महामारी को अवसर बना मेडिकल कंपनियों ने लोगों की मजबूरी का खूब उठाया फायदा, विशेषज्ञ की कलम से जानें कैसे

कोरोना काल के दौरान मेडिकल इक्‍यूपमेंट बनाने वाली कंपनियों ने दबाकर मुनाफा कमाया है। हालांकि कुछ मामलों में ये कंपनियां काफी समय से लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर इस काम को करती आई हैं। अब सरकार इसको लेकर गंभीर हो गई है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Thu, 22 Jul 2021 10:54 AM (IST) Updated:Thu, 22 Jul 2021 10:54 AM (IST)
महामारी को अवसर बना मेडिकल कंपनियों ने लोगों की मजबूरी का खूब उठाया फायदा, विशेषज्ञ की कलम से जानें कैसे
लोगों की मजबूरी का फायदा उठाती मेडिकल कंपनियां

डा. अजय खेमरिया। राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियामक प्राधिकरण ने बीते दिनों पांच मेडिकल उपकरणों के दाम निर्धारित कर दिए हैं। पल्स आक्सीमीटर, बीपी मानिटरिंग मशीन, नेबुलाइजर, डिजिटल थर्मामीटर और ग्ल्यूकोमीटर ऐसे उपकरण हैं जिनकी आवश्यकता कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान प्राय: हर घर में महसूस की गई। अब सरकार ने इनके अधिकतम मूल्य को 70 फीसद मुनाफे की सीमा में बांध दिया है। 20 जुलाई से 31 जनवरी 2022 तक इनके खुदरा मूल्य एनपीपीए यानी राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण की निगरानी में रहेंगे।

एनपीपीए एक स्वतंत्र विशेषज्ञ निकाय है जो देश में दवाओं के मूल्य विनियमन का कार्य रसायन एवं उर्वरक मंत्रलय के मातहत करता है। महत्वपूर्ण बात इन उपकरणों के मूल्य नियंत्रण से कहीं अधिक बड़ी है। यह जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है कि अभी तक ये पांचों उपकरण देश में लागत से करीब 700 प्रतिशत अधिक कीमत पर नागरिकों को बेचे जा रहे थे। यानी सबसे बुरे दौर में जब मानवता कराह रही थी, तब देश का फार्मा उद्योग आपदा को अवसर मानकर आम आदमी की सांसों की कीमत पर मुनाफा कमा रहा था।

हैरानी यह कि करीब साढ़े चार लाख जिंदगियों के खत्म हो जाने के बाद सरकार के इस स्वतंत्र निकाय को मूल्य नियंत्रण की याद आई है। इस बीच महज 300 से 500 रुपये लागत वाले पल्स आक्सीमीटर के लिए करोड़ों लोगों ने दो हजार से लेकर पांच हजार रुपये तक चुकाए। थर्मामीटर और अन्य तीन उपकरण भी लागत से हजार प्रतिशत अधिक दामों पर बिके हैं, यह सर्वविदित है।

लागत के मुकाबले सात गुना तक अधिक कीमत वसूले गए : असल में करीब 700 प्रतिशत अधिक दाम में बिक्री को तो एनपीपीए ने लागत और एमआरपी के आधार पर आंकलित किया है। सच्चाई तो यह है कि इनकी बिक्री 10 गुना से भी अधिक कीमतों पर हुई है। आक्सीजन कंसंट्रेटर जो न तो एनपीपीए के मूल्य नियंत्रण सूची में था और न ही अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे में, लागत मूल्य से कई हजार गुने दामों पर पिछले कुछ दिनों तक बिका है। यानी देश में दवाओं के साथ मेडिकल उपकरणों के नाम पर भी एक संगठित लूट का शिकार आम आदमी लंबे अरसे से हो रहा है। दुर्भाग्यवश कानूनों, अधिनियमों का अंतहीन अंबार अंतत: फार्मा इंडस्ट्री की तरफ ही झुका है।

कोरोना की आपदा केवल कालाबाजारी करने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि सभ्य और अभिजन कहे जाने वाले स्वास्थ्य क्षेत्र के बड़े वर्ग के लिए भी अवसर से कम साबित नहीं हुई है। यह तब जब भारत वैश्विक मोर्चे पर फार्मा इंडस्ट्री में तीसरी बड़ी ताकत है। अकेले मेडिकल उपकरणों का कारोबार हमारे यहां सालाना करीब 75 हजार करोड़ रुपये का है। सवाल यह है कि क्या देश में एक संगठित लाबी दवा एवं उपकरणों के नाम पर बेखौफ होकर आमजन को लूटती आ रही है? अनुभव और आंकड़े इसी की तस्दीक करते हैं।

कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चिकित्सकों की पेशेगत नैतिकता पर सवाल उठाया था। अमेरिका में दिए गए उनके बयान पर हमारे देश में बड़ा बवाल मचा था। लेकिन कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह उपकरणों एवं दवाओं के नाम पर आम भारतीयों की जेबें खाली की गई हैं, उसने एक बार फिर समग्र चिकित्सकीय व्यवसाय की नैतिकता और सरकारी नियंत्रण पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा नागरिक मूल अधिकार भले ही न हो, लेकिन लोककल्याणकारी राज्य की प्रतिस्पर्धी राजनीति में हर दल स्वास्थ्य सेवाओं को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता में दिखाने की कोशिश करता है। जमीनी सच्चाई यह है कि लोकप्रिय राजनीति और शासन आज भी जनस्वास्थ्य के मोर्चे पर एक ताकतवर लाबी के आगे कठपुतली की तरह ही है।

कोविड संकट ने स्वास्थ्य क्षेत्र की बुनियादी खामियों के समानांतर नैतिक पक्ष को भी बेनकाब किया है। संबंधित विनियमन के लाख दावों के बीच किस तरह की लूट निजी अस्पतालों में हर स्तर पर की गई है, उसका कोई प्रमाणिक उपाय आज भी हमारी सरकारों के पास नहीं है। मेडिकल उपकरणों के मामले में तो स्थिति दवाओं से भी बुरी है, क्योंकि यह सेक्टर करीब 70 फीसद आयात पर निर्भर है और 99 फीसद वस्तुएं कीमत के मामले में सरकारी नियंत्रण से बाहर है। औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन कानून 1940 के तहत विनियमन के प्रविधानों के तहत केवल 20 उपकरण ही अधिसूचित हैं, यानी हजारों करोड़ का यह कारोबार पूरी तरह उत्पादकों, डीलरों और डाक्टरों के हवाले चल रहा है।

अब मूल सवाल नैतिकता का है जिसने इस कारोबार को नियंत्रित किया हुआ है। वर्ष 2017 में सरकार ने हृदय में लगने वाले स्टेंट के दाम अधिसूचित किए थे। तब इसे बड़ा कल्याणकारी कदम बताया गया था, क्योंकि देश में दो तरह के स्टेंट उपयोग में लाए जाते थे। बीएमएस यानी बेयर मेटल स्टेंट जिसकी कीमत थी 45 हजार रुपये और दूसरा ड्रग एल्युटिंग स्टेंट (डीईएस) जो 1.2 लाख रुपये में मिलता था।

एक जनहित याचिका के बाद मामले की गंभीरता को देखते हुए एनपीपीए ने बीएमएस स्टेंट के लिए 7,260 रुपये एवं डीईएस स्टेंट के लिए 29,600 रुपये दाम निर्धारित किए। इस दौरान वर्षो तक आम आदमी से हृदय रोग और इस उपचार प्रविधि के नाम पर लागत की तुलना में एक हजार प्रतिशत तक अधिक दाम वसूले जाते रहे हैं। हालांकि पिछले दिनों सरकार ने स्टेंट की कीमतों में बढ़ोतरी को स्वीकृति दी, लेकिन यह मामूली है। जाहिर है स्टेंट जैसे उपकरण के नाम पर कितने व्यापक स्तर पर जनता का शोषण हुआ है, इसका अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। इन दोनों स्टेंट के प्रयोग में नैतिकता का वही सवाल स्वयंसिद्ध होता है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया था।

दरअसल डीईएस स्टेंट का चलन ठीक सिजेरियन प्रसव को प्रोत्साहित किए जाने की तरह ही क्लिनिकल सलाह के माध्यम से बढ़ाया गया। लिहाजा वर्ष 2002 से 2018 के मध्य निजी अस्पतालों में हृदय की शल्य क्रिया में डीईएस स्टेंट डालने का प्रतिशत 22 से बढ़कर 65 हो गया है। बीएमएस एवं डीईएस स्टेंट लगवाने वाले करीब दस हजार लोगों पर उनके अगले छह साल के जीवन पर किए गए शोध में पाया गया है कि संक्रमण या मौत के मामले में दोनों स्टेंट से खास अंतर नहीं रहा। उपरोक्त संदर्भ में एनएसएसओ यानी नेशनल सैंपल सर्वे आफिस की रिपोर्ट को यहां ध्यान से समझने के आवश्यकता है।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में हर पांचवां मरीज दिल की बीमारी के इलाज के लिए कर्ज लेता है और यह कर्ज ऐसा है जिसे वह अपनी आमदनी से चुका नहीं पाता है। नतीजतन घर या फिर कोई अन्य संपत्ति बेचना हर पांचवें आदमी की मजबूरी बन जाती है। इन परिस्थितियों के बीच केंद्र सरकार ने वर्ष 2017 में जब स्टेंट की कीमतें अधिसूचित कर दी तो अस्पतालों ने प्रक्रियागत चार्ज दोगुने से भी ज्यादा कर दिया। ऐसा होने से इसके उपचार का बिल अस्पतालों ने मरीज को तीन से चार लाख रुपये तक पहुंचाना शुरू कर दिया। सरकार दावा करती है आयुष्मान योजना के तहत पांच लाख रुपये तक का इलाज मुफ्त है, लेकिन दिल की बीमारी के करीब 67 फीसद आपरेशन निजी अस्पतालों में हो रहे हैं।

इस साल के बजट पूर्व आíथक सर्वेक्षण में भी निजी अस्पतालों की कई महंगी सेवाओं का उल्लेख किया गया है। एनपीपीए ने खुद दिल्ली एनसीआर के चार बड़े निजी अस्पतालों द्वारा मरीजों को दिए गए बिलों का अध्ययन करते हुए यह स्वीकार किया है कि मरीजों से सलाह, दवा और उपकरणों के मामले में 17 गुना तक अधिक राशि वसूली गई है। असल में हजारों की संख्या में प्रचलित दवा एवं उपकरणों की एमआरपी तय करने का कोई साक्ष्य आधारित समग्र तंत्र नहीं होने का फायदा कारोबारी उठा रहे हैं।

हाल ही में सरकार ने कैंसर के उपचार में उपयोगी तमाम दवाओं को अधिसूचित करते हुए 87 प्रतिशत मुनाफे की सीमा तय की है। अभी तक कैंसर से जुड़ी इन दवाओं पर हजार गुना से ज्यादा मुनाफा कमाया जा रहा है। सच्चाई यह है कि एलोपैथी में हजारों दवाएं एवं उपकरण ट्रायल के रूप में भी चलते रहते हैं। सरकार के पास सुव्यवस्थित डाटा बैंक न होने से मामूली दवाएं और उपकरण अधिसूचित न होने से लागत की तुलना में कई गुना महंगे दामों पर जनता को बेचे जाते हैं।

उचित दरों पर दवाओं की उपलब्‍धता 

देश में दवाओं और मेडिकल उपकरणों को लागत से सात गुना से भी अधिक कीमतों पर बेची जाने वाली गंभीर समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि कानूनन दाम नियंत्रित करने से दवा या उपकरणों की सस्ती उपलब्धता सुनिश्चित हो, ऐसा भी नहीं हो पा रहा है। मसलन वर्ष 1995 में सरकार ने करीब 195 दवाओं के मूल्य निर्धारित किए जो एपीआइ (एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडिएंट) दवा निर्माण के लिए कच्चा माल श्रेणी के थे। इसके बाद निर्माताओं ने इनके निर्माण से हाथ खींच लिए।

नतीजतन आज करीब 70 फीसद एपीआइ के लिए हम चीन एवं अन्य देशों पर निर्भर हैं। कमोबेश मेडिकल उपकरणों के मामले में भी आज यही हालत है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है कि भारत में जो निकाय इस काम के लिए बने हैं वे फार्मा लाबी के हितों का एक लंबे अरसे से परोक्ष संरक्षण करते रहे हैं। परिणामस्वरूप जो दवा या उपकरण दस रुपये में मिलनी चाहिए उसके लिए हमारे नागरिक हजारों रुपये चुकाने पर विवश हैं।

तथ्य यह है कि नीतिगत स्तर पर दंड और जुर्माने से समावेशी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अनुकूल माहौल नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिए दंड के साथ विनिर्माण की दिशा में भी ठोस कदम आवश्यक है। आखिर कोई भी कारोबारी सस्ते आयात के विकल्प को छोड़कर भारत में स्टील फ्रेम ब्यूरोक्रेसी की प्रेतछाया में फैक्ट्री लगाने का संकट क्यों मोल लेगा? इसलिए आवश्यक है कि सरकार मेडिकल उपकरणों के 70 हजार करोड़ रुपये के इस सालाना कारोबार के लिए जमीन पर ‘मेक इन इंडिया’ को साकार करे।

मोदी सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना एवं केरल में मेडिकल डिवाइस पार्क निर्माण को अनुमति प्रदान की है। सवाल फिर उस नीयत और इच्छाशक्ति का है जो भारत में जड़ प्रशासन की दुरभिसंधि को बयां करता है। क्या मजबूत फार्मा लाबी इन पार्को को जनोत्पादकीय बनने देगी?

(लेखक लोकनीति विश्लेषक हैं)

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