Oxygen Crisis In India: मेडिकल आक्सीजन के कारोबार का सच, राष्ट्रीय इच्छाशक्ति की आवश्यकता

एक उन्नत आक्सीजन प्लांट स्थापित करने के लिए करीब 50 लाख रुपये का खर्च आता है जिसे अस्पताल डेढ़ साल में वसूल सकते हैं। दिल्ली का प्रत्येक अस्पताल इसे वहन कर सकता था। लेकिन कोई भी आक्सीजन संयंत्र लगाने के लिए कीमती जगह आवंटित करने को तैयार नहीं था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 03 May 2021 10:42 AM (IST) Updated:Mon, 03 May 2021 11:02 AM (IST)
Oxygen Crisis In India: मेडिकल आक्सीजन के कारोबार का सच, राष्ट्रीय इच्छाशक्ति की आवश्यकता
इस बाढ़ ने अस्पतालों और आइसीयू की सभी योजनाओं को ध्वस्त कर दिया।

एस. गुरुमूर्ति। Oxygen Crisis In India केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने आज से करीब ढाई महीने पहले यह घोषणा की थी, ‘पिछले सात दिनों में भारत के 20 प्रतिशत जिलों में कोविड के नए मामले नहीं दर्ज किए गए हैं। ऐसा लग रहा है कि हमने कोविड के वक्र को स्थिर कर दिया है।’ जिस संक्रमण के दैनिक मामले गत वर्ष 97 हजार के चरम पर पहुंच गए थे वे तब नौ हजार से भी कम के स्तर पर आ गए थे, लेकिन अप्रैल आते-आते चीजें नाटकीय रूप से बदलीं और एक अभूतपूर्व आपदा में तब्दील हो गईं। इस खराब हालत में इस संकट से निपटने के लिए बहुत बड़े राष्ट्रीय संकल्प की जरूरत थी, पर दिल्ली में आक्सीजन की कमी से हुई मौतों ने समूचे तंत्र को भावनाओं के ऐसे आगोश में ले लिया कि सभी तथ्य व तर्क अप्रासंगिक हो गए। उलटे भ्रामक तथ्यों ने सार्वजनिक विमर्श को गलत दिशा में मोड़ दिया। इस बीच मुनाफाखोरों की शिकायतें बहुत आम हो गईं।

आक्सीजन की कमी के कारण सबसे पहले दिल्ली के कॉरपोरेट अस्पतालों में मौतें शुरू हो गईं। इस महामारी की बदौलत इन अस्पतालों ने भारी मुनाफा कमाया, खासतौर से पिछले साल तो खूब चांदी काटी। उनके परिचालन आंकड़ों से इसकी पुष्टि भी होती है। इससे पता चला कि कोविड के सप्ताह भर के उपचार के लिए अस्पतालों ने आम भारतीय की सालाना आमदनी के बराबर रकम वसूली। उसमें जांच के खर्च तो शामिल भी नहीं। इस लूट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की गई। उस याचिका से स्वास्थ्य सेवा प्रदाता संघ (एएचपी) और फिक्की के सदस्य स्व-नियमन पर सहमत हुए। अब जरा स्व-नियमन का हाल भी देख लीजिए।

देखें कि खुद से तय की गई फीस क्या थी? जनरल वार्ड की प्रतिदिन की फीस 15 हजार रुपये। इसके अलावा, पांच हजार रुपये आक्सीजन के लिए, आइसीयू की फीस 25 हजार रुपये, 10 हजार रुपये वेंटीलेटर के लिए। फिक्की की दरें तो और भी ऊंची थीं- 17 हजार रुपये से लेकर 45 हजार रुपये प्रतिदिन तक। इससे भी बढ़कर कि अस्पतालों ने पीपीई 375 से लेकर 500 रुपये प्रति किट खरीदा और दस-बारह गुना अधिक वसूला। इस मामले में दिल्ली की तरह चेन्नई और मुंबई भी अपवाद नहीं रहे। क्या ये वही अस्पताल हैं जिन्होंने अब जीवन के संवैधानिक अधिकार के तहत सरकार द्वारा आक्सीजन आपूर्ति को लेकर याचिकाएं दायर की हैं। जिनके लिए वे रोगियों से प्रतिदिन पांच हजार रुपये ले रहे थे, क्या किसी ने भी आक्सीजन के अभाव में हो रही मौतों पर चल रही बहस के बीच लूट के इन भयावह तथ्यों को सुना? यह बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि अनाप शनाप मुनाफा कमाने वाले ये अस्पताल मामूली कीमत पर अपना खुद का आक्सीजन संयंत्र लगा सकते थे।

मेडिकल आक्सीजन का उत्पादन, व्यापार, भंडारण और उपयोग निजी क्षेत्र के हाथ में है। भारत में मेडिकल आक्सीजन का व्यापार नियंत्रित या नियमित नहीं है, लेकिन इसकी कीमत रसायन और उर्वरक मंत्रालय के तहत एक स्वायत्तशासी संस्था ‘राष्ट्रीय औषध मूल्य प्राधिकरण’ द्वारा नियंत्रित की जाती है। उत्पादक आक्सीजन की आपूर्ति के लिए उद्योगों, अस्पतालों और सरकार के साथ भी निजी अनुबंध करते हैं। अस्पताल निर्णय लेते हैं कि आपात समय में आक्सीजन की कितनी जरूरत है आपूर्ति के समय का आकलन कर उसके अनुसार ऑर्डर करते हैं। उनकी सप्लाई चेन दूरी और समय दोनों दृष्टि से लंबी होती है, विशेष कर दिल्ली के अस्पतालों के लिए, जो विभिन्न राज्यों में फैले उत्पादन स्नोतों से हजारों किमी दूर हैं। ऐसे में सामान्य स्थितियों में भी समय से आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए एडवांस प्लानिंग की जरूरत होती है। लेकिन अस्पतालों ने आपात जरूरतों के लिए कोई प्लानिंग नहीं की और पैसे बचाए। इस जरूरत से आगे कमाने की जुगत भी लगाई। क्या किसी ने भी पिछले करीब 15 दिनों से चल रहे शोर शराबे के बीच इन तथ्यों पर गौर किया?

हम प्रतिदिन एक लाख टन आक्सीजन का उत्पादन करते हैं, इसमें से गुजरात की एक कंपनी ही अकेले पांचवे हिस्से का उत्पादन करती है। तरल रूप में आक्सीजन का व्यापार और परिवहन भारी व सुरक्षित टैंकरों के जरिये होता है। सबसे बदतर बात यह कि मात्र 300 रुपये के आक्सीजन को रखने वाले सिलेंडर की कीमत 10,000 रुपये होती है! दूरदराज में उत्पादन और टैंकरों से परिवहन और सिलेंडर में भंडारण सामान्य समय में भी समस्याएं पैदा करते हैं। महामारी के समय यह सप्लाई चेन दबाव का सामना नहीं कर सकी, विशेषकर दिल्ली, जहां कोविड से बड़ी संख्या में मौतें हुईं, वहां से सैकड़ों किमी दूर थी, जहां से आक्सीजन आना था।

जुबली मिशन मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट, त्रिशूर, केरल के एनेस्थिसिया और क्रिटिकल विभाग के चेरिश पॉल, जॉन पॉल और अखिल बाबू ने पिछले साल आक्सीजन की आपूर्ति के जोखिम को उजागर किया था। इन तीनों विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश अस्पताल आपदाओं के दौरान दुर्घटनाओं को आमंत्रित करते हुए एक ही स्थान से एकल पाइपलाइन पर निर्भर हैं। उन्होंने अस्पताल के आकार और तरल आक्सीजन संयंत्र के लिए अस्पताल की निकटता के आधार पर आक्सीजन के कई स्नोतों की सिफारिश की। इस सावधानी को दिल्ली के अस्पतालों में लागू करके वे स्वयं आक्सीजन का उत्पादन कर सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं किया। उन्होंने आपदा के दौरान आक्सीजन की निर्बाध आपूर्ति के लिए कभी योजना नहीं बनाई। जब आक्सीजन के लिए उनकी आपूर्ति लाइनें, जिस पर वे मुनाफाखोर निर्भर थे, असफल हो गए, तो उन्होंने जीवन के संवैधानिक अधिकार का हवाला दिया और अदालत से कहा कि वे सरकारों को आक्सीजन देने के लिए निर्देश दें! अदालत की भावनात्मक प्रतिक्रिया ने वास्तव में सरकारों पर दोष को स्थानांतरित करने में मदद की। इसने कोविड पर बहस और विमर्श को बदल दिया। क्या जनता को पिछले कुछ दिनों में इन महत्वपूर्ण तथ्यों की कोई जानकारी थी?

वर्तमान बहस तथ्य रहित है जो अस्पतालों की सप्लाई चेन की विफलता के लिए सरकार को दोष देती है। वह महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करती है। इस तरह की आकस्मिकता का पूर्वानुमान लगाते हुए मोदी सरकार ने अक्टूबर में 200 करोड़ रुपये की लागत से 162 आक्सीजन प्लांट समूचे भारत के सरकारी अस्पतालों के लिए ऑर्डर किए थे। इससे प्रति मिनट 80,500 लीटर मेडिकल आक्सीजन का उत्पादन हो सकता था। इससे प्रति संयंत्र प्रतिदिन लगभग एक टन तरल आक्सीजन बन सकती है। लेकिन 162 अस्पतालों के लिए आदेशित संयंत्रों में से केवल 33 ही स्थापित हुए। क्यों? यहां तक कि राज्यों के सरकारी अस्पतालों ने अपने यहां आक्सीजन की सुविधा के लिए केंद्र की योजना को विफल कर दिया। ऑर्डर दिसंबर में दिए गए थे, लेकिन जब विक्रेता इंस्टॉलेशन के लिए अस्पतालों में पहुंचे, तो उनमें से अनेक को ‘प्रतिरोध का सामना करना पड़ा’, ‘कोई जगह नहीं’ का नाटक करते हुए। केंद्र की योजना को राज्यों द्वारा संचालित अस्पतालों द्वारा भी विफल कर दिया गया था। क्या किसी ने सरकार के इस दूरदर्शी कदम के बारे में सुना?

एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो आक्सीजन की कमी पर बहस में नहीं है, वह यह कि वर्तमान कोविड सुनामी पुराने की वापसी नहीं है, बल्कि पूरी तरह से अप्रत्याशित नई आपदा है। मार्च के पहले सप्ताह से शुरू हुए कोविड प्रकोप ने इस पूरे महीने में गति पकड़ी और अप्रैल के पहले दो हफ्तों में तेजी से बढ़ता चला गया, जो बाद में सुनामी बन गया। सिर्फ सात हफ्तों में, सुनामी, किसी भी प्रत्याशा से परे, बिहार में दैनिक नए मामलों में 522 गुना, उत्तर प्रदेश में 400 गुना, आंध्र में 186 गुना, दिल्ली और झारखंड में 150 गुना, बंगाल में 142 गुना और राजस्थान में 123 गुना वृद्धि हुई। यह पिछले साल कोविड-1.0 का दोहराव नहीं है। यह एक नया म्युटेंट भारतीय प्रारूप है जो प्रत्येक स्थान पर उत्पन्न हुई जहां कोविड-1.0 पहले आ चुका था। कोई भी विशेषज्ञ इसका अनुमान नहीं लगा सका। इस बाढ़ ने अस्पतालों और आइसीयू की सभी योजनाओं को ध्वस्त कर दिया।

राष्ट्रीय इच्छाशक्ति की आवश्यकता: वर्ममान में कोरोना संक्रमण की इस अभूतपूर्व सुनामी से निपटने के लिए एक साझा जिम्मेदारी और सामूहिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, न कि तथ्यों की अनदेखी करने या फिर उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करने और दोष को दूसरे के सिर मढ़ने की। कोविड जैसी राष्ट्रीय आपदा के समक्ष भी हमने सामूहिक इच्छाशक्ति की कमी को दिखाया, यह चिंता का विषय है। सरकार द्वारा आपातकालीन उपयोग के लिए मंजूर की गई कोवैक्सीन की विपक्षी दलों ने किस प्रकार ब्रांडिंग की, उससे बहुत कुछ उजागर हुआ। कांग्रेस नेताओं रणदीप सिंह सुरजेवाला, शशि थरूर, मनीष तिवारी और जयराम रमेश ने कोवैक्सिन के खिलाफ कोरस में नारेबाजी की। राजस्थान को छोड़कर, गैर-भाजपा शासित पंजाब, छत्तीसगढ़, केरल, बंगाल और झारखंड ने टीकों के बारे में लोगों के मन में संदेह पैदा किया।

परिणामस्वरूप लोगों में टीके के प्रति झिझक पैदा हुई। जनवरी में केवल 33 प्रतिशत लाभार्थी टीकाकरण के लिए तैयार थे, जबकि 40 प्रतिशत ने प्रतीक्षा करना पसंद किया और 16 प्रतिशत ने ‘नहीं’ कहा। मार्च में, इच्छुक लोग 57 प्रतिशत तक बढ़े, इंतजार करने वालों की संख्या आधी रह गई और नहीं कहने वाले छह प्रतिशत तक कम हो गए। हमारी 30 लाख की औसत दैनिक टीकाकरण क्षमता के बावजूद मार्च तक मात्र नौ करोड़ टीके प्रति माह लगाए जा सके, जिनमें पहली बार टीका लगवाने वाले केवल 10.8 करोड़ और दोनों डोज लेने वालों की संख्या 1.6 करोड़ थी। यदि वैक्सीन के प्रति हिचकिचाहट पैदा न की गई होती तो यह संख्या दोगुनी हो सकती थी। इतना ही नहीं, एक राष्ट्र के रूप में हमने अपनी रक्षा क्षमता को कम करके प्रदर्शित किया। जैसाकि गूगल के मोबिलिटी आंकड़ों से पता चलता है,

कोविड के जारी रहने के बावजूद हम लॉकडाउन से पूर्व की अवधि की तुलना में मनोरंजन में 78 प्रतिशत, पार्कों और सार्वजनिक स्थानों में 87 प्रतिशत और परिवहन में 92 प्रतिशत लगभग सामान्य जीवन जीने लगे। और वह भी ज्यादातर समय बिना शारीरिक दूरी के और बिना मास्क पहने। अब हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है जिसका सामना करने के लिए हमें सामूहिक राष्ट्रीय इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। क्या हम इसके लिए सक्षम हैं?

[संपादक, तुगलक पत्रिका व आर्थिक राजनीतिक मामलों के जानकार]

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