कमजोर धुरी पर टिकी विपक्षी एकता, एकजुटता के लिए सभी दलों का मजबूत होना जरूरी

दिल्ली आईं ममता बनर्जी यही दोहराती दिखीं कि सोनिया गांधी से उनके अच्छे रिश्ते हैं मगर राहुल को लेकर मौन रहीं। देश में अब तक अलग-अलग तरह के कई प्रयोग हो चुके हैं और किसी को कोई भ्रम नहीं है कि एकजुटता के लिए धुरी का मजबूत होना जरूरी है।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Fri, 06 Aug 2021 08:44 AM (IST) Updated:Fri, 06 Aug 2021 08:44 AM (IST)
कमजोर धुरी पर टिकी विपक्षी एकता, एकजुटता के लिए सभी दलों का मजबूत होना जरूरी
दस जनपथ की देहरी पर ममता बनर्जी।(फोटो: फाइल)

आशुतोष झा। मई के पहले सप्ताह में बंगाल चुनाव के नतीजे आए, जिसमें ममता बनर्जी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की और उसके साथ ही पूरे देश खासकर उत्तर भारत में भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी मोर्चा तैयार करने की बहस छिड़ गई। विपक्ष मजबूत रहे, यह लोकतंत्र के लिए अच्छा है, लेकिन रोचक बात यह है कि यह बहस राजनीतिक स्तर पर बाद में छिड़ी, इंटरनेट मीडिया पर पहले शुरू हो गई। बाद के दिनों में राजनीतिक स्तर पर भी हलचल दिखी। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और क्षेत्रीय राजनीतिक मजबूरी के बीच अक्सर फंसे दिखे शरद पवार ने दिल्ली में अपना प्रभुत्व दिखाने की कोशिश की और कांग्रेस को छोड़कर अन्य विपक्षी दलों और अलग-अलग क्षेत्र के लोगों के साथ राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा की। फिर ममता बनर्जी ने दिल्ली में अपनी धमक दिखाई, पर अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि इस कथित विपक्षी एका के लिए क्या दल वास्तव में तैयार हैं? वे दल कौन से हैं, जो इस मोर्चे का अंग हो सकते हैं? इस संभावित मोर्चे का स्वरूप क्या होगा? देश में अब तक अलग-अलग तरह के कई प्रयोग हो चुके हैं और किसी को कोई भ्रम नहीं है कि एकजुटता के लिए धुरी का मजबूत होना जरूरी है। फिलहाल क्षेत्रीय दलों की ओर से जिस तरह राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश हो रही है, उससे परिधि के मजबूत और धुरी के कमजोर होने का ही अहसास होता है।

विपक्षी एकजुटता की बात होते ही सबसे पहले 1977 ही उभरता है, जब आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं, बल्कि एक हो गया था। उस वक्त अभूतपूर्व स्थिति बनी थी। देश में आपातकाल लागू हो गया था। मूल अधिकार खत्म कर दिए गए थे, लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया था, विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्टों को जेल मे बंद कर दिया गया था। इन घटनाओं का प्रभाव राजनीति तक सीमित नहीं था। जनता के अंदर खौफ था। लिहाजा कुछ दल, जिनमें जनसंघ भी बड़ा घटक था, एक हो गए। इस विलय से दलों ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो दिया और नाम पड़ा जनता पार्टी। इस विपक्षी एकजुटता को जनता का समर्थन भी मिला था, लेकिन दक्षिण भारत में इसका असर नहीं दिखा। आपात स्थिति में अभूतपूर्व विलय के बावजूद आंतरिक दबाव भारी पड़ा और दो साल के अंदर सरकार चरमरा गई। जाहिर है आज के दिन ऐसी एकजुटता और ऐसे किसी विकल्प पर विचार संभव ही नहीं है। जनता पार्टी के असफल प्रयोग के बाद वह चाहे वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार हो या फिर 1996-98 तक दो प्रधानमंत्रियों के साथ चली संयुक्त मोर्चा सरकार, उसने बार-बार साबित किया कि धुरी कमजोर हो तो बिखरना तय है। एक और बात जो हर किसी के ध्यान में है कि विपक्ष एक स्वर से आवाज उठा रहा हो तो राजनीति पर असर कुछ और होता है। अगर अंदर से ही आरोप उठने लगें तो सरकार के लिए स्थिति विकट हो जाती है। बोफोर्स का जो भूत अब तक कांग्रेस के सिर से नहीं उतर पाया है, वीपी सिंह सरकार उसी की उपज थे, लेकिन उनकी सरकार बाहर से समर्थन दे रही भाजपा के रहमोकरम पर टिकी थी। वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर सरकार कांग्रेस की मोहताज बनी और वह चार माह भी नहीं चल सकी।

