Death Anniversary of Nirala: रहस्य, अध्यात्म और यथार्थ से बनी निराला की लेखनी हिंदी साहित्य की अनुपम उपलब्धि

निराला की दृष्टि हमेशा भारतीय संस्कृति भारतीय जन और मन को अभिव्यक्त करने में ही लगी रही। जब वह ‘वर दे वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे! से मां सरस्वती का वंदन करते हैं तो भारत और उसकी दशा से उसे उबारने की कामना हैंं।

By Arun Kumar SinghEdited By: Publish:Thu, 14 Oct 2021 05:32 PM (IST) Updated:Thu, 14 Oct 2021 06:03 PM (IST)
Death Anniversary of Nirala: रहस्य, अध्यात्म और यथार्थ से बनी निराला की लेखनी हिंदी साहित्य की अनुपम उपलब्धि
छायावाद के आधार स्तंभों में एक सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

(डा.प्रतिभा राणा)। धूलि में तुम मुझे भर दो। धूलि-धूसर जो हुए पर, उन्हीं के वर वरण कर दो

दूर हो अभिमान, संशय,वर्ण-आश्रम-गत महामय,

जाति जीवन हो निरामय वह सदाशयता प्रखर दो।

फूल जो तुमने खिलाया,सदल क्षिति में ला मिलाया,

मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो |

इन पंक्तियों को पढ़ने मात्र से एहसास हो जाता है कि हिंदी साहित्य में छायावाद के आधार स्तंभों में एक सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ सच में कितने साधारण थे। इसी साधारणता से वह असाधारण रचनाओं का सृजन कर रहे थे। 15 अक्तूबर 2021 को हिंदी साहित्य के इस नक्षत्र की 60वीं पुण्यतिथि है| इनका स्वर्गवास इलाहाबाद के दारागंज मोहल्ले में सन 1961 में हुआ था।

बचपन से ही देखा संघर्ष

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म उस समय के बंगाल की महिषादल रियासत में 21 फरवरी 1899 में हुआ और जन्मकुंडली के अनुसार नाम रखा गया सुर्जकुमार। निराला जी के पिता पंडित रामसहाय तिवारी मूलतः उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के अंतर्गत पड़ने वाले गांव गढ़ाकोला के रहने वाले थे, जो महिषादल में सिपाही की नौकरी कर रहे थे। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’के बालमन ने संघर्ष को करीब से देखा था।

कम उम्र में हुआ माता-पिता का निधन

पिता की सीमित आय में घर खर्चा कठिनाई से चलता था, लेकिन आत्मसम्मान की रक्षा उन अभावों में भी कैसे हो ये निराला ने घर से ही सीखा था। मात्र तीन वर्ष के थे तो उनकी माता रुक्मणि देवी का देहांत हो गया। विपत्ति यहीं न रुकी बीस बरस का होते- होते पिता भी परलोक गमन कर गए।

पत्नी की हुई असमय मौत

उन दिनों बाल विवाह भी होते थे फलत: निराला का विवाह 14 वर्ष की आयु में मनोहरा देवी से कर दिया गया। वह नाम के अनुरूप सुंदर एवं विदुषी महिला थीं। कहते हैं हिंदी का बहुत सा ज्ञान निराला को उन्हीं के माध्यम से मिला। लेकिन सन 1918 में फैली इन्फ्लूएंजा बीमारी ने पत्नी समेत परिवार के बहुत से सदस्यों को असमय काल का ग्रास बनाया। निराला ने कुछ समय महिषादल के राजा के मातहत नौकरी भी की। बाद में रामकृष्ण मिशन से जुड़ गए, उनकी पत्रिका ‘समन्वय’ का सम्पादन किया।

हिंदी की सभी विधाओं में किया लेखन

निराला विवेकानंद के विचारों और उनके वेदांत दर्शन से बहुत प्रभावित थे। भारत में विवेकानंद पुस्तक का अनुवाद भी उन्होंने किया। उसी समय के दौरान 'मतवाला' पत्रिका कलकत्ता से प्रकाशित होती थी। 1923 में इसी पत्रिका में उनकी कविता 'जूही की कली' उनके पूरे नाम सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के साथ प्रकाशित हुई और तबसे वह निराला नाम से प्रसिद्ध हो गए।

1923 में उनका पहला काव्य संग्रह 'अनामिका' आया और 1930 में 'परिमल', फिर गीतिका, अनामिका द्वितीय, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नये पत्ते, गीत गूंज, सांध्य काकली आदि अनेक कविताएं एवं काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। दस उपन्यास, पांच कहानी संग्रह, निबंध, आलोचना, अनुवाद, बाल साहित्य, पुराण साहित्य सब विधाओं और विषयों पर निराला पैंतीस वर्षों से अधिक समयावधि तक लिखते रहे। राजकमल प्रकाशन से नंदकिशोर नवल के सम्पादन में आठ खंडों में निराला रचनावली भी प्रकाशित हुई है, इसमें निराला की सम्पूर्ण रचनाएं संकलित हैं|

कविताओं के माध्यम से की विद्रोह की बात

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की दृष्टि हमेशा भारतीय संस्कृति, भारतीय जन और मन को अभिव्यक्त करने में ही लगी रही। जब वह ‘वर दे वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे!' से मां सरस्वती का वंदन करते हैं तो मूल में भारत और उसकी दशा से उसे उबारने की कामना ही है। ‘वो तोड़ती पत्थर’ कविता में श्रम से उपजे सौन्दर्य को वो सबसे पहले महत्व देते हैं। वह यह भी जानते थे कि केवल एक ही विचारधारा के बूते परिवर्तन नहीं आ सकता तो विद्रोह की बात भी अपनी कविताओं के द्वारा करते हैं।

यहां भगवान राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी आम व्यक्ति की तरह हताश, निराश होते है- मात:, दशभुजा, विश्वज्योति, मैं हूं आश्रित; और तब शक्ति की परिकल्पना निराला करते हैं। उनका आशीर्वाद भी मिलता है- 'होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।' कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन। यह 'पुरुषोतम नवीन' भारत का जन-जन बन सकता है ऐसा विश्वास निराला जगाते हैं।

कठिनाइयों से आजीवन लोहा लेते रहे निराला

निराला उन व्यक्तित्वों में थे, जिन्होंने आजीवन संघर्ष ही किया। अनेक कठिनाइयों से लोहा लेते रहे जूझते रहे। अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु पर लिखी कविता उस पिता की मार्मिक अभिव्यक्ति है, जिसने जीवन को दुःख और संघर्ष से ज्यादा जाना है- दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही! अपनी पुत्री को दिया पिता का यह तर्पण हिंदी की ही नहीं मानव जीवन की भी मार्मिक अभिव्यक्ति है।

निराला की रचनाओं में है व्यापक भावबोध

निराला की रचनाओं में भावबोध है, चित्रण कौशल है जिसमें जगत का सजीव रूप है। छायावाद का प्राकृतिक सौन्दर्य है, उस सौन्दर्य के साथ प्रकृति की शक्ति भी है। जहां यथार्थ की बात करते हैं, वहां निडर होकर कबीर की तरह दो टूक शब्दों की सपाटबयानी भी है। भारतीय संस्कृति, आचार-विचार, पौराणिक पात्र, तत्कालीन समस्याएं, किसान जीवन और उसका संघर्ष, मजदूर की बात, स्त्रियों की बात- उनकी शक्तिरूपेण संस्थिता की बात, निजी जीवन का संघर्ष, जीविका का संघर्ष, अनेक तरह की जद्दोजहद के बीच आत्मसम्मान को बचाए रखना, निर्भीकता से अपनी बात कहना ही तो सूर्यकान्त त्रिपाठी को निराला बनाता है।

रहस्य, अध्यात्म और यथार्थ से बनी उनकी लेखनी हिंदी साहित्य की अनुपम उपलब्धि है। आजीवन संघर्षरत व्यक्ति के न टूटने की जिद निराला को विशेष बनाती है। जीवन के उतरार्ध की सांध्य बेला से वह अकेले होकर भी विचलित नहीं होते और मरण का भी स्वागत खुले शब्दों में करते हैं- मरण को जिसने वरा है, उसी का जीवन भरा है, परा भी उसकी, उसी के अंक सत्य यशोधरा है| उनकी यही जीवटता आज भी प्रेरणा है और आगे भी रहेगी। निराला मानव जीवन के विविध पक्षों पर जो भी चिंतन है, उसमें और रचनाओं में मौजूद व्यक्ति जीवन, मन, संघर्ष, पीड़ा, विद्रोह आदि में हमेशा प्रेरणादायक और प्रासंगिक रहेंगे।

(लेखिका दिल्ली के श्रद्धानंद कालेज में सहायक प्रोफेसर हैं)

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