सरकार को सभी पहलुओं पर गौर कर ‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए

सरकार को व्यापक चर्चा के बाद ही देश में ‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जीरो बजट खेती की योजना इस वर्ष के आम बजट में घोषित की गई।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 16 Sep 2019 01:32 AM (IST) Updated:Mon, 16 Sep 2019 01:32 AM (IST)
सरकार को सभी पहलुओं पर गौर कर ‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए
सरकार को सभी पहलुओं पर गौर कर ‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए

[ एनके सिंह ]: अपने पहले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने और फिर बीते सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण-प्रतिरोधी कन्वेंशन’ में शामिल देशों के 14वें सम्मेलन में भारत की ‘जीरो बजट’ खेती की योजना का संकल्प दोहराया, लेकिन देश के दर्जनों कृषि वैज्ञानिक इससे उत्साहित नहीं हैं। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पंजाब सिंह के नेतृत्व में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद एवं भारतीय कृषि शोध परिषद (आइसीएआर) महानिदेशक तिरलोचन महापात्र की मौजूदगी में एक गोष्ठी में न केवल इस विचार को खारिज किया गया, बल्कि इस पर अमल से अनाज उत्पादन और उत्पादकता के भारी नुकसान की चेतावनी भी दी है।

मोदी सरकार की जीरो बजट खेती की योजना

‘वापस मूल की ओर’ के सिद्धांत के तहत जीरो बजट खेती की योजना इस वर्ष के आम बजट में घोषित की गई, लेकिन इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि इस खेती में जो पद्धति अपनाने की योजना है उसके बारे में न तो कोई प्रामाणिक आंकड़ा है, न ही उसे वैज्ञानिक कसौटी पर कसा गया है। दरअसल इसके पीछे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे का दबाव है। यह योजना इस सिद्धांत पर आधारित है कि पौधों को प्रकाश संश्लेषण केलिए जरूरी नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड, धूप और पानी प्रकृति मुफ्त में देती है। केवल उसे हासिल करने का तरीका मालूम होना चाहिए। शेष दो प्रतिशत पोषण जीवाणु को जड़ों के भीतर सक्रिय करने से मिल सकता है, जो गाय के मूत्र, गोबर, गुड़ और दाल आदि के घोल के छिड़काव से मिल सकता है।

रासायनिक खाद की महत्ता

वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन जरूर है, पर यह मुफ्त में उपलब्ध नहीं है। पौधे उसे लेकर एमिनो एसिड में बदल कर अपने लिए तब तक भोजन नहीं बना सकते हैं, जब तक उन्हें अमोनिया या यूरिया का सहारा न दिया जाए, यानी रासायनिक खाद न मिले।

जीरो बजट खेती की अवधारणा के जनक सुभाष पालेकर

भारत में जीरो बजट खेती की अवधारणा का जनक महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर को माना जाता है। उनके अनुसार जीरो बजट खेती के सफल होने की एक और शर्त यह है कि इसमें प्रयुक्त होने वाला गोबर और मूत्र केवल काली कपिला गाय का होना चाहिए। क्या देश में खेती की नीति काली कपिला गाय के गोबर और मूत्र के आधार पर बनाना और उसे पूरी दुनिया को बताना भारतीय नेतृत्व की तर्क-क्षमता और वैज्ञानिक सोच पर प्रश्न-चिन्ह नहीं खड़ा करेगा? देश में विरले नेता हुए हैं, जिनका दिमाग इतना जरखेज (उपजाऊ) रहा है जितना मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का, लेकिन योजनाओं को वैज्ञानिक और व्यावहारिक पुष्टि के बिना घोषित करना नुकसान पहुंचा सकता है।

मोदी सरकार की हर हफ्ते एक योजना

मोदी सरकार का पहला पांच साल का कार्यकाल हो या दूसरे कार्यकाल के पिछले सौ से अधिक दिन, कुल गणना करें तो हर हफ्ते एक योजना, या विचार-संदेश देश को अपने सबसे मकबूल नेता से मिलता रहा है। एक देश, जिसमें नए-नए विचार न हों, वह धीरे-धीरे जड़वत होता जाता है। लिहाजा इस समाज को हर रोज चैतन्य रखना मोदी सरकार की अच्छी उपलब्धि है, लेकिन ऐसी चैतन्यता का भाव वास्तव में जीवन गुणवत्ता में कितना बदलाव लाता है, इसका एक निष्पक्ष विश्लेषण करने का समय आ गया है।

2022 तक किसानों की आय दोगुनी

एक उदाहरण लें। मोदी सरकार के इस दूसरे कार्यकाल में कृषि को लेकर एक नया भाव पैदा हुआ है जो शायद ‘वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने और बार-बार दोहराने’ के दबाव के कारण है। शायद मोदी सरकार को यह मालूम है कि किसानों की आय कम रहने का सबसे बड़ा कारण उत्पादकता न बढ़ना है। भारत में जहां अनाज का उत्पादन बढ़ रहा है, लेकिन जमीन की उत्पादकता लगातार घटती जा रही है। इसके मूल में खेती की जमीन पर जनसंख्या का दबाव, किसानों का रासायनिक खादों तथा जल का अविवेकपूर्ण उपयोग और बाजार की सुविधा का अभाव है।

परंपरागत खेती की ओर उन्मुख

लिहाजा सरकार अब 200-400 साल पुरानी खेती यानी देसी बीज, देसी खाद और देसी बाजार आधारित परंपरागत खेती की ओर उन्मुख होने का इरादा बना रही है। इसके संकेत सरकार द्वारा जुलाई में जारी आर्थिक सर्वेक्षण को पढ़ने से और प्रधानमंत्री मोदी के हाल के तमाम भाषणों से मिलता है। सर्वेक्षण के कृषि अध्याय (पेज 172) का प्रारंभ वेस जैक्सन के इस कथन से होता है कि प्रकृति में सर्वाधिक संधारणीय (सस्टेनेबल) पारिस्थितिकी विद्यमान है। और चूंकि अंततोगत्वा कृषि प्रकृति से ही जन्म लेती है, अत: एक धारणीय पृथ्वी के लिए हमारा मानक स्वयं प्रकृति की पारिस्थितिकी ही होनी चाहिए।

रासायनिक खाद से खेती को दीर्घकालिक नुकसान

स्वयं इस सर्वेक्षण में भी यह पाया गया है कि रासायनिक खाद के दुरुपयोग के कारण अब खेतों को दीर्घकालिक नुकसान हो रहा है। साथ ही अगले ग्राफ में बताया गया है कि सिंचाई के पानी का भी अविवेकपूर्ण इस्तेमाल तमाम राज्य कर रहे हैैं। ऐसे में बेहतर तो यह होता कि सरकार ‘स्वच्छ भारत’, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘प्लास्टिक मुक्त भारत’ की तरह ही रासायनिक खाद खासकर नाइट्रोजन वाले खाद के खिलाफ ‘वैज्ञानिक खेती’ का नारा देती तो एक बेहतर परिणाम मिल सकता था।

धान और गन्ना उत्पादन के लिए इजरायली तकनीकी का प्रयोग

धान और गन्ना उत्पादन के लिए इजरायली तकनीकी का प्रयोग करना सार्थक प्रयास था, जो देश में सिंचाई के लिए उपलब्ध जल का 60 प्रतिशत खपत करते हैं। गन्ने की खेती के लिए तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र पानी का भयंकर दोहन कर रहे हैं। इसमें वैज्ञानिक रूप से बदलाव लाया जाना चाहिए। ऐसी खेती के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जहां सिंचाई के लिए जल उपलब्धता सबसे अच्छी है। इससे किसानों की आय बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है।

‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की कोशिश

अचानक खेती को अवैज्ञानिक और परंपरागत तौर-तरीके पर ले जाना कुछ ‘राम के काल में पुष्पक विमान’, और ‘हाथी का मस्तक मानव में प्रत्यारोपित करने के लिए गणेश भगवान को उद्धृत करने’ की तरह न हो जाए। जीरो बजट खेती के प्रति ऐसी शंका व्यक्त करने वाले वैज्ञानिक न तो वामपंथी विचारधारा वाले हैं और न ही ‘देश-विरोधी’, बल्कि इनमें से कई मोदी काल में ही कृषि विभाग में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। पंजाब सिंह वाजपेयी काल में सरकार की सबसे बड़ी संस्था भारतीय कृषि शोध परिषद के महानिदेशक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं। सरकार को व्यापक चर्चा के बाद ही देश में ‘जीरो बजट’ खेती को जमीन पर लाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इसके प्रवर्तन से पहले सभी पहलुओं पर गौर करना होगा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )

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