हास्य-व्यंग्य : एक कवि का दर्द भरा कविता पाठ, जिसे सुनकर श्रोता पानी मांगने लगते हैं और आयोजक लिफाफा

क्रांति की सूत्रधार है मेरी कविता। दरअसल मेरा कवि होना मेरे हाथ में नहीं था। यह हिंदी-साहित्य की इच्छा थी कि मैं कवि बनूं और क्रांति करूं। बाजार हो या साहित्य दर्द की मांग सर्वत्र है। सरकार भी इसके लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Sun, 04 Oct 2020 06:20 AM (IST) Updated:Sun, 04 Oct 2020 06:20 AM (IST)
हास्य-व्यंग्य : एक कवि का दर्द भरा कविता पाठ, जिसे सुनकर श्रोता पानी मांगने लगते हैं और आयोजक लिफाफा
उस वक्त श्रोताओं पर क्या गुजरती रही होगी, बताने की जरूरत नहीं।

[संतोष त्रिवेदी]। मैं जन्मजात कवि हूं। इसकी गवाही मेरे पड़ोसी दे सकते हैं। पैदा होते ही मेरे करुण-क्रंदन से पूरा मुहल्ला रात भर जागता रहा। यहीं से मुझमें कविता के बीज पड़े और कालांतर में मैं साहित्य में स्थायी रूप से स्थापित हो गया। मेरे मुख से निकला हर शब्द कविता बनकर बहने लगा। मेरे अंदर अथाह दर्द था। यह दर्द दिन में कई बार पानी के सोते जैसा फूटता। जल्द ही मेरे दर्द-प्रवाह से पूरा साहित्य डूबने लगा। साहित्य को इस ‘दर्दनाक’ स्थिति से बचाने के लिए सरकार को मोर्चा संभालना पड़ा। उसने पहले मुझे अकादमी में डाला, फिर मेरी कविताओं को पाठ्यक्रम में बहाया, तब जाकर मेरे दुख का प्रवाह थमा। साहित्य के सभी सक्रिय गुटों ने मेरी प्रतिभा के आगे समर्पण कर दिया। दर्द से मेरा ऐसा लगाव हुआ कि जो मुझसे मिलता कराह उठता।

उन दिनों मैं साहित्य की हर ‘दुर्घटना’ के केंद्र में था। आयोजक मुझे प्रत्येक समारोह में बुलाते। सरकारी-असरकारी आयोजन मेरे बिना असरहीन होते। जिस गोष्ठी में नहीं होता, उसे कोई भाव नहीं देता। जहां जाता, जमकर बवाल होता। मेरी कविता ही मेरा ‘बयान’ होती।

वरिष्ठ कवि तो मेरी कविता के आतंक से मंच पर ही धराशायी हो जाते थे। उस वक्त श्रोताओं पर क्या गुजरती रही होगी, बताने की जरूरत नहीं। कुल मिलाकर गोष्ठी ‘हिट’ हो जाती। बहुत बाद में मुझे अपने महत्व का अहसास हुआ। सफलता मेरे कदम चूम रही थी और मेरे कदम राजपथ को। चारों तरफ बहार ही बहार थी। यह स्थिति तब बदली, जब बरसों से बैठी सरकार अचानक बदल गई।

जो लोग कहते हैं कि सरकारों के बदलने से कुछ नहीं होता, वे अहमक हैं। उन्हें मुझसे प्रेरणा लेनी चाहिए। मैं प्रोफेसर बनने की लाइन में सबसे आगे था कि मुझ पर सहसा साहित्याघात हो गया। जिस नालायक को हर मंच में रद्दी कविता बांचने का लिफाफा मेरी कृपा से अब तक मिलता रहा, मेरी जगह सूची में वह था।

मुझे सभी अकादमियों से ससम्मान आराम दे दिया गया। मेरी कविताएं पाठ्यक्रम से निकलकर वॉट्सएप यूनिर्विसटी में बांची जाने लगीं। इतना होने के बावजूद ‘सौभाग्य’ ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। मेरे दुख-दर्द में और निखार आ गया। कई आलोचकों ने मेरे दर्द की तीव्रता को समझकर अग्रिम श्रद्धांजलि तक र्अिपत कर दी। उनके अनुसार इतने दर्द के साथ जीने वाला प्राणी इस लोक में हो ही नहीं सकता। बहरहाल, आज आप सोशल मीडिया में मुझे 'जिंदा’ यानी लाइव सुन रहे हैं। मुझे ख़ुशी है कि मेरे दर्द को अव्वल नंबर की रेटिंग मिली है।

मेरी कविता में सच्चा दर्द है। उसे सुनकर श्रोता पानी मांगने लगते हैं और आयोजक लिफाफा। वे कहते हैं मेरी कविता अनमोल है। क्रांति की सूत्रधार है मेरी कविता। दरअसल मेरा कवि होना मेरे हाथ में नहीं था। यह हिंदी-साहित्य की इच्छा थी कि मैं कवि बनूं और क्रांति करूं। बाजार हो या साहित्य, दर्द की मांग सर्वत्र है। सरकार भी इसके लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।

आधुनिक कविता ने छायावाद से होते हुए प्रगतिवाद की लंबी यात्रा की है, लेकिन इस ‘प्रगति’ पर अब ग्रहण लग रहा है। मेरी एक ताजा कविता देखिए और अगर दर्द उठे तो जाहिर कीजिए, ‘कविता के लिए सबसे कठिन समय है यह कवि के लिए उससे भी अधिक अंदर से वह जार-जार रो रहा है हंसने के लिए वह लगातार मुंह धो रहा है। सूख गए हैं उसके सारे स्वप्न नहीं बचे हैं उसकी कविता में गांव और गरीब भूखे किसान और ‘वह तोड़ती पत्थर’ ये सब सियासत का औजार हैं सारे कवि बेरोजगार हैं।’ जैसे ही यह कविता सोशल मीडिया में ‘लाइव’ बांची, क्रांति की बयार आ गई। पूरी कवि बिरादरी एक साथ जुटकर सरकार पर टूट पड़ी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ] 

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