कश्मीर में नहीं है सामान्य हालात, मौजूदा हालातों से निपटने के लिए नए नेतृत्व की है दरकार

कश्मीर में वंशवादी प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करने के साथ ही घाटी में नए नेतृत्व को भी उभारना चाहिए।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 26 Apr 2019 07:46 AM (IST) Updated:Fri, 26 Apr 2019 07:46 AM (IST)
कश्मीर में नहीं है सामान्य हालात, मौजूदा हालातों से निपटने के लिए नए नेतृत्व की है दरकार
कश्मीर में नहीं है सामान्य हालात, मौजूदा हालातों से निपटने के लिए नए नेतृत्व की है दरकार

ब्रिगेडियर आरपी सिंह। बीते दिनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य के लिए अलग राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पदों की मांग कर चुनावी माहौल को और गर्म करने का काम किया। उनके पिता फारूक अब्दुल्ला भी यदा-कदा भारत विरोधी बयान देते आए हैं। 14 अप्रैल को ही फारूक ने कहा, ‘जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के हिस्से में जा रहा था और उनके पिता शेख अब्दुल्ला ने राज्य का भारत में विलय कराया।’ उनका यह बयान ऐतिहासिक रूप से गलत है, क्योंकि जम्मूकश्मीर के भारत में विलय में शेख अब्दुल्ला की कोई भूमिका नहीं थी। राज्य का भारत में विलय 26 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह द्वारा ‘विलय की संधि’ पर हस्ताक्षर से संभव हुआ था।

उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा मुफ्ती भी अनुच्छेद 35ए और धारा 370 को खत्म करने की स्थिति में गंभीर नतीजे भुगतने की खुलेआम धमकी दे रही हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा करते ही जम्मू-कश्मीर का भारत से रिश्ता खत्म हो जाएगा। वास्तव में जम्मूकश्मीर की समस्याओं की जड़ें तीन सियासी खानदान से जुड़ी हैं। एक नेहरू गांधी परिवार, दूसरा अब्दुल्ला परिवार और तीसरा मुफ्ती परिवार। समस्याओं का एक सिरा पाकिस्तान से भी जुड़ा है। 1946 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपने मित्र शेख अब्दुल्ला का खुला समर्थन किया। यह वही अब्दुल्ला थे जिन्होंने जिन्ना की मुस्लिम लीग की तर्ज पर 1932 में ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस की स्थापना की थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए अलग इस्लामी झंडा भी पेश किया। बाद में नेहरू के कहने पर उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ने के लिए अपने संगठन से मुस्लिम नाम हटाकर 1939 में उसे नेशनल कांफ्रेंस बना दिया। नाम बदलने के बाद भी उसका इस्लामी स्वरूप कायम रहा।

जब राज्य विरोधी गतिविधियों के कारण महाराजा हरि सिंह ने अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया तो उन्हें रिहा कराने के लिए नेहरू ने कश्मीर जाने का फैसला किया और वहां महाराजा के विरोध में उतर आए। यह एक भयावह भूल थी। डीपी मिश्रा को प्रेषित एक पत्र में सरदार पटेल ने लिखा, ‘उन्होंने (नेहरू) ने हाल में कई ऐसे काम किए जिससे हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। कश्मीर में उन्होंने जो कदम उठाए वे भावनात्मक आवेग का परिणाम हैं। इससे हालात दुरुस्त करने के लिए हम पर दबाव बढ़ गया है।’ सितंबर 1947 में हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय की पेशकश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि नेहरू न केवल अब्दुल्ला की रिहाई, बल्कि जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी भी चाहते थे। महाराजा को यह मंजूर न था।

पाकिस्तान ने सितंबर 1947 में जम्मू-कश्मीर पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी। पाकिस्तानी हमले की योजना से संबंधित एक पत्र गलती से मेजर कलकत के हाथ लग गया जो उस समय बन्नू में तैनात थे। वहां से भागकर वह दिल्ली आए और शीर्ष एजेंसियों को अवगत कराया। यह जानकर पटेल और तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह घुसपैठियों को रोकने के लिए जम्मू-कश्मीर सीमा पर सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने इन्कार कर दिया। जनमत संग्रह पर स्वीकृति और जम्मू-कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर ले जाना भी नेहरू की बड़ी गलतियां रहीं। अगर नेहरू ने अनावश्यक दखल न दिया होता तो आज समूचा जम्मू-कश्मीर भारत के पास होता। अपने रुख पर अड़े रहने के बाद अब्दुल्ला स्वतंत्र रूप से जम्मू-कश्मीर पर शासन करना चाहते थे और उन्होंने पाकिस्तान के साथ अपनी कड़ियां जोड़ लीं। जब नेहरू को उनकी गुप्त योजना की भनक लगी तो उन्हें भी अब्दुल्ला को जेल में डालना पड़ा।

अगस्त, 1953 में जब शेख अब्दुल्ला गिरफ्तार हुए तब फारूक की उम्र 16 साल थी। उन्हें अपने पिता की सभी योजनाओं की जानकारी थी। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी को पाकिस्तान को पूरी तरह बांट देने का एक बढ़िया अवसर मिला जब 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान के 93,500 सैनिकों ने ढाका में भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। इससे पाक सेना का मनोबल रसातल में था। अगर भारत उस लड़ाई को और 72 घंटे खींच देता तो गिलगित-बाल्टिस्तान सहित पाकिस्तान के कब्जे वाले पूरे कश्मीर को उसके चंगुल से छुड़ा लिया जाता। उन्होंने 1972 के शिमला समझौते में सैन्य मोर्चे पर मिली बढ़त को कूटनीतिक मेज पर तब गंवा दिया जब जम्मू-कश्मीर के स्थाई समाधान के लिए कोई दबाव नहीं बनाया।

इसके बाद 1975 में इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला समझौता उनकी एक और बड़ी भूल साबित हुई। इस समझौते के तहत शेख को जम्मूकश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया गया। यह समझौता कश्मीर के लिए विध्वंसक साबित हुआ, क्योंकि इससे जनमत संग्रह वाला गिरोह फिर से सक्रिय हो गया और इसका परिणाम राज्य में आंतरिक तबाही, अशांति और इस्लामीकरण के रूप में निकला। पाकिस्तानपरस्त लोगों को अहम पदों पर नियुक्त किया जाने लगा और पुलिस बल अल-फतह के शरारती तत्वों से प्रताड़ित होने लगा। शेख के निधन के बाद फारूक उनकी कुर्सी पर काबिज हो गए। उन्हें इंदिरा गांधी ने जुलाई 1984 में बर्खास्त कर दिया और उनके बहनोई जीएम शाह को मुख्यमंत्री बनाया। अक्टूबर 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने।

उन्होंने 1986 में शाह सरकार को बर्खास्त कर दिया और राजीव-फारूक समझौते के तहत फिर से फारूक अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाना तय किया। खुफिया एजेंसियों ने इसके लिए चेताया, लेकिन राजीव गांधी ने उनकी अनदेखी की। फारूक को सत्ता में लाने के लिए 1987 के चुनावों में धांधली हुई जिससे कश्मीरी युवाओं ने हथियार उठा लिए। 1989-90 में मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्रीय गृह मंत्री थे। कश्मीर के राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति वे नरम थे। 8 दिसंबर 1989 को मुफ्ती की बेटी रुबैया सईद का कथित अपहरण हुआ। रुबैया की रिहाई के एवज में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के 13 दुर्दांत आतंकियों को रिहा किया गया जिन्होंने अलगाववाद को भड़काने का काम किया।

एक अर्से से सीमा पार से कश्मीर में अलगाववादियों की मदद से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। कश्मीर में हालिया गतिरोध इन्हीं तत्वों की वजह से पैदा हुआ है। मोदी सरकार ने कई अहम कदम उठाए हैं जिनके चलते जम्मूकश्मीर में स्थाई समाधान के लिए कूटनीतिक और घरेलू स्तर पर अनुकूल माहौल बनने लगा है। पाकिस्तान की परमाणु धमकी की भी हवा निकल गई है। वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ा पाकिस्तान बालाकोट हमले के बाद सहम गया है। जनवरी 2018 के बाद से सुरक्षा बलों ने भी 300 से अधिक आतंकियों को निपटाकर वर्चस्व कायम किया है। अलगाववादी नेताओं के खिलाफ सख्ती और नियंत्रण रेखा पर हालात को संभालने के सकारात्मक परिणाम हासिल होंगे। वंशवादी प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए अगली सरकार को धारा अनुच्छेद 370 और 35ए को निश्चित रूप से समाप्त करना चाहिए। इसके साथ ही राज्य में नए नेतृत्व को भी उभारा जाना चाहिए और पुरानी भूलें नहीं दोहराई जानीचाहिए।

 (लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)

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