देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए प्रमुख चुनौती के रूप में उभरे नक्सलवाद पर जड़ से प्रहार करने का समय

देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक प्रमुख चुनौती के रूप में उभरे नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार को कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे और सरकारें यह करती भी आ रही हैं। हिंसा का अधिक प्रभावी प्रत्युत्तर भी देना होगा ताकि एक ‘स्पष्ट संदेश’ जाए

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 12 Apr 2021 09:55 AM (IST) Updated:Mon, 12 Apr 2021 10:02 AM (IST)
देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए प्रमुख चुनौती के रूप में उभरे नक्सलवाद पर जड़ से प्रहार करने का समय
आदिवासी बच्चों और महिलाओं के साथ र्दुव्‍यवहार नक्सलवाद का अंग बन गया।

सन्नी कुमार। अपनी राष्ट्रीय सीमा के भीतर भारत ने अनेक अलगाववादी प्रतिरोधों की पीड़ा झेली है, लेकिन इनमें से कोई भी नक्सलवाद जैसी वीभत्स, हिंसक और जटिल चुनौती नहीं रही है। वीभत्स इसलिए कि घात लगाकर सैन्य बलों की निर्मम हत्या करना ही इसकी मुख्य कार्यशैली है। हिंसक इसलिए कि सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से राज्य पर कब्जा जमाना इसका घोषित उद्देश्य है और जटिल इसलिए कि एक निíमत और सहयोगी बौद्धिक वर्ग द्वारा राज्य की ही मशीनरी का उपयोग कर राज्य के विरुद्ध संचालित इस हिंसक आंदोलन को ‘वंचना के स्वाभाविक विस्फोट’ के रूपक के माध्यम से संरक्षित करने का प्रयास करना।

बीते दिनों छत्तीसगढ़ के बीजापुर में हुए नक्सली हमले में यह बात एक बार फिर प्रमाणित हो गई कि पांच दशक से भी ज्यादा समय बीतने के बावजूद इसके ‘मूल सिद्धांत’ में कोई बदलाव नहीं आया है। राज्य की प्रतिक्रिया तेज होने पर इस हिंसक प्रयास के ‘प्रभाव’ में जरूर कमी आ जाती है, किंतु एक प्रवृत्ति के रूप में यह दशकों से विद्यमान है। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो पिछले तीन वर्षो से इसका प्रभाव कम हुआ था। वर्ष 2017 में जहां कुल 908 नक्सली हमलों में 188 नागरिकों और 75 सैन्य बलों की जानें गईं, वहीं 2018 के 833 नक्सली हमलों के लिए यह आंकड़ा क्रमश: 173 व 67 था तो 2019 में हुए कुल 670 नक्सली हमलों में 150 नागरिकों और 52 जवानों को मृत्यु हुई थी। वर्ष 2010 से तुलना करें तो नक्सली हमलों में प्रभावी कमी नजर आती है। वर्ष 2010 में 2,213 नक्सली हमलों में 720 आम नागरिक तथा 285 सुरक्षा बलों को जान गंवानी पड़ी थी। ये आंकड़े नक्सली आंदोलन की विभीषिका बताने के लिए पर्याप्त हैं।

वैचारिक धूर्तता पर टिका हिंसक आंदोलन : इस बात को समझने की आवश्यकता है कि जिन कारणों को नक्सलवाद के समर्थक गिनाते हैं उसका अब नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। नक्सली अपनी हिंसक कार्रवाइयों की नैतिक वैधता लेने के लिए इन कारणों को गिनाते हैं। नक्सली आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी तर्क देते हैं कि विकास के वर्तमान मॉडल ने आदिवासियों और वंचितों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। आदिवासियों को न केवल उनके संसाधनों से वंचित किया गया, बल्कि उन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने के लिए भी विवश किया गया। नक्सली आंदोलन को ताíकक ठहराने वाले कहते हैं कि अत्यधिक अभाव में जी रहे इन वर्गो को जब विशेष सरकारी संरक्षण की आवश्यकता थी तब इन्हें सरकारी असहयोग का सामना करना पड़ा। इस प्रकार शासन का जो शून्य उत्पन्न हुआ उसे नक्सलियों ने भरा। यह समुदाय जब राज्य के निर्धारित ढांचे के माध्यम से अपनी बात नहीं कह पाते तो अन्य रास्ता तलाश लेते हैं। इन्हीं कुछ आधारों पर नक्सलवाद को जायज ठहराने की कोशिश की जाती है। लेकिन यह हिंसा को छिपाने की बौद्धिक चतुराई से अधिक कुछ नहीं है।

यदि नक्सलवाद इस स्थिति में सुधार का पक्षधर होता तो वह विकास कार्यो को तेज करने की मांग करता, लेकिन नक्सली न केवल अवसंरचना विकास को बाधित करते हैं, बल्कि स्कूल व अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं की पहुंच भी बाधित करते हैं। गरीबों का मसीहा बनने वाले नक्सली हर उस सरकारी प्रयास को रोकते हैं जिससे नागरिकों का जीवन स्तर बेहतर होता है। इतना ही नहीं, चुनाव प्रक्रिया को बाधित कर वो नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने से रोकते हैं। नक्सल संगठनों के सदस्य आदिवासियों के अर्थतंत्र और संस्कृति के रक्षक होने का दावा करते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि उन संसाधनों पर इन्होंने कब्जा कर लिया और आदिवासियों को उसकी पहचान बदलने के लिए दबाव डाल रहे हैं। नक्सलियों ने बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों के साप्ताहिक बाजार को लूटा, विवाह आदि की परंपरा को छोड़ने के लिए दबाव डाला, यहां तक की उनकी अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार तेंदू पत्ता के आíथक उपयोग से आदिवासियों को वंचित कर दिया। आदिवासी बच्चों और महिलाओं के साथ र्दुव्‍यवहार नक्सलवाद का अंग बन गया।

इन्हीं स्थितियों से ‘सलवा जुडुम’ जैसा प्रतिरोध नक्सलवाद के विरुद्ध उभरा था जिसे नक्सलवाद का बौद्धिक समर्थन कर रहे वर्ग ने राज्य की मशीनरी यथा-अदालत और मानवाधिकार आयोग आदि के सहारे विरोध किया। मूल बात यह है कि चाहे जिस उद्देश्य से नक्सलवाद शुरू हुआ हो, लेकिन अब इसका एकमात्र लक्ष्य हिंसक क्रांति के माध्यम से राज्य पर अधिकार करना है। और किसी भी स्थिति में इस विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता।

समाधान की राह : चूंकि नक्सलवाद कई राज्यों में फैला हुआ है और साथ ही लोक-व्यवस्था राज्य का विषय है, इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए राज्यों के बीच उचित समन्वय का निर्माण करना होगा। खासकर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य जो इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं, वहां एक बेहतर समन्वय ही सही परिणाम दिला सकता है। दूसरी तरफ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास की योजनाएं पहुंचानी होंगी। सिर्फ यही एक तरीका है जिससे नक्सलियों का बचा खुचा जनसमर्थन भी समाप्त किया जा सकेगा। एक बार जब नागरिक मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे तो हिंसक आंदोलन से उनका मोहभंग होगा। इसके अतिरिक्त, आत्मसमर्पण के लिए तैयार नक्सलियों के बेहतर पुनर्वास की योजनाएं बनानी होंगी। देश के प्रबुद्ध और आमजन दोनों तबकों को नक्सलवाद के समर्थन में प्रस्तुत किए जाने विचार का ताíकक खंडन प्रस्तुत करना होगा। इससे यह तो होगा ही कि हिंसा को जायज ठहराने और इसके पक्ष में लामबंदी करने वालों को नैतिक और वैचारिक चुनौती दी जा सकेगी, बल्कि इससे नक्सलवाद का वो मजबूत आवरण भी टूटेगा जिसकी आड़ में वो हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम देते हैं।

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