जातीय जनगणना से जो विष निकलेगा, वो उन्‍हीं लोगों को मारेगा जो इसकी मांग कर रहे

विडंबना यह है कि जातियों की जनगणना की मांग में सबसे आगे वे लोग हैं जो कभी जातिविहीन समाज की बात किया करते थे। सवर्ण जाति के लोगों के मन में यह डर है कि उनकी संख्या जो अभी बताई जाती है उससे कम निकलेगी।

By TilakrajEdited By: Publish:Fri, 06 Aug 2021 08:43 AM (IST) Updated:Fri, 06 Aug 2021 08:43 AM (IST)
जातीय जनगणना से जो विष निकलेगा, वो उन्‍हीं लोगों को मारेगा जो इसकी मांग कर रहे
2021 की जनगणना में पिछड़ों की गिनती कराई जाएगी

प्रदीप सिंह। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान, पर देश में इस समय जाति पूछने का शोर है। यह सही है कि जाति भारतीय समाज की वास्तविकता है, मगर सवाल है कि इस वास्तविकता ने समाज को दिया क्या है? जो जातियों को अलग-अलग खांचों में बांटकर देखना चाहते हैं, वे भूल जाते हैं कि इस विविधता को जोड़ने वाली कोई एकता भी तो होनी चाहिए, क्योंकि जाति समग्रता में ही जीवित रह पाएगी। जो लोग जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं, वे शायद समझ नहीं रहे हैं कि इससे जो विष निकलेगा, वह उन्हें ही मारेगा।

जातीय जनगणना के पक्षधरों के मन में कई अवधारणाएं

पश्चिम के युग प्रवर्तक विचारक रूसो ने कहा था कि किसी भी समाज में गुटों के बनने से हमेशा नुकसान होता है, पर यदि गुट बन ही गए हों तो, जितने ज्यादा बन जाएं, उतना अच्छा। जातीय जनगणना के पक्षधर लोगों के मन में कई तरह की अवधारणाएं हैं, जो जातियों की अनुमानित संख्या की ही तरह किसी ठोस धरातल पर नहीं खड़ी हैं। पिछड़े वर्ग के जो नेता इसकी मांग कर रहे हैं, वे यह मानकर चल रहे हैं कि बीपी मंडल ने मंडल आयोग की सिफारिशें करते समय पिछड़े वर्ग की जो कुल जनसंख्या बताई थी, वह कम है। मंडल ने कहा था कुल आबादी का 52 फीसदी पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जातीय जनगणना से असलियत सामने आ जाएगी और फिर उन्हें आरक्षण का कोटा बढ़ाने का आधार मिल जाएगा।

...उस समय देश की आबादी 27 करोड़ थी

सवर्ण जाति के लोगों के मन में यह डर है कि उनकी संख्या जो अभी बताई जाती है, उससे कम निकलेगी। इन दोनों की उम्मीद और आशंका का आधार 1931 की आखिरी जातीय जनगणना के आंकड़े हैं। उनका अब कोई अर्थ नहीं है। उस समय देश की आबादी 27 करोड़ थी और आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसमें शामिल थे। विडंबना यह है कि जातियों की जनगणना की मांग में सबसे आगे वे लोग हैं जो कभी जातिविहीन समाज की बात किया करते थे। पिछड़ा वर्ग को आरक्षण की सुविधा देने के लिए जरूरी है कि उनकी जातियों की सही संख्या का पता हो। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि 1931 की जनगणना के आंकड़े को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से 2010 में संप्रग सरकार ने पिछड़ी जातियों की गणना का मन बनाया, लेकिन फिर पीछे हट गई।

2021 की जनगणना में पिछड़ों की गिनती कराई जाएगी

मोदी सरकार ने भी 2018 में संसद में कहा कि 2021 की जनगणना में पिछड़ों की गिनती कराई जाएगी, पर अब कह रही है कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है। मार्च 2011 में तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लोकसभा में कहा था कि यह बहुत उलझा हुआ मुद्दा है। पिछड़े वर्ग की जातियों की एक केंद्रीय सूची है, एक राज्यों की सूची है। कुछ राज्यों में ऐसी सूची है ही नहीं। कुछ राज्यों के पास पिछड़ी जातियों और अति पिछड़ी जातियों की सूची है।

अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न बच्चों की समस्या

रजिस्ट्रार जनरल ने कहा है कि इसके अलावा अनाथ और निराश्रित बच्चे हैं। कुछ जातियों के नाम पिछड़ा और अनुसूचित जाति, दोनों सूची में हैं। ईसाई या इस्लाम में मतांतरित लोगों के बारे में अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग नीति है। एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वालