सबक सीखने का समय: संसाधनों के अभाव में छात्र हर साल कर लेते हैं आत्महत्या, रोकने के लिए तलाशने होंगे उपाय

जब तक समग्र और समेकित रणनीति द्वारा इससे निकलने के सघन और सजग प्रयास नहीं होंगे बच्चों की आत्महत्याएं बंद नहीं हो पाएंगी। आर्थिक कारणों से अनेक आत्महत्याएं होती हैं। असामाजिक तत्वों की छेड़छाड से तंग आकर आत्महत्या का कारण बन जाता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 24 Nov 2020 12:56 AM (IST) Updated:Tue, 24 Nov 2020 01:24 AM (IST)
सबक सीखने का समय: संसाधनों के अभाव में छात्र हर साल कर लेते हैं आत्महत्या, रोकने के लिए तलाशने होंगे उपाय
उन विद्यार्थियों का ध्यान रखा जाए, जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने के लिए संसाधन नहीं हैं।

[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: दिल्ली के एक प्रख्यात महाविद्यालय की 19 वर्षीय छात्रा ऐश्वर्या रेड्डी के आत्महत्या प्रकरण ने कई प्रश्न पीछे छोड़ दिए हैं। तेलंगाना से ताल्लुक रखने वाली ऐश्वर्या अपने परिवार के लिए यह संदेश छोड़ गई है, ‘मेरी शिक्षा को आगे जारी रखना मेरे परिवार पर असहनीय बोझ बनता जा रहा है और मैं बिना पढ़े नहीं रह सकती।’12वीं कक्षा में ऐश्वर्या के 98.5 फीसद अंक थे। उसके पिता मोटरसाइकिल मैकेनिक हैं। उन्होंने दो लाख रुपये में अपना आधा मकान गिरवी रखकर बेटी को दिल्ली में प्रवेश दिलाया था। इस प्रतिभावान छात्रा को ‘इंस्पायर’ योजना के अंतर्गत छात्रवृत्ति स्वीकृत हो चुकी थी, लेकिन मिली नहीं थी। लिहाजा पिता लैपटॉप नहीं खरीद पाए थे। उनकी आमदनी पर भी कोरोना संकट का प्रभाव पड़ा था, मगर बेटी की पढ़ाई जारी रखने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थे। इधर महाविद्यालय ने अपने नियमों के अनुसार ऐश्वर्या से छात्रावास खाली करने को कह दिया।

उन छात्रों का ध्यान रखा जाए, जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने के लिए संसाधन नहीं हैं

कुल मिलाकर हर तरफ से संसाधनों की कमी का दबाव ऐश्वर्या पर इतना बढ़ गया, जिसमें उसके सारे सपने, आशाएं और कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति तिरोहित हो गई। अब दिल्ली के महाविद्यालयों में चर्चा तथा प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं कि उन विद्यार्थियों का ध्यान रखा जाए, जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त करने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं हैं।

ऑनलाइन शिक्षा से वंचित विद्यार्थियों में बढ़ रहा मानसिक तनाव

दरअसल यह समस्या केवल दिल्ली के महाविद्यालयों या उच्च शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। सबसे अधिक समस्या तो स्कूलों (विशेष रूप से सरकारी स्कूलों) में उन बच्चों की है, जिनके घरों में स्मार्टफोन नहीं हैं। यदि हैं भी तो कई बच्चों वाले परिवार के लिए काफी नहीं हैं। अगस्त 2020 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों में 1.8 करोड़ बच्चों में से केवल 50 फीसद की पहुंच ही ऑनलाइन शिक्षा तक हो सकी है। प्रथम संस्था की वार्षिक ‘असर’ रिपोर्ट 2018 में उत्तर प्रदेश में करीब 91.7 फीसद परिवारों के पास फोन थे, मगर मात्र 32.6 प्रतिशत के पास ही स्मार्टफोन थे। यही प्रतिशत 2019 में क्रमश: 94.7 और 48 हो गया। 2020 में कोरोना के कारण स्मार्टफोन या लैपटॉप की उपलब्धता में किसी बड़ी वृद्धि की अपेक्षा संभव नहीं है। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय अभी भी बंद हैं, सभी ऑनलाइन का सहारा ले रहे हैं। वंचित बच्चों में इससे मानसिक तनाव बढ़ रहा है। गैजेट की अनुपलब्धता प्राणघातक स्थिति तक न पहुंचे, इसके लिए सरकार, समाज और संस्था को एकसाथ मिलकर विचार-विमर्श कर समाधान ढूंढना चाहिए। जिस समाज में बड़ी संख्या में बच्चे आत्महत्या कर रहे हों, उसे सामूहिक रूप से सजग, सतर्क और संवेदनशील बनना ही पड़ेगा।

आर्थिक कारणों से छात्रों में आत्महत्या करने की मामले बढ़ रहे हैं

हमारे समाज की मान्यता तो यही होनी चाहिए कि किसी भी जीवन को बचाने के लिए हरसंभव प्रयत्न किए जाएं। क्या यह चिंता का विषय नहीं है कि भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है? जनवरी 1995 से लेकर 2019 के अंत तक देश में 1.7 लाख छात्रों ने आत्महत्या की। 2019 में 10,335 छात्रों ने आत्महत्या की। 2016 और 2017 में यह आंकड़ा 9,478 और 9,905 रहा। स्पष्ट है कि यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ रही है। आर्थिक कारणों से अनेक आत्महत्याएं होती हैं, जैसा कि ऐश्वर्या के साथ हुआ।

असामाजिक तत्वों की छेड़छाड से तंग आकर आत्महत्या

परिवार के उस कष्ट की भी कल्पना कीजिए, जब उनकी बेटी स्कूल/कॉलेज जाते समय असामाजिक तत्वों की छेड़छाड से तंग आकर आत्महत्या करती है। इनमें अनेक प्रकरण ऐसे भी होते हैं, जहां पुलिस के पास महीनों पहले से लिखित शिकायत होती है, मगर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता।

बोर्ड परीक्षा का भय, पाठ्यक्रम का बोझ और परीक्षा में असफल होना आत्महत्या का कारण

बोर्ड परीक्षा का भय और पाठ्यक्रम का बोझ भी इसका कारण है। एक बड़ा कारण परीक्षा में असफल होना या अपेक्षित अंक प्रतिशत प्राप्त न कर पाना भी है। पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली के कई ‘प्रसिद्ध तथा साख वाले’ कॉलेजों में स्नातक कक्षा में प्रवेश का कटऑफ कई विषयों में शत प्रतिशत तक जाता है। 99 फीसद अंक प्राप्त करने वाला छात्र और उसका परिवार हताशा में डूब जाते हैं। यह चर्चाएं भी सुनाई देती हैं कि इस स्थिति को भांपकर कई स्कूल ‘विशेष’ प्रयास करते हैं कि उनके विद्यार्थी शत-प्रतिशत अंक ही पाएं! स्कूल बोर्ड भी अब संभवत: इसका ध्यान रखने लगे हैं। यह उचित है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इनका संज्ञान लिया है। अब पाठ्यक्रम का बोझ घटाया जाएगा, बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चयन करने की छूट होगी, परीक्षा सुधार की अनेक संभावनाओं को व्यावहारिक रूप से लागू किया जाएगा। आशा करनी चाहिए कि इससे स्थिति सुधरेगी।

व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षा की चुनौती

हालांकि कई ऐसे कारण हैं जिन्हें समाज और पालकों के सक्रिय सहयोग के बिना समाप्त नहीं किया जा सकता है। स्कूली शिक्षा पूरी करने वाला हर बच्चा जानता है कि उच्च शिक्षा के लिए उसे घोर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। उसके अंक कितने ही अच्छे क्यों न आ रहे हों, अनिश्चितता उसके मस्तिष्क पर हावी रहती है। माता-पिता का यह हाल बच्चे से पहले ही प्रारंभ हो चुका होता है। इनमें से अनेक अपनी क्षमता अनुसार तीन-तीन, चार-चार ट्यूशन लगा चुके होते हैं। कक्षा 10 के बाद के दो वर्ष सबसे अधिक कठिन होते हैं। एक तरफ कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा का तनाव और दूसरी ओर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षा की चुनौती। इसका सबसे सटीक उदाहरण है राजस्थान के शहर कोटा का कोचिंग केंद्र बनना। वैसे अब ऐसे कोचिंग केंद्र लगभग हर बड़े शहर में मिल जाएंगे। इन केंद्रों में आने वाले बच्चों में बड़ी संख्या उनकी होती है, जो अपनी रुचि के अनुसार नहीं, बल्कि माता-पिता की रुचि के विषय पढ़ने के लिए बाध्य होते हैं। चूंकि ये शुद्ध रूप से धनार्जन के केंद्र होते हैं, अत: यहां बच्चों के मनोभावों को जान-समझकर पढ़ाने में किसी की रुचि नहीं होती है।

इच्छाशक्ति और लगनशीलता की कमी

र्कोंचग के लगभग अनिवार्य रूप में स्वीकृत हो जाने का कारण है सरकारी स्कूलों की लगातार घटती साख, उनमें नियमित अध्यापकों की कमी, लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, व्यावसायिक शिक्षा के उच्च स्तरीय संस्थानों की प्रवेश परीक्षा का समय के साथ बदल न पाना। ये सब ऐसे कारण हैं, जिन पर काबू पाना असंभव नहीं है, मगर उसके लिए आवश्यक इच्छाशक्ति और लगनशीलता की कमी सरकार, अध्यापक वर्ग और समाज में अपनी पैठ बना चुकी है। जब तक समग्र और समेकित रणनीति द्वारा इससे निकलने के सघन और सजग प्रयास नहीं होंगे, बच्चों की आत्महत्याएं बंद नहीं हो पाएंगी।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )

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