भारतीय लोकतंत्र की गतिशीलता: सत्तापक्ष और विपक्ष चुनावी परिणाम को लेकर कभी आश्वस्त होने का जोखिम नहीं ले सकते

Mobility of Indian Democracy हमारे लोकतंत्र का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष चुनावी परिणाम को लेकर कभी पूरी तरह आश्वस्त होने का जोखिम नहीं ले सकते और वास्तव में यही होना भी चाहिए।

By TilakrajEdited By: Publish:Fri, 30 Jul 2021 07:59 AM (IST) Updated:Fri, 30 Jul 2021 07:59 AM (IST)
भारतीय लोकतंत्र की गतिशीलता: सत्तापक्ष और विपक्ष चुनावी परिणाम को लेकर कभी आश्वस्त होने का जोखिम नहीं ले सकते
लोकतंत्र में आर्थिक बदहाली का सीधा संबंध हमेशा राजनीतिक भविष्य से जुड़ा होता है

एमजे अकबर। इस साल की एक सबसे महत्वपूर्ण खबर मुझे कुछ दिन पहले एक अखबार में बतौर विज्ञापन दिखी। उस विज्ञापन में उल्लेख था कि भारत के 56 प्रतिशत उत्पाद देश के मात्र 16 प्रतिशत लोग ही उपभोग करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की 84 प्रतिशत आबादी केवल 44 प्रतिशत उत्पाद खरीद पाती है। इसका सार यह है कि यह 84 प्रतिशत आबादी अपनी रकम मूल रूप से बुनियादी जरूरतों पर ही खर्च करती है, न कि उन उत्पादों पर जो जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने वाले होते हैं। यह गरीबी और विषमता की उतनी ही सटीक तस्वीर दिखाता है, जितनी कि आंकड़े आपको दिखाएंगे। हमारी राष्ट्रीय संपदा का पलड़ा पूरी तरह देश की 20 प्रतिशत आबादी के पक्ष में झुका हुआ है। यह वही आबादी है जो पहली या दूसरी दुनिया में रहती है। शेष आबादी चौथी दुनिया में रहने को अभिशप्त है। आधुनिक मशीनों के फायदे उन तक नहीं पहुंच पाए हैं। स्वतंत्रता के सात से अधिक दशकों के बाद हमारे देश की यही कड़वी हकीकत है।

हमने 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की और उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ संरक्षित भी किया। इसके बावजूद किसी भी प्रकार की आर्थिक समानता हासिल करने में हमें अभी कई दशक और लग जाएंगे। इसमें यह समकालीन तथ्य भी जोड़ लिया जाए कि कोविड महामारी के कारण हुई हालिया आर्थिक उथल-पुथल ने लाखों लोगों के रोजगार पर ग्रहण लगा दिया है। इससे हाल-फिलहाल का परिदृश्य बहुत बदरंग दिख रहा है।

लोकतंत्र में आर्थिक बदहाली का सीधा संबंध हमेशा राजनीतिक भविष्य से जुड़ा होता है। प्रत्येक चुनाव का गणित अलग होता है। यहां तक आप जिन कारणों के दम पर दोबारा चुनाव जीतकर आते हैं, वे भी पहले चुनाव के मुकाबले बदल जाते हैं। सीधे शब्दों में समझाया जाए तो चुनाव आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, जबकि पुन: चुनाव जीतकर आना सरकार के प्रदर्शन पर एक प्रकार की मुहर। इससे जुड़ा विश्लेषण भी उसी के इर्दगिर्द होता है। चुनावी जीत का अंतर निर्धारित करने वाले निर्वाचन अखाड़ों यानी निर्वाचकों की जमीन हमेशा बदलती रही है। यह कलाइडोस्कोप की तरह है। थोड़ी सी हलचल के साथ ही रुझान बदल जाता है। मतदाता समूहों को जाति और धर्म के पुराने चश्मे से देखने का हमारे राजनीतिक वर्ग का पारंपरिक नजरिया उनकी सबसे बड़ी असफलता है। नि:संदेह इन पहलुओं में सामाजिक तथ्य समाहित होते हैं, लेकिन वे पूरी सच्चाई बयान नहीं करते। उन पर गहन मंथन आवश्यक है।

