माओवादी नेता नामी बेनामी संपत्ति के साथ गांजा-अफीम की खेती और तस्करी से इकट्ठा कर रहे अकूत धन

लद्दाख में चीनी घुसपैठ पर माओवादियों की चुप्पी इस बात का प्रमाण है कि नक्सली वस्तुत माओवादी ही हैं। ये चीन-पाकिस्तान के दलाल भी बन गए हैं। इन्हें नेस्तनाबूद किया ही जाना चाहिए। माओवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा समय की मांग है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 16 Apr 2021 09:41 AM (IST) Updated:Fri, 16 Apr 2021 09:42 AM (IST)
माओवादी नेता नामी बेनामी संपत्ति के साथ गांजा-अफीम की खेती और तस्करी से इकट्ठा कर रहे अकूत धन
नक्सलियों के हमदर्द भी हैं उतने ही खतरनाक। फाइल

हरेंद्र प्रताप। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर माओवादियों से मुठभेड़ में सुरक्षा बलों के 22 जवान शहीद हो गए। माओवादियों ने उन पर आधुनिक हथियारों से आक्रमण किया। विगत एक दशक में केवल छत्तीसगढ़ में ही हमारे सैकड़ों जवानों ने अपनी जान गंवाई है। वर्ष 1967 में बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद वहां जो सरकार बनी उसमें माकपा भी साङोदार थी। चारु मजूमदार माकपा के ही कार्यकर्ता थे। माकपा नेता के नाते वह उत्तर बंगाल में खेतिहर मजदूरों के बीच जाकर आíथक और सामाजिक शोषण करने वाले भूमिपतियों को वर्गशत्रु घोषित कर उनके ‘खात्मे’ की घोषणा किया करते थे।

‘जो जमीन को जोते बोये-वह उसका मालिक होये’-इस नारे को साकार करने के लिए चारु मजूमदार के कहने पर सरकार बनने के अगले दिन यानी तीन मार्च, 1967 को धनुष-बाण और परंपरागत हथियारों के साथ आदिवासियों ने जमीन के एक टुकड़े पर लाल झंडा गाड़कर कब्जा कर लिया। 23 मई, 1967 को जब पुलिस उस जमीन को अवैध कब्जे से मुक्त कराने गई तो उस पर आक्रमण हुआ, जिसमें एक पुलिस इंस्पेक्टर वांगड़ी घायल हुए। बाद में उनकी मृत्यु हो गई। फिर 25 मई, 1967 को पुलिस पूरी तैयारी के साथ गई। हमला होने पर पुलिस की गोली से 10 लोग मारे गए। यह सारी घटना नक्सलबाड़ी गांव में घटी। अत: इसका नाम ‘नक्सल आंदोलन’ और आंदोलनकारियों को ‘नक्सली’ कहा जाने लगा। जिस नक्सल आंदोलन की देश में चर्चा होती है, उसके संस्थापक चारु मजूमदार ने खेतिहर किसान-मजदूरों के छापामार युद्ध की जोरदार वकालत की थी। उन्होंने परंपरागत हथियारों यानी फरसा, खुखरी, हसुआ, तलवार, भाला, धनुष-बाण आदि के माध्यम से वर्ग शत्रु के खात्मे की बात कही थी। 1970 के मई महीने में पार्टी कांग्रेस में उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था कि अगर हम परंपरागत हथियार के सहारे वर्ग शत्रु के खिलाफ युद्ध छेड़ते है तो आम नागरिक विशेषकर भूमिहीन और गरीब तबका हमारे संघर्ष से जुड़ेगा। मिदनापुर के गोपीबल्लभपुर में पार्टी ने भूमिपतियों से जब उनके हथियार छीने तो मजूमदार ने कहा कि उनका इस्तेमाल वर्गशत्रु के सफाए के लिए नहीं, बल्कि अपने बचाव के लिए किया जाएगा। ‘छह इंच छोटा करना’ यानी वर्ग शत्रु का सिर उसके धड़ से अलग करना, ताकि वर्ग शत्रुओं में भय व्याप्त हो, यह माओवादियों की कार्यपद्धति बन गई।