इसके कुछ अंतराल के बाद कांग्रेस की मेहरबानी से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार बार-बार ध्वस्त हुई। पहले देवगौड़ा की सरकार गई, फिर गुजराल सरकार। गुजराल सरकार महज इसलिए चली गई थी, क्योंकि जैन आयोग ने राजीव गांधी की हत्या के मामले में द्रमुक को कठघरे में खड़ा कर दिया, जो उस गठबंधन सरकार में शामिल था। यानी एक क्षेत्रीय दल पर आई आंच प्रधानमंत्री पर भारी पड़ी। वही कांग्रेस अब तमिलनाडु में द्रमुक की बगलगीर बनी हुई है।

इसमें शक नहीं कि अपनी राजनीतिक गति और रणनीति से चमक रही भाजपा के खिलाफ विपक्ष एकजुट होना चाहता है, लेकिन उसे इतिहास भी याद है और आज के दिन विचारधारा से लेकर रणनीति तक के स्तर पर आपसी टकराव की जानकारी भी। चुनाव पूर्व गठबंधन के साथ बनी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और फिर मनमोहन सिंह की दो सरकारों की सफलता जरूर उन्हें उत्साहित कर रही होगी, लेकिन तब और अब में एक बड़ा अंतर केंद्रबिंदु का ही है। दोनों के कार्यकाल में मुख्य पार्टी तो मजबूत थी ही, खुद नेतृत्व को लेकर गठबंधन में आपत्ति नहीं थी। वे स्वीकार्य थे। आज यही सबसे बड़ा सवाल है, जिसे साथी दलों को सबसे पहले सुलझाना होगा। हाल में दिल्ली आईं ममता बनर्जी बार-बार दोहराती दिखीं कि सोनिया गांधी से उनके अच्छे रिश्ते हैं, लेकिन राहुल गांधी के सवाल पर वह चुप ही रहीं। कांग्रेस के एक प्रवक्ता का यह बयान अवश्य आया कि नेतृत्व का सवाल बाद में आना चाहिए। बताने की जरूरत नहीं कि यह एकजुटता के लिए जरूरी मूल सवाल को टालने के अलावा और कुछ नहीं है।

काग्रेस के अंदर की समस्या अभी खत्म नहीं हुई है। औपचारिक नेतृत्व का बड़ा सवाल मुंह बाएं खड़ा है। चूंकि कांग्रेस में राहुल गांधी ही औपचारिक और अनौपचारिक नेता हैं इसलिए उन्होंने भाजपा के खिलाफ एकजुट रणनीति बनाने के लिए हाल में विपक्षी दलों को नाश्ते पर बुलाया। बसपा और आम आदमी पार्टी को छोड़कर 14 दल उपस्थित हुए। पहली बार तृणमूल कांग्रेस के नेता भी आए। यह कांग्रेस को उत्साहित कर रहा होगा, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सदन के अंदर तृणमूल ही सबसे उग्र विपक्षी दल दिखने की कोशिश कर रहा है। यह भी देखें कि एकजुटता की कोशिश में विपक्ष जनता के मुद्दे को ही भूल गया। न महंगाई मुद्दा बना, न कोरोना। बस वह पेगासस छाया रहा, जो विपक्ष को जोड़ने और जनता को आकर्षति करने का काम नहीं कर सकता।

(लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)

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