लोकतंत्र की गतिशीलता इसी में निहित होती है कि गैर-विशिष्ट पहचान वाले मतदाताओं की स्थिति में पिछले चुनाव के मुकाबले वर्तमान में कितना बदलाव आया है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में जातिगत समीकरणों की महत्ता जगजाहिर है। विभिन्न राजनीतिक दल अपने माकूल समीकरणों को बैठाने की जुगत भिड़ाने में लगे भी रहते हैं। इस बीच कम से कम दो नए निर्वाचक सामने उभरे हैं। ये आर्थिक धारणाओं से प्रेरित होते हैं और इस कारण पारंपरिक पैमानों को तोड़ते हैं। चूंकि इनमें से एक वर्ग खेतिहर किसानों का है तो इसका गहराई की तुलना में जनसांख्यिकीय विस्तार से अधिक वास्ता है। ग्रामीण विमर्श को प्रभावित करने में वे माहिर हैं। यहां तक कि उन समुदायों में भी उनकी गहरी पैठ है, जो भले ही उनके आर्थिक हितों को साझा न करते हों। ऐसे कई साक्ष्य मिल रहे हैं कि कृषि कानून विरोधी मुहिम ने कई अन्य कारकों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक चुनावी मुद्दा तो बना दिया है, लेकिन अभी इसकी पुष्टि के लिए कोई सटीक डाटा उपलब्ध नहीं। अगर है भी तो कम से कम वह मेरी जानकारी में नहीं है। हालांकि, मतदाताओं के मन की थाह लेने वाले जरूर उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले और आगामी विधानसभा चुनावों के बीच परिदृश्य में कुछ परिवर्तन की आहट को महसूस कर रहे हैं।

विशिष्ट पहचान से इतर एक वर्ग के रूप में कोविड से प्रभावित लोग हैं। इसमें विस्तार और गहराई दोनों है, क्योंकि कोई भी महामारी वर्ग, धर्म और जाति के बंधनों से मुक्त होती है। जैसा कि किसी भी आपदा में होता है कि ग्रामीण गरीब उससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, क्योंकि सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं उनकी पहुंच से बहुत दूर होती हैं। वे गुमनाम मौत के शिकार होते हैं। यहां तक कि उनकी अंतिम क्रिया के लिए भी संसाधन नहीं मिलते। दुख की स्मृतियां दिल पर लगे दाग के रूप में अंकित हो जाती हैं। ये दाग भले ही हमेशा नमूदार न हों, लेकिन उन्हें मिटाना भी आसान नहीं होता। वे बहुत ही गहरे होते हैं।

भारतीय मतदाता नासमझ नहीं हैं। वे किसी बेलगाम महामारी के लिए सरकार को दोष नहीं देते। कोविड के कहर के बावजूद बंगाल, केरल और असम की सरकारें दोबारा चुनाव जीतकर सत्ता में आ गईं। वे संकट के समय स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकारी हस्तक्षेप की गुणवत्ता और आर्थिक परिणामों के आधार पर शासन के स्तर यानी गवर्नेस को आंकते हैं। अगर उन्हें महसूस होता है कि सरकारों ने हरसंभव बेहतरीन प्रयास कर अपना सर्वश्रेष्ठ दिया तो वे सकारात्मकता दिखाएंगे। इसके विपरीत यदि उन्हें यह लगे कि सरकारी रवैया पक्षपातपूर्ण और अक्षम रहा तो वे अपना आक्रोश भी जताएंगे। महामारी ने लोगों की जान से ज्यादा उनकी आजीविका पर प्रहार किया और यह चोट भी उन लोगों पर अधिक गहरी हुई, जो पहले ही आर्थिक रूप से कमजोर या नाजुक थे।

भारतीय मतदाताओं ने अपने आक्रोश को मतदान के दिन तक सहेजकर रखना सीख लिया है, क्योंकि वे अभी भी लोकतंत्र की साख को लेकर बहुत आश्वस्त हैं। हमारे लोकतंत्र की सबसे उल्लेखनीय सच्चाई यही है कि चाहे सरकारी खेमा हो या विपक्षी दल, वे चुनावी परिणाम को लेकर कभी पूरी तरह आश्वस्त होने का जोखिम नहीं ले सकते और वास्तव में यही होना भी चाहिए। यहां केवल इसी बात की निश्चिंतता है, जिसमें यह थाह ली जा सके कि सियासी जमीन खिसक रही है और समीकरण बदल रहे हैं। ऐसे में वास्तविकता को स्वीकार करने वाले ही बदलाव की सही दिशा को भांप सकते हैं।

(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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