राष्ट्रीय नामकरण आयोग के गठन की जरूरत है जो नामों को बदलने की नीति तैयार करे

केवल वोट के लोभ या दलीय हित का प्रसार करने की मंशा वाले नामों और नामकरण की परंपरा को सदा के लिए समाप्त करना चाहिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 16 Nov 2018 12:06 AM (IST) Updated:Fri, 16 Nov 2018 05:00 AM (IST)
राष्ट्रीय नामकरण आयोग के गठन की जरूरत है जो नामों को बदलने की नीति तैयार करे
राष्ट्रीय नामकरण आयोग के गठन की जरूरत है जो नामों को बदलने की नीति तैयार करे

[ शंकर शरण ]: मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब ने इलाहाबाद और फैजाबाद के नाम बदलकर प्रयागराज और अयोध्या किए जाने पर व्यंग्य किया है। उनसे आशा थी कि वह इस का स्वागत करेंगे, किंतु आम वामपंथियों की तरह हबीब में भी हिंदू-चेतना का विरोध ही सबसे प्रमुख जिद है। विदेशी आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा थोपे गए नाम हटाने का काम सारी दुनिया में होता रहा है। यहां तक कि देसी शासकों द्वारा किए गए जबरिया नामकरण भी बदले जाते रहे हैैं। कम्युनिज्म के पतन बाद रूस में लेनिनग्राड पुन: सेंट पीटर्सबर्ग और स्तालिनग्राड वोल्गोग्राद हो गया।

मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप में भी असंख्य शहरों, सड़कों के नाम बदले। दक्षिण अफ्रीका में तो एक हजार से भी अधिक स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें शहर ही नहीं, बल्कि सड़क, हवाईअड्डे, नदी, पहाड़, बांधों तक के नाम हैं। वहां इस विषय पर ‘दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफिकल नेम काउंसिल’ नामक एक सरकारी आयोग बना था। वस्तुत: ऐसे नाम-परिवर्तनों का एक गहरा सांस्कृतिक, राजनीतिक, व्यावहारिक, महत्व है। जो नाम जन-मानस को चोट पहुंचाते या लोगों को भ्रमित करते हैं उन्हें बदला ही जाना चाहिए। क्या बख्तियार खिलजी, मुहम्मद तुगलक, बाबर, औरंगजेब या डायर जैसे नाम भारतवासियों को चोट नहीं पहुंचाते? तुगलक वह विदेशी शासक था जो अपनी असीम क्रूरता के लिए कुख्यात हुआ। बाबर और औरंगजेब के कारनामों की पूरी सूची हिंदुओं को दमित, उत्पीड़ित और अपमानित करने से भरी है। ऐसे आतताइयों के नामों से अपनी पहचान जोड़ना भारत का दोहरा अपमान है।

प्रो. हबीब जैसे बुद्धिजीवी हिंदू चेतना की उपेक्षा करते हैं। वह हिंदू इतिहास की लीपापोती और मुस्लिम इतिहास पर रंग-रोगन इसलिए करते हैं ताकि इस्लामी साम्राज्यवाद की जरूरत के अनुसार उसे हमारे राष्ट्रीय इतिहास का अंग बताया जाए, किंतु भारतीय इतिहास के प्रति सही, संपूर्ण जानकारी और समझ रखना हिंदुओं लिए सबसे गंभीर मुद्दा है। नामकरण विवाद को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

इतिहासकार सीताराम गोयल ने लिखा है, हिंदू धर्म-समाज की एकता का एकमात्र स्रोत उसका समान इतिहास है। विशेषकर इस्लामी और ब्रिटिश साम्राज्यवादों के विरुद्ध लड़े गए स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास। लंबे समय से हिंदू अपने आध्यात्मिक केंद्र की वह चेतना खो चुके हैं जो पहले उनके समाज, संस्कृति और जीवन-पद्धति को एक रखती थी। यदि हिंदू अपने इतिहास की चेतना भी खो देते हैं तो उन्हें एक करने वाली कोई ठोस चीज नहीं रहेगी। इसीलिए हिंदू-विरोधी बौद्धिक हमारे इतिहास पर इतनी कुटिल नजरें गड़ाए हैं। सौभाग्यवश हिंदुओं को अपने महान अतीत पर अभी भी गर्व है।

हिंदू समाज ने मानवता की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक संपदा में बड़ा योगदान दिया। वह आज भी अपने महान ऋषियों, संतो, वैज्ञानिकों, विद्वानों और योद्धाओं की स्मृति के प्रति श्रद्धावान है। उसे वह संकट काल याद है जब सदियों तक विदेशी आक्रमणकारी दस्तों से कठिन और अंतहीन लड़ाई लड़नी पड़ी थी। उन आक्रमणकारियों ने बड़े पैमाने पर हत्याएं कीं और लोगों को लूटा, गुलाम बनाया। साथ ही बलपूर्वक धर्मांतरण कराकर अपने किस्म की बर्बरता भी थोपी। इसका दंश आज भी झेलना पड़ा रहा है।

इतिहास की यही समान स्मृति हिंदू समाज को खिलजियों, तुगलकों, बहमनियों, सैयदों, लोदियों और मुगलों को देसी शासक मानने से रोकती है। यहां के देसी शासक मौर्य, शुंग, गुप्त, चोल, मौखारी, पाल, राष्ट्रकूट, यादव, मराठे, सिख, जाट आदि रहे हैं। इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध करने वाले काबुल के जयपाल शाहिया, गुजरात की महारानी नायकीदेवी, दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान, कन्नौज के जयचंद्र हड़वाल, देवगिरि के सिंघनदेव, आंध्र के प्रलय नायक, विजयनगर के हरिहर और बुक्का और कृष्णदेवराय, महराणा सांगा, प्रताप, शिवाजी, बंदा बहादुर, महाराजा सूरजमल और रणजीत सिंह-ये सभी देशभक्त और स्वतंत्रताप्रेमी थे। इन्हें ‘निजी स्वार्थों के लिए लड़ने वाले’ स्थानीय सरदार कहना हिंदू चेतना को तोड़ने की कोशिश है, जो प्रो. हबीब जैसे माक्र्सवादी इतिहासकार दशकों से कर रहे हैं।

फिर भी हिंदू समाज इन नायकों का इस्लामी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने वाले योद्धाओं के रूप में सम्मान करता है। यही वह चीज है जो हमारे वामपंथी, सेक्युलर, इस्लामी बुद्धिजीवियों के लिए समस्याएं खड़ी करती है। वे इस्लाम से पहले के भारत पर गर्व करने या तबके महान योद्धाओं का आदर करने के लिए राजी नहीं हैं। वे चाहते हैं कि हिंदू भी इस्लाम से पहले के भारत को ‘अंधकार का युग’ माने। इसके साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी, अल्लाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद तुगलक, सिकंदर लोदी, बाबर, औरंगजेब और अहमद शाह अब्दाली जैसे अपराधियों, गुंडे-गिरोहों, सामूहिक हत्यारों और आततायियों का सम्मान हिंदू भी करें।

वे यह भी चाहते हैं कि मध्यकाल के हिंदू वीरों को असंसुष्ट विद्रोही मान कर निंदित किया जाए, जिन्होंने यहां इस्लामी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध किया और अंतत: उसे उखाड़ फेंका। वे जिद करते हैं कि यहां इस्लामी साम्राज्यवाद को फिर से जमाने की कोशिश करने वाले शाह वलीउल्ला, अली बंधुओं जैसे अलगाववादियों या हिंदुओं की हत्याएं करने वाले वहाबियों, मोपलाओं या देश तोड़ने वाले जिन्ना को भी स्वतंत्रता सेनानी कहकर आदर करें।

नामकरण पर विवाद खड़ा करना केवल ऊपरी बात नहीं है। यह संस्कृति के क्षेत्र में तमाम हिंदू चेतना को निरंतर तोड़ने की मांग का हिस्सा है। इसीलिए यहां हर तरह के हिंदू-विरोधी बुद्धिजीवी संस्कृत, प्राकृत और प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत के देशी साहित्य के प्रति यदि घृणा नहीं तो बेरुखी जरूर रखते हैं। आक्रमणकारियों द्वारा थोपे गए नामों को आदर देने की जिद इसी मानसिकता का एक अंग है, लेकिन वस्तुत: यह भारत के हिंदुओं का अपमान है। यह भारत के स्वाभिमान को न केवल चोट पहुंचाता है, बल्कि हमारी नई पीढ़ियों को अज्ञानी और अचेत भी बनाता है।

देश की राजधानी दिल्ली के सबसे सुंदर मार्गों पर तुगलक, लोदी, बाबर आदि अनगिनत इस्लामी आक्रमणकारियों के नाम सजे हुए हैं। जबकि विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, कृष्णदेवराय, राणा सांगा, हेमचंद्र, हरिहर, बुक्का, रानी पद्मिनी, गोकुला, चंद्र बरदाई, आल्हा-ऊदल, जैसे अनूठे ऐतिहासिक सम्राटों, राजाओं, योद्धाओं के नाम गायब हैं। ये अपने व्यक्तित्व और कार्य में अनूठे रहे हैं। इनके नाम और काम से हिंदू नई पीढ़ियों को वंचित रखना हिंदू समाज को तोड़ने की सचेत कोशिश है। नगरों, सड़कों, भवनों, परियोजनाओं आदि के नामकरण के प्रति एक सुविचारित राष्ट्रीय नीति की जरूरत है। कोई राष्ट्रीय आयोग बनना चाहिए जो किसी सुसंगत सिद्धांत के अंतर्गत ऐसे सभी नामों को बदलने और आगामी नामकरणों की नीति तय करे। केवल वोट के लोभ या दलीय हित का प्रसार करने की मंशा वाले नामों और नामकरण की परंपरा को सदा के लिए समाप्त करना चाहिए।

[ लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैैं ]

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