मजूमदार ने यह भी कहा था कि माओ ने चीन की ‘मुक्ति सेना’ 320 राइफल से शुरु की, पर हम मात्र 60 राइफल और 200 पाइपगन से अपनी मुक्ति सेना बनाएंगे तथा वर्ग शत्रु जमींदार और उनके एजेंटों का खात्मा करेंगे। उन्होंने अपनी पार्टी का नाम तो ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्‍स-लेनिन)’ यानी सीपीआइ-एमएल रखा, लेकिन वह अपने कैडर को माओ की ‘रेड बुक’ पढ़ने का आदेश देते थे। नक्सलबाड़ी से शुरू हुए इस कथित आंदोलन को देश के एक खास वर्ग का समर्थन भी मिला और इसका विस्तार भी हुआ, पर वैचारिक और व्यावहारिक स्तर पर भटकाव का शिकार होने के कारण बिखराव इसकी नियति बन गई। ‘सत्ता बंदूक की नोक से निकलती है और हमारा नेता माओ’-ये ऐसे नारे थे, जिसके कारण भारत में माओवादियों का जनसमर्थन घटता गया। धीरे-धीरे माओवादी ‘लेवी वसूली’ पार्टी बनकर रह गए।

बिखराव के शिकार इनके एक ग्रुप ‘एमसीसी’ ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ से भी हाथ मिलाया। 2004 में एमसीसी, सीपीआइ-एमएल और पीपुल्स वार ग्रुप ने विलय कर एक नया दल ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)’ बनाया। नए बने दल के नाम से मार्क्‍स एवं लेनिन का नाम गायब हो गया और परंपरागत हथियारों का स्थान आधुनिक हथियारों ने ले लिया। मार्च 2007 में पार्टी की नौवीं कांग्रेस में जो प्रस्ताव पारित हुए, उससे यह स्पष्ट हो गया कि माओवादी सामाजिक और आíथक शोषण से मुक्ति का केवल नारा ही देते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य भारत की सत्ता हड़पना है। इनका वर्ग शत्रु अब भारत का लोकतंत्र है। भारत के अर्धसैनिक बलों पर ये आधुनिक हथियारों से हमला कर रहे हैं। ये वहां-वहां हमारे जवानों की हत्या कर उनके हथियार लूट ले रहे हैं, जहां-जहां उनका सबसे ज्यादा प्रभाव है। मुठभेड़ के बाद मारे गए माओवादियों से आधुनिक हथियार और रॉकेट लांचर तक प्राप्त हुए हैं।

माओवादी भारत के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं। इन्होंने अफजल गुरु की फांसी का विरोध किया। नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन की मदद की। ये जब-तब प्रधानमंत्री की हत्या का षड्यंत्र रचते रहते हैं। इन्हें बेनकाब करने की योजनाबद्ध पहल होनी चाहिए। इन्हें नक्सली कहने के बदले माओवादी कहा जाना चाहिए। माओवादियों ने जंगल और जमीन छीने जाने का भय दिखाकर गरीब आदिवासियों में जो अपनी गहरी पैठ बनाई है, उसे दूर कर इनके असली चेहरे को सामने लाना होगा। सच तो यह है कि माओवादी यानी वसूली गैंग के नेताओं ने करोड़ों की नामी और बेनामी संपत्ति भी बना ली है। गांजा-अफीम की खेती और तस्करी से इन्हें अकूत धन प्राप्त हो रहा है। अर्धसैनिक बलों में भर्ती होकर माओवादियों के हाथों अपनी जान गंवाने वाले अधिकतर जवान गांवों के गरीब किसानों और मजदूरों की ही संतानें हैं। साफ है कि माओवादियों से लड़ाई में जो खून बह रहा है वह भी गरीब का ही खून है। गरीब-गरीब को लड़ाकर माओ के वंशज भारत को न केवल सीमा पर, बल्कि देश के अंदर अघोषित युद्ध छेड़कर देश के विकास को रोकना चाहते हैं। लद्दाख में चीनी घुसपैठ पर माओवादियों की चुप्पी इस बात का प्रमाण है कि नक्सली वस्तुत: माओवादी ही हैं। ये चीन-पाकिस्तान के दलाल भी बन गए हैं। इन्हें नेस्तनाबूद किया ही जाना चाहिए। माओवाद के खिलाफ युद्ध की घोषणा समय की मांग है।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)

chat bot
आपका साथी