सुविधा के लिए हैं, न कि आपराधिक कृत्यों के सुरक्षा कवच 

सदन और उसके सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकार सदन संचालन में सुविधा के लिए हैं, न कि आपराधिक कृत्यों के सुरक्षा कवच। केरल विधानसभा में हुए उपद्रव के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने सही फैसला सुनाया है। केरल सरकार के मंत्री वी शिवनकुट्टी और पांच अन्य सदस्यों ने 13 मार्च, 2015 को बजट में बाधा डाली। विपक्षी सदस्यों के रूप में वे विधानसभा कर्मियों से भिड़ गए थे। उन्होंने सभा की संपदा को क्षति पहुंचाई। इसमें करीब 2.2 लाख रुपये का नुकसान हुआ। मुकदमा दर्ज हुआ। मौजूदा केरल सरकार ने उसे वापस लेने की अर्जी लगाई, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने विशेषाधिकार और सदन के भीतर हुए उपद्रवों को अलग-अलग बताया है। कहा है कि विशेषाधिकार आपराधिक मामलों से छूट प्राप्त करने का रास्ता नहीं है। कोर्ट के फैसले में विशेषाधिकार का उल्लेख विचारणीय है। उड़ीसा हाई कोर्ट ने सुरेंद्र मोहंती बनाम नवकृष्ण मामले में कहा था ‘कोई भी न्यायालय विधानमंडल सदस्य के सदन में दिए भाषण के आधार पर कार्रवाई नहीं कर सकता।’ हालांकि यहां भाषण की नहीं, बल्कि हिंसा की बात है।

विशेषाधिकारों का उद्देश्य संसदीय स्वतंत्रता, प्राधिकार और गरिमा की रक्षा रहा है

विशेषाधिकारों का उद्देश्य संसदीय स्वतंत्रता, प्राधिकार और गरिमा की रक्षा रहा है। न्यायालय सभा की कार्यवाही नहीं जांच सकते, लेकिन आपराधिक कार्यों के संरक्षण के उद्देश्य से अपराध कर्म को विशेषाधिकार नहीं माना जा सकता। महाराष्ट्र विधानसभा के एक सदस्य ने अपने माइक को लाउडस्पीकर से जोड़ने के लिए आपरेटर पर झल्लाकर पेपरवेट फेंका। अध्यक्ष के माइक पर झपट्टा मारा। सदस्य को सभा से निष्कासित किया गया। उन्हें भारतीय दंड संहिता की धाराओं में दोषी पाया गया। सदन बाहुबल प्रदर्शन का स्थान नहीं है। यह संवाद का श्रेष्ठतम मंच है, लेकिन यहां का दलतंत्र ही सदन में बाधा डालने की योजना बनाता है। सांसदों और विधायकों को हुल्लड़ के निर्देश दिए जाते हैं। संसदीय प्रणाली पर संसद द्वारा प्रकाशित ‘संसदीय पद्धति और प्रक्रिया’ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहर्न ंसह का प्राक्कथन पठनीय है। उन्होंने लिखा था ‘संसद में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से मर्यादा क्षीण होती है। नागरिकों में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान भाव होना चाहिए। आवश्यक है कि संसद लोगों की नजरों में अपनी अधिकाधिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए व्यवस्थित ढंग से काम करे।’

संसद सत्र में योजनाबद्ध व्यवधानों से गतिरोध जारी

अभी संसद सत्र में योजनाबद्ध व्यवधानों से गतिरोध जारी है। तमाम माननीय पोस्टर प्लेकार्ड लाते हैं। हंगामा करते हैं। अध्यक्ष/सभापति की बात नहीं सुनते। हाल में एक माननीय के विरुद्ध कार्रवाई हो चुकी है। अध्यक्ष या सभापति का निर्णय अंतिम होता है, उसे चुनौती नहीं दी जा सकती, लेकिन निलंबन की निंदा भी हो गई। निलंबन अच्छा नहीं होता। पीठासीन अधिकारी इसे अंतिम विकल्प के रूप में इस्तेमाल करते हैं। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय सरकार ने 63 सदस्यों का निलंबन कराया। तब कांग्र्रेस ने निलंबन की निंदा भी नहीं की थी। 2014 में भी 16 सांसदों का निलंबन हुआ था। आक्रामक व्यवधान के बीच संसद में व्यवस्था बनाना कठिन है। वेल में आना, मंत्रियों से कागज छीनना पराक्रम हो गया है। ऐसे कृत्य लोकतंत्र के विरुद्ध अपराध हैं। व्यवधानकर्ताओं को दंडित करने के लिए 2001 में लोकसभा की नियमावली में 374(क) जोड़ा गया था। इसके अनुसार अध्यक्षीय आसन के सामने शोर करने वाले सदस्य अध्यक्ष द्वारा नाम लेते ही स्वत: निलंबित हो जाते हैं, मगर इसका उपयोग प्राय: नहीं होता।

संसदीय व्यवहार का पराभव खतरे की घंटी

संसदीय व्यवहार का पराभव खतरे की घंटी है। आमजन अपने जनप्रतिनिधियों को शोर मचाते देखकर आहत और निराश हैं। दुनिया के अनेक देशों में संसदीय व्यवस्था है। ब्रेक्जिट मामले को छोड़कर ब्रिटिश संसद में प्राय: व्यवधान नहीं हुए। अमेरिकी कांग्र्रेस में व्यवधान नहीं होते। जापानी संसद डायट भी खूबसूरत ढंग से चलती है। ऐसे देशों ने अपनी संसदीय व्यवस्था का सही विकास किया। भारत की संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। बहस तीखी थीं, लेकिन व्यवधान नहीं थे। पहली लोकसभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू और डा. श्यामा प्रसाद जैसे महानुभाव थे। पहली दफा 1952 में प्रिवेंटिव डिटेंशन संशोधन विधेयक पर व्यवधान हुआ। 1963 में आधिकारिक भाषा विधेयक पर भी तनातनी थी, मगर ऐसे व्यवधान अपवाद थे। 1968 तक व्यवधान नहीं थे, मगर अब वे आम हो गए हैं।

संसद में सदन संचालन की सुस्पष्ट नियमावली है, फिर भी हंगामा 

संसद में सदन संचालन की सुस्पष्ट नियमावली है। फिर भी हंगामा है। आखिर संसदीय कार्यवाही के मुख्य घटक क्या हैं? कुछ समय पहले राहुल गांधी ने सदन में आंख मारने का विचित्र कौशल दिखाया था। लोकसभा नियमावली में संसदीय दीर्घा का संज्ञान लेने पर रोक है। राहुल जी ने दर्शक दीर्घा में बैठे युवकों का ध्यान आकर्षित किया था। कागज छीनने-फाड़ने की घटना ताजी है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या ऐसे कृत्य भी सदन के विशेषाधिकार हैं। केरल विधानसभा मामले में सर्वोच्च न्यायपीठ ने ऐसे कृत्यों को विशेषाधिकार से अलग आपराधिक कृत्य माना है। भारत की विश्व प्रतिष्ठा बढ़ रही है, लेकिन संसद और विधानमंडलों का काम उत्पादक नहीं है। सदनों का व्यवधान राष्ट्रीय चिंता है। पीठासीन अधिकारियों के तमाम सम्मेलनों में इस पर चर्चा हुई है, लेकिन परिणाम शून्य हैं। संसद ही अपनी प्रक्रिया की विधाता है। गहन आत्मचिंतन ही उपाय है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )

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