राजनीति को केंद्र में रखकर पटल पर उतारी जा रही वेबसीरीज, बचकानी गलतियों से बचें फिल्मकार

हाल में राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी दो वेबसीरीज ‘महारानी’ और ‘द फैमिली मैन’ आई। ‘महारानी’ बिहार की राजनीति को केंद्र में रखती है। ये कहानी लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की कहानी से प्रेरित है। इसमें बिहार की राजनीति के खूनी दौर को रेखांकित किया गया है।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Publish:Sun, 13 Jun 2021 12:22 PM (IST) Updated:Sun, 13 Jun 2021 12:22 PM (IST)
राजनीति को केंद्र में रखकर पटल पर उतारी जा रही वेबसीरीज, बचकानी गलतियों से बचें फिल्मकार
हाल में राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी दो वेबसीरीज, ‘महारानी’ और ‘द फैमिली मैन’ आई।

नई दिल्ली, [अनंत विजय]। हाल में राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी दो वेबसीरीज, ‘महारानी’ और ‘द फैमिली मैन’ आई। ‘महारानी’ बिहार की राजनीति को केंद्र में रखती है। ये कहानी लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी की कहानी से प्रेरित है। इसमें चारा घोटाला से लेकर बिहार की राजनीति के खूनी दौर को भी रेखांकित किया गया है। इसके कुछ दिन पहले एक वेब सीरीज और आई थी जिसका नाम था ‘तांडव’। इस वेब सीरीज की कहानी भी राजनीति को केंद्र में रखती है। इसके कुछ दृश्यों को लेकर भारी विवाद हुआ था और मामला कोर्ट में भी पहुंचा था।

इसी दौरान एक दलित महिला के जीवन के संघर्षों पर आधारित एक फिल्म आई थी ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ । इसकी कहानी एक दलित महिला के इर्द गिर्द घूमती है जो एक दिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनती हैं। उपरोक्त तीनों वेब सीरीज का अगर हम विश्लेषण करें तो ये स्पष्ट होता है कि राजनीतिक घटना या चरित्रों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना बेहद श्रमसाध्य काम है। लेखक और निर्देशक के लिए यह बहुत आवश्यक होता है कि उसको राजनीति की बारीकियों की समझ हो, संसदीय परंपरा का ज्ञान हो, दलीय परंपरा और अफसरशाही की कार्यशैली के बारे में जानकारी हो।

‘महारानी’ वेबसीरीज को देखें तो लेखक और निर्देशक दोनों एक पर एक बचकानी गलतियां करते चलते हैं। इस सीरीज में रानी भारती सरकार के खिलाफ चार-पांच महीने के अंदर ही दूसरा अविश्वास प्रस्ताव आ जाता है। जबकि हमारे देश की संसदीय व्यवस्था में किसी भी सरकार के खिलाफ दो अविश्वास प्रस्ताव के बीच का अंतराल छह महीने से कम नहीं होता। इसमें ही निर्देशक ये दिखाता है कि राज्य का वित्त सचिव अकेले ही छानबीन करने पहुंच जाता है। जिलाधिकारी जब दस्तावेज देने में बहानेबाजी करते हैं तो वो रात में अपने एक सहयोगी के साथ उनके आफिस पहुंच जाते हैं और चौकीदार को चकमा देकर कार्यालय का ताला तोड़कर उसमें घुसते हैं। वहां उनपर गोली चलती है, वित्त सचिव बच जाते हैं, लेकिन किसी को कानोंकान खबर नहीं होती।

ये सारी घटनाएं इतनी बचकानी हैं कि इसको काल्पनिक कारर देकर भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

इसी तरह से ‘तांडव’ वेब सीरीज में एक प्रसंग है जहां एक ब्लैकमेलर बड़े आराम से नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक के इलाके में आता है और कूड़ेदान में कोई सामान रखकर चला जाता है। नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक दिल्ली का वो इलाका है जहां प्रधानमंत्री कार्यालय है, वित्त मंत्रालय, रक्षा और गृह मंत्री का दफ्तर है। ये इलाका बेहद सुरक्षित है जो चौबीस घंटे सुरक्षा बलों की निगरानी में रहता है और वहां आसानी से कोई सामान रखकर चला जाए ये आसान नहीं। इस तरह के कई प्रसंग ‘तांडव’ में हैं जो ये संकेत देते हैं कि लेखक को इन विषयों की बारीकियों की जानकारी नहीं है या उसने लापरवाही में वो सब प्रसंग लिखे या पर्याप्त शोध नहीं किया।

अपेक्षाकृत ‘द फैमिली मैन’ की घटनाएं और प्रसंग यथार्थ के ज्यादा करीब प्रतीत होती हैं। इसमें लेखक ने दृश्यों को लिखने के पहले उस विषय के बारे में सूक्ष्मता से अध्ययन किया और फिर लिखा है। चाहे वो प्रधानमंत्री के साथ खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की बैठक का संवाद हो या फिर सुरक्षा संबंधी तैयारियों का विवरण हो।

दरअसल जब फिल्मों या वेब सीरीज का लेखन होता है तो इसके ज्यादातर लेखकों से एक चूक होती है कि वो पहले क्लाइमैक्स सीन सोच लेते हैं और फिर वहां तक पहुंचने का रास्ता तलाशते हैं। क्लाइमैक्स को सही ठहराने के लिए कहानी में इससे जुड़े प्रसंग ठूंसे जाते हैं। ‘महारानी’ में भी ये दिखता है कि लेखक ने पहले ही तय कर लिया कि भीमा भारती को चारा घोटाले के लिए परिस्थिति और राज्यपाल ने मजबूर किया था। फिर उसके हिसाब से कहानी गढ़ी गई जो अविश्वसनीय हो गई। दरअसल कहानी लेखन की यह प्रविधि ही दोषपूर्ण है। इन राजनीतिक वेब सीरीज या हाल की फिल्मों को देखकर ये लगता है कि हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह भ्रष्ट है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के सभी वर्गों को न्याय मिल पाए ये संभव ही नहीं है। ज्यादातर अज्ञानतावश और कुछ एजेंडा के तहत देश की व्यवस्था और संसदीय प्रणाली को भी नकार दिया जाता है।

दरअसल राजनीति पर फिल्म बनाना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। रोमांटिक फिल्में बनाना, घटना प्रधान फिल्में बनाना, धार्मिक फिल्में बनाना अपेक्षाकृत आसान हैं। जब आप राजनीति पर फिल्म बनाते हैं तो आपकी कल्पनाशक्ति और यथार्थ को कहने की संवेदना की परीक्षा होती है। आपको दोनों के बीच संतुलन कायम रखना पड़ता है। इस संदर्भ में मुझे याद पड़ता है गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ । आंधी की नायिका में इंदिरा गांधी की छवि देखी गई थी। उनकी वेशभूषा से फिल्मकार ने भी यही छवि गढ़ने की कोशिश भी की थी। इस फिल्म की नायिका मालती देवी का जो महात्वाकांक्षी चरित्र गुलजार ने गढ़ा वो यथार्थ के बहुत करीब दिखता है। वो चरित्र स्वार्थी और महात्वाकांक्षी तो है लेकिन अपने परिवार के साथ जब होती है तो उसकी संवेदना को भी फिल्मकार उभारते हैं।

यह कौशल ही फिल्मकार को भीड़ से अलग करता है। इसी तरह फिल्म ‘आंधी’ में हमें संसदीय व्यवस्था के बारे में कोई गलती, बचकानी गलती नजर नहीं आती है। मालती देवी जब विपक्ष के नेता चंद्रसेन से या अपने चुनावी सलाहकार लल्लू बाबू से संवाद करती हैं तो उसमें कोई झोल नहीं है। बेहद सधा हुआ और तथ्यों से तालमेल के साथ संवाद और कहानी दोनों आगे बढ़ती है। ‘आंधी’ के अलावा पिछले दिनों प्रकाश झा ने कुछ अच्छी राजनीतिक फिल्में बनाई हैं।

प्रकाश झा की फिल्मों में राजनीति या संसदीय व्यवस्थाओं की बारीकियों को लेकर कोई झोल नहीं होता है। प्रकाश झा व्यवस्था की खामियों पर चोट करते हैं लेकिन संसदीय व्यवस्था को नकारते नहीं हैं। फिल्मकारों और वेब सीरीज निर्माताओं को राजनीति या राजनीतिक घटनाओं पर फिल्म बनाते समय इसकी बारीकियों और घटनाओं का ध्यान रखना आवश्यक होता है अन्यथा उनका स्थायी महत्व नहीं बन पाता। वो बस आई गई फिल्म या वेब सीरीज की श्रेणी में बद्ध होकर रह जाते हैं।

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