मुस्लिम समाज औरंगजेब के रंग से बाहर निकलें और नए रंग में दारा शिकोह की धारा के साथ जुड़े

आज जरूरत है कि मुस्लिम समाज राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की धारा में उतर कर देखें तो डर का स्याह रंग धुल जाएगा और आत्म गौरव की धारा की चमक स्वयं दिखेगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 18 Sep 2019 12:45 AM (IST) Updated:Wed, 18 Sep 2019 12:45 AM (IST)
मुस्लिम समाज औरंगजेब के रंग से बाहर निकलें और नए रंग में दारा शिकोह की धारा के साथ जुड़े
मुस्लिम समाज औरंगजेब के रंग से बाहर निकलें और नए रंग में दारा शिकोह की धारा के साथ जुड़े

[ डॉ. सुधांशु त्रिवेदी ]: बीते दिनों जब संघ के सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल ने दारा शिकोह और औरंगजेब की तुलना की तो एक नई बहस छिड़ गई, परंतु यह बहस कितनी एकांगी है इसका अनुमान तब लग जाएगा जब आज के युवाओं से पूछा जाए कि कितने लोग दारा शिकोह का नाम जानते हैं? शायद बहुत कम लोग ही यह बता पाएंगे। जब तक आप उच्च स्तर पर इतिहास विषय के रूप में न पढ़ें तब तक दारा शिकोह के बारे में जानकारी नहीं मिलती। दारा शिकोह औरंगजेब का बड़ा भाई और शाहजहां द्वारा नियुक्त सिंहासन का औपचारिक उत्तराधिकारी था। आज जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात बड़े जोर-शोर से की जाती है उसकी पहली लिखित प्रस्तुति दारा शिकोह की पुस्तक मंजुम-अल-बहरीन अर्थात दो समुंदरों का मिलन थी। यह एक मुगल शहजादे की ओर र्से ंहदू और इस्लाम के तालमेल पर पहला औपचारिक लिखित प्रयास था। लाहौर के प्रसिद्ध सूफी संत मियां मीर उसके गुरु थे तो काशी के विद्वान पंडित राज जगन्नाथ से उसने संस्कृत सीखी।

दारा शिकोह ने उपनिषदों का अध्ययन किया

दारा शिकोह ने उपनिषदों का अध्ययन किया और उनका फारसी भाषा में ‘सिर्र-ए-अकबर’ नाम से अनुवाद कराया जिसका अर्थ होता है ईश्वरीय शब्द। 17वीं शताब्दी में उपनिषदों के इसी फारसी अनुवाद से फ्रांसीसी अनुवाद हुआ, फिर लैटिन भाषा में और वहां से 19वीं शताब्दी में जर्मनी के आर्थर शापनहावर तक पहुंचा, जिन्होंने इसे ‘मानवीय ज्ञान की पराकाष्ठा’ कहा। फिर जर्मनी में वैदिक अध्ययन के प्रति 19वीं शताब्दी में दिलचस्पी उत्पन्न हुई। 20वीं शताब्दी के अनेक महान जर्मन वैज्ञानिकों आइंस्टीन, ऑटोहॉन और हाइजनबर्ग के विचारों पर वैदिक ज्ञान और दर्शन के प्रभाव के संकेत अनेक पुस्तकों में उपलब्ध हैं। यूरोप में सबसे ज्यादा वेदों-उपनिषदों का अध्ययन जर्मनी में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सैद्धांतिक भौतिकी की सबसे बड़ी खोजें भी जर्मनी में ही हुईं। इसे महज संयोग मानना तर्कसंगत नही लगता।

दारा शिकोह ने भारत में एक भी मंदिर नहीं तोड़े

दारा शिकोह भारत के मुसलमानों को जिस रास्ते पर ले जाना चाहता था वह ज्ञान-विज्ञान में कहां तक जा सकता था, यह समझा जा सकता है। शायद दारा शिकोह मुगल खानदान का इकलौता शहजादा था जिसने आध्यात्मिक विषयों का भी अध्ययन किया, जिसके नाम पर एक भी मंदिर तोड़ने का कोई उल्लेख नहीं है। जबकि महान कहा जाने वाला अकबर भी इस आरोप से मुक्त नहीं है। बख्तियार खिलजी जैसों ने जहां नालंदा का विख्यात पुस्तकालय जलवाया तो दारा शिकोह ने पुस्तकालय बनवाया जो आज भी दिल्ली में मौजूद है। आप सोच सकते हैं कि यदि इस सोच का व्यक्ति बादशाह बना होता तो देश का भविष्य क्या होता? इसके उलट औरंगजेब ऐसा निर्मम शासक बना जिसने हिंदू मंदिरों के विध्वंस और सिख गुरुओं पर अत्याचार से नफरत की खाई को इतना चौड़ा कर दिया कि उसे पाटना आसान न हो सके।

औरंगजेब ने दारा शिकोह समेत तीनों भाइयों का किया कत्ल

औरंगजेब में इस हद तक नफरत भरी थी कि उसने दारा शिकोह को बेड़ियों में जकड़कर पहले दिल्ली में घुमाया ताकि लोग खौफजदा हों, परंतु जब उसने देखा कि दिल्ली की जनता उसके प्रति सहानुभूति प्रकट कर रही है तो उसने दारा का सिर कलम कराकर अपने पिता शाहजहां को भिजवाया। उसने अपने बाकी दोनों भाइयों शुजा और मुराद की भी हत्या कराई। क्या कोई औरंगजेब जैसा तीन भाइयों को कत्ल करने और पिता को जेल में डालने वाला बेटा चाहेगा अथवा दारा जैसा दानिशमंद, देशभक्त और दिलदार बेटा? आप कह सकते हैैं कि इतिहास में जो हुआ सो हुआ, आज इसका क्या संदर्भ है?

मुस्लिम समाज की राजनीति औरंगजेब के रंग में

चूंकि सेक्युलरिज्म के सूरमा मुस्लिम समाज की राजनीति को औरंगजेब के रंग में रंगे रखना चाहते हैं इसलिए उसे कभी बाबर से तो कभी जिन्ना से जोड़ते हैैं। वे अफजल गुरु, याकूब मेमन, जाकिर नाइक, इशरत जहां, बुरहान वानी, जाकिर मूसा और कश्मीरी पत्थरबाजों को मुस्लिमों का प्रतीक बताते हैं। उल्लेखनीय यह है कि इन सबको मुस्लिम समाज से जोड़ने का काम मुस्लिमों ने कम और सेक्युलरिज्म के सियासी सूरमाओं ने अधिक किया है।

इन मुसलमानों पर देश को गर्व है

आज जो लोग भारत में मुसलमानों में प्रचारित डर और उनकी तमाम आशंकाओं का भयादोहन कर रहे है उन्हें मैं दूसरी धारा की याद दिलाना चाहता हूं। स्वतंत्र भारत में सेना का प्रथम वीरता पदक पाने वाले 1947 की नौशेरा की लड़ाई में ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान थे। 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर पहली शहनाई बजाने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला खां थे और भारत की वैश्विक धमक का प्रथम उद्घोष यानी 1998 के पोखरण विस्फोट करने वाले मुख्य शिल्पी डा. एपीजे अब्दुल कलाम थे, लेकिन आखिर गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर छद्म धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाने वाले कितने नेता इन तीनों का स्मरण करते हैैं? क्या वे कभी इनके घर गए हैैं?

शहीदों के घर सन्नाटा

ब्रिगेडियर उस्मान का घर उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में है। यहां आतंकवाद के आरोपियों के घर नेताओं की कतारें तो दिखीं, लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान के यहां सन्नाटा पसरा रहा। वीर अब्दुल हमीद के बलिदान की 50वीं जयंती 2015 में हुई थी। आखिर उसमें कितने सपाई, बसपाई, कम्युनिस्ट और कांग्रेसी नेता शामिल हुए? यद्यपि समुदाय के साथ संबद्ध करना इन सभी केमहान व्यक्तित्व के साथ कुछ अन्याय है, परंतु डॉ. कलाम से बड़ा वैज्ञानिक पूरे आलम-ए-इस्लाम में पैदा नहीं हुआ, मगर कितने लोग उनकी नमाज-ए-जनाजा में गए? यह वह धारा है जो दारा शिकोह, सैयद इब्राहिम रसखान, आलम शेख, बुल्ले शाह और नजीर अकबराबादी से होते हुए, बिग्रेडियर उस्मान, अब्दुल हमीद, बिस्मिल्ला खां और डॉ. कलाम तक आती है, लेकिन सेक्यूलरवादियो को इनमें मुसलमानों का प्रतिनिधित्व दिखाई नहीं पड़ता।

मुसलमानों के साथ बहुत बड़ा धोखा

यह सिर्फ देश और समाज के साथ ही नहीं मुसलमानों के साथ भी एक बहुत बड़ा धोखा है कि स्याह चेहरे को ही जबरन आपका चेहरा बना दिया जाए और आपके उजले चेहरे को नकार दिया जाए। डर का रंग स्याह होता है और इल्म की चमक सफेद। आज जरूरत है कि मुस्लिम समाज सेक्युलरिज्म के नाम पर थोपे गए औरंगजेब के रंग से बाहर निकले और दारा शिकोह की धारा के साथ जुड़े। राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की धारा में उतर कर देखेंगे तो डर का स्याह रंग धुल जाएगा और आत्म गौरव की धारा की चमक स्वयं दिखेगी।

अमीर खुसरो का एक शेर है

‘खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वाकी धार।

जो उतरा सो डूबि गा, जो डूबा सो पार।’

( लेखक भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )

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