फिल्म चयन की पारदर्शिता पर उठे सवाल, सरकार संस्था की मान्यता पर करें पुनर्विचार

आस्कर के लिए भेजी जानी वाली फिल्मों के चयन को लेकर बहुधा विवाद होते रहते हैं। इस वर्ष भी हुआ। इस वर्ष फिल्म फेडरेशन ने तमिल फिल्म ‘कुझंगल’ का चयन किया और हिंदी फिल्म ‘सरदार उधम’ को नहीं भेजा गया।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Publish:Sun, 07 Nov 2021 08:51 AM (IST) Updated:Sun, 07 Nov 2021 08:51 AM (IST)
फिल्म चयन की पारदर्शिता पर उठे सवाल, सरकार संस्था की मान्यता पर करें पुनर्विचार
फिल्मों से जुड़ी एक संस्था है जिसका नाम है फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया (एफएफआई)।

नई दिल्ली [अनंत विजय]। फिल्मकारों और फिल्मों से जुड़ी एक संस्था है जिसका नाम है फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया (एफएफआई)। अन्य कामों के अलावा ये संस्था हमारे देश की उस फिल्म का चयन भी करती है जो आस्कर अवार्ड के लिए भेजी जाती है। आस्कर के लिए भेजी जानी वाली फिल्मों के चयन को लेकर बहुधा विवाद होते रहते हैं। इस वर्ष भी हुआ। इस वर्ष फिल्म फेडरेशन ने तमिल फिल्म ‘कुझंगल’ का चयन किया और हिंदी फिल्म ‘सरदार उधम’ को नहीं भेजा गया। तर्क ये दिया गया कि फिल्म सरदार उधम बहुत लंबी है और इसमें अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव दिखाया गया है।

वैश्वीकरण के इस दौर में घृणा का ये भाव अपेक्षित नहीं है। किसी फिल्म को आस्कर में नहीं भेजने के ये कारण समझ से परे है। स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म शिंडलर्स लिस्ट जिसने आस्कर में कई पुरस्कार जीते थे वो तीन घंटे से अधिक अवधि की फिल्म है। इस फिल्म की लंबाई पर कभी आस्कर की जूरी ने सवाल नहीं उठाया। इस फिल्म को लेकर कभी प्रश्न नहीं उठा कि इसमें नाजियों का चित्रण आपत्तिजनक है। इसके अलावा फिल्म गान विद द विंड की लंबाई भी तीन घंटे अट्ठावन मिनट थी। फिल्म मेरा नाम जोकर की लंबाई के बारे में सबको ज्ञात ही है।

इस फिल्म की अवधि इतनी अधिक थी इसमें दो मध्यांतर थे। हमारे यहां से भी पूर्व में कई ऐसी फिल्में हैं जो आस्कर में भेजी जा चुकी है जो फिल्म सरदार उधम से लंबी है। इसलिए एफएफआई की तरफ से जो तर्क दिए गए वो बचकाने तो हैं ही अपने देश के इतिहास को भी सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देखने के दोष का शिकार हो गया। जलियांवाला बाग नरसंहार का जब चित्रण होगा तो उसको इसी तरह से देखा जाएगा। दरअसल इस तरह की बचकानी दलीलों की वजह से एफएफआई की साख लगातार छीजती चली गई है। आज भले ही ये संस्था दावा करे कि वो भारतीय फिल्मकारों की प्रतिनिधि संस्था है लेकिन वर्तमान दौर के बड़े फिल्मकार या तो इससे जुड़े नहीं हैं या यहां सक्रिय नहीं हैं। भारत सरकार को इस संस्था को मान्यता पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है।

आस्कर में भारतीय फिल्म की प्रविष्टि को लेकर विवाद अभी ठंडा भी हुआ नहीं था कि एक और विवाद सामने आ गया है। इसमें भी फिल्म फेडरेशन का नाम आ रहा है। ये विवाद उठा है गोवा में आयोजित होने वाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (आईआईएफआई) के दौरान दिखाई जाने वाली एक फिल्म डिक्शनरी को लेकर। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया का आयोजन गोवा में 20 से 28 नवंबर तक है। इसका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एक संस्था फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस अंतराष्ट्रीय फेस्टिवल के दौरान इंडियन पैनोरमा के अंतर्गत दिखाई जाने ली फिल्मों की सूची जारी की गई। इस सूची में आमतौर पर चौबीस फिल्में होती हैं जो फेस्टिवल के दौरान दिखाई जाती हैं।

इन फिल्मों का चयन एक जूरी करती है। जूरी सदस्यों और अध्यक्ष का चयन फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस बार भी बारह सदस्यों की एक जूरी ने इंडियन पैनोरमा के तहत दिखाई जानेवाली फिल्मों का चयन किया। इस जूरी के अध्यक्ष कन्नड फिल्मकार एस वी राजेन्द्र सिंह बाबू थे। राजेन्द्र सिंह बाबू के बारे में बताते चलें कि उन्होंने पिछले चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए चुनाव प्रचार किया था। उनकी अध्यक्षता वाली जूरी ने 24 फिल्मों का चयन किया और अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी।

जब निदेशालय ने इंडियन पेनोरामा के फिल्मों की घोषणा की तो उसमें 24 की जगह 25 फिल्मों के नाम थे। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में मंत्री ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी को इसमें शामिल किया गया। जब इस बारे में जानकारी ली गई तो पता चला कि फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया ने एकमात्र इसी फिल्म की संस्तुति की थी और इंडियन पैनोरमा के नियमों के अंतर्गत फिल्म समारोह निदेशालय की आतंरिक समिति ने इस फिल्म का चयन किया।

यहां तक तो सबकुछ सामान्य लगता है कि एफएफआई ने एकमात्र फिल्म की संस्तुति की और निदेशालय की समिति ने उसका चयन कर लिया। लेकिन इसके तह में जाने पर एक असामान्य कहानी सामने आई। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री और फिल्मकार ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी की प्रविष्टि इंडियन पैनोरमा के लिए आई थी। इंडियन पैनोरमा की जूरी ने आरंभिक दौर में ही इस फिल्म को देखकर उसको फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शित करने योग्य नहीं पाया। इस बीच फिल्म फेडरेशन ने डिक्शनरी को लेकर अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी। निदेशालय की आतंरिक कमेटी ने इसका चयन कर 25 फिल्मों की सूची जारी कर दी।

ये ज्ञात नहीं हो सका कि निदेशालय ने फिल्म फेडरेशन से ये बात जाननी चाही कि नहीं उनकी तरफ से एकमात्र फिल्म की संस्तुति ही क्यों आई, जबकि आमतौर पर वो पांच फिल्मों की संस्तुति करते हैं। नतीजा यह हुआ कि एक ऐसी फिल्म जिसको जूरी ने रिजेक्ट कर दी थी वो प्रदर्शित होने वाली फिल्मों की सूची में आ गई। प्रश्न ये उठता है कि अगर इस तरह की कार्यप्रणाणी है तो फिर जूरी की राय का क्या अर्थ है? क्यों बीस पच्चीस दिन तक जूरी के सदस्य दो सौ बीस फिल्मों को देखकर उसमें से 24 फिल्मों का चयन करते हैं। हर फिल्म पर माथापच्ची होती है। फिल्म समारोह निदेशालय को इस पूरे प्रकरण पर स्थिति साफ करनी चाहिए। फिल्मों के चयन को लेकर पारदर्शिता होनी चाहिए अन्यथा चयन की प्रक्रिया से फिल्मकारों का विश्वास डिग जाएगा।

इसके पहले भी फिल्म समारोह निदेशालय के फैसलों को लेकर विवाद होते रहे हैं। 2017 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड के प्रदर्शन को लेकर अच्छा खासा विवाद उठा था। फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने के फैसले के खिलाफ जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। उनका कहना था कि बिना उनको बताए इन फिल्मों को प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों की सूची से बाहर कर दिया गया । ऐसी अप्रिय स्थिति इस बार भी हो सकती है कि जूरी के अध्यक्ष या सदस्य इस बात को लेकर इस्तीफा दे दें कि उनकी राय के खिलाफ फिल्म का प्रदर्शन होने जा रहा है। एस दुर्गा के प्रदर्शन को लेकर तो विवाद इतना बढ़ा था कि इस फिल्म के निर्माता सूचना और प्रसारण मंत्रालय के खिलाफ केरल हाईकोर्ट चले गए थे। उस वक्त भी फिल्म समारोह निदेशालय की कार्यपद्धति को लेकर सवाल उठे थे।

अब एक बार फिर से नियमों की आड़ में एक ऐसी फिल्म को जोड़ा गया जिसको जूरी ने खारिज किया था। विवाद बढ़ने के बाद अगर निदेशालय इस फिल्म को सूची से हटाती भी है तो उससे एक राजनीतिक विवाद जन्म ले सकती है। ममता बनर्जी की पार्टी को भारतीय जनता पार्टी पर या मोदी सरकार पर निशाना साधने का एक मौका मिल जाएगा। वो ये आरोप लगा सकती हैं कि उनकी पार्टी के नेता की फिल्म को जानबूझकर हटा गया। एक ऐसा मुद्दा खड़ा हो सकता है जिसमें राजनीति नहीं है सिर्फ अफसरों की लापरवाही या कुछ और है।

केंद्र सरकार ने कुछ दिनों पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्रालय की फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं के पुनर्गठन की बात की थी, अब वक्त आ गया है कि उस घोषणा पर अमल किया जाए। फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं का पुनर्गठन हो और नियमों को पारदर्शी बनाकर जिम्मेदारियां भी तय की जाएं ताकि भविष्य में विवाद न हों और फेस्टिवल की लोकप्रियता भी बढ़े।

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