मोदी शासन की मजबूत सरकार वाली छवि ने पाकिस्तान और चीन को भारत से संबंध सुधारने के लिए कर दिया मजबूर

पैंगोंग से चीनी सेना की वापसी का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि भारत के बाजार चीन के लिए पहले की तरह खुल जाएं। चीन की आर्थिक ताकत का मुकाबला आर्थिक रूप से मजबूत होकर ही किया जा सकता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 28 Feb 2021 12:45 AM (IST) Updated:Sun, 28 Feb 2021 07:52 AM (IST)
मोदी शासन की मजबूत सरकार वाली छवि ने पाकिस्तान और चीन को भारत से संबंध सुधारने के लिए कर दिया मजबूर
मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर अलगाव की राजनीति पर की तगड़ी चोट।

[ संजय गुप्त ]: पहले लद्दाख के पैंगोंग इलाके से चीनी सेना के पीछे लौटने और फिर पाकिस्तान की ओर से संघर्ष विराम पर सहमत हो जाने से मोदी शासन की मजबूत सरकार वाली छवि और पुख्ता हुई है। चीन और पाकिस्तान के साथ यह जो सहमति बनी, उससे भारतीय सेना को एक बड़ी राहत भी मिली है। लद्दाख में चीन से टकराव वाली स्थिति तभी से बनी हुई थी, जब गलवन में दोनों देशों के सैनिकों के बीच खूनी झड़प हुई थी। इसमें भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए थे। चीनी सेना को भी अच्छी-खासी क्षति उठानी पड़ी थी, लेकिन वह उसे स्वीकार करने में आनाकानी करता रहा। चीन के साथ अभी बातचीत जारी है, क्योंकि लद्दाख में अन्य इलाकों से भी चीनी सेना को पीछे हटना है। देखना है कि इन इलाकों से वह कदम कब पीछे खींचती है? चीन से सैन्य तनातनी ऐसे समय जारी थी, जब जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान संघर्ष विराम का उल्लंघन करने में लगा हुआ था। यह उल्लंघन आतंकियों की घुसपैठ के लिए ही होता था।

भारत कई दशकों से पाकिस्तानी सेना प्रायोजित आतंकवाद से त्रस्त है

भारत कई दशकों से पाकिस्तानी सेना प्रायोजित आतंकवाद से त्रस्त है। उसने कश्मीर में एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा था तो इसीलिए कि कश्मीर में आतंक फैलाया जा सके। उसका काम इसलिए आसान हो गया था, क्योंकि कश्मीर में कई अलगाववादी गुट उसके इशारों पर काम कर रहे थे। इन गुटों को खुराक मिलती थी जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 से। इन गुटों के प्रति कश्मीर के राजनीतिक दल और खासकर नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की हमदर्दी भी रहती थी।

मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर अलगाव की राजनीति पर की तगड़ी चोट

मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर अलगाव की राजनीति पर तगड़ी चोट तो की ही, पाकिस्तान के मंसूबों पर भी पानी फेरने का काम किया। चूंकि अनुच्छेद 370 हटने के साथ ही कश्मीर के अलगाववादी एवं आतंकियों को पनाह देने वाले तत्वों की कमर टूट गई और आजादी की मांग ने भी दम तोड़ दिया, इसलिए पाकिस्तानी सेना की ओर से सीमा पर गोलीबारी कर आतंकियों की घुसपैठ कराना भी निरर्थक साबित होने लगा। अब कश्मीरी लोग भी यह समझने लगे हैं कि अलगाववाद की राजनीति करने वाले उन्हें मोहरा बनाए हुए थे।

कश्मीरी अवाम की सोच बदलने से पाक पोषित आतंकी गुटों का काम हुआ मुश्किल

कश्मीरी अवाम की सोच बदलने के साथ ही पाकिस्तान पोषित आतंकी गुटों का काम मुश्किल होता जा रहा है। भारतीय सुरक्षा बल आतंकियों का सफाया करने के साथ घुसपैठ रोकने के लिए भी कमर कसे हुए हैं। भारत ने पहले र्सिजकल स्ट्राइक और फिर एयर स्ट्राइक करके पाकिस्तान को यह बता दिया कि वह आतंकियों की खेप तैयार कर भारत भेजेगा तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। आतंकियों को पालने-पोसने के चलते पाकिस्तान पर एफएटीएफ की जो तलवार लटक रही है, उसकी भी वह अनदेखी करने की स्थिति में नहीं।

पाक की बिगड़ी आर्थिक स्थिति ने संघर्ष विराम समझौते का पालन करने के लिए मजबूर कर दिया 

पाकिस्तान संघर्ष विराम समझौते का पालन करने के लिए शायद इसलिए भी तैयार हुआ, क्योंकि एक तो उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई है और दूसरे, सीमा पर गोलीबारी का उसे करारा जवाब भी मिल रहा। भारत ने सदैव ही पाकिस्तान से शांतिपूर्ण संबंध कायम रखने की कोशिश की है। मोदी सरकार ने पहली बार भारतीय शासन की कमान संभालने के अवसर पर सभी पड़ोसी देशों के साथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी आमंत्रित किया था। वह अफगानिस्तान से लौटते समय नवाज शरीफ की नातिन की शादी में शामिल होने लाहौर भी गए। इसके बाद भी पाकिस्तान ने भारत विरोधी हरकतें बंद नहीं कीं।

यदि पाक सेना आतंकियों की भारत में घुसपैठ कराना बंद कर दे तो पाकिस्तान से संबंध सुधर सकते हैं

चूंकि पाकिस्तानी सेना भारत से बैर भाव रखकर अपने स्वार्थ साधती है, इसलिए यह कहना कठिन है कि संघर्ष विराम को लेकर जो सहमति बनी, वह कायम रहेगी या नहीं? वास्तव में पाकिस्तानी सेना से तब तक सचेत रहना होगा, जब तक इसके प्रमाण न मिल जाएं कि उसने भारत से बदला लेने के अपने एजेंडे का परित्याग कर दिया है। यदि पाकिस्तानी सेना संघर्ष विराम समझौते का पालन करने के साथ आतंकियों की भारत में घुसपैठ कराना बंद कर देती है तो फिर पाकिस्तान से संबंध सुधर सकते हैं और इसके नतीजे में उसके साथ व्यापार भी शुरू हो सकता है। ऐसा होने से भारत और पाकिस्तान, दोनों को आर्थिक लाभ मिलेगा।

गलवन की घटना के बाद मोदी सरकार ने आर्थिक प्रतिबंध लगाकर चीन के होश ठिकाने लगा दिए

जैसे पाकिस्तान कश्मीर को हड़पने का मंसूबा पाले हुए है, उसी तरह चीन भी भारत के बढ़ते कद को कम करने की फिराक में है। हालांकि सीमा विवाद के बाद भी चीन के साथ भारत के व्यापारिक संबंध अच्छे रहे। भारत में चीन से आयात बढ़ रहा था। व्यापार घाटा कम करने के भारत सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी एक बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियां कच्चा माल चीन से ही मंगाती थीं। चीनी कंपनियों का भारत में निवेश भी बढ़ रहा था, लेकिन गलवन की घटना ने सब कुछ बदलकर रख दिया। भारत ने सीमा पर चीन का डटकर मुकाबला करने के साथ ही उस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाने शुरू कर दिए। चीनी कंपनियों के निवेश पर लगाम लगाने के साथ उनके तमाम एप्स पर पाबंदी लगाकर भारत ने यही जाहिर किया कि अब सब कुछ पहले जैसा रहने वाला नहीं है। चीन की आर्थिक ताकत का सामना करने के लिए मोदी सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान भी छेड़ा। फिलहाल यह लगता है कि चीन के होश ठिकाने आए हैं। जो भी हो, भारत सरकार और साथ ही यहां के उद्योग जगत और जनता को आत्मनिर्भरता हासिल करने पर अडिग रहना चाहिए।

पैंगोंग से चीनी सेना की वापसी होने से भारत के बाजार चीन के लिए नहीं खोले जाने चाहिए

पैंगोंग से चीनी सेना की वापसी का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि भारत के बाजार चीन के लिए पहले की तरह खुल जाएं। चीन की आर्थिक ताकत का मुकाबला आर्थिक रूप से मजबूत होकर ही किया जा सकता है। यह भी ध्यान रहे कि हमारी उत्पादकता जब तक चीन के स्तर पर नहीं पहुंचती, तब तक विश्व बाजार पर उसके आधिपत्य को खत्म करना आसान नहीं। यह आधिपत्य खत्म करना भारत का लक्ष्य होना चाहिए। चीन और पाकिस्तान से लगी सीमाओं पर शांति का उपयोग भारतीय अर्थव्यवस्था को सबल बनाने में किया जाना चाहिए। अब जब यह संभावना बढ़ी है कि विदेशी कंपनियां भारत में और अधिक निवेश के लिए आगे आएंगी, तब सरकार को निजीकरण की पहल को तेजी से आगे बढ़ाना चाहिए और यह संदेश और दृढ़ता से देना चाहिए कि भारत सरकार खुद उद्योग-धंधे चलाने की मानसिकता का परित्याग करने को प्रतिबद्ध है। यदि सीमाओं पर शांति बनी रहती है तो भारत में विदेशी निवेश बढ़ने के आसार भी बढ़ेंगे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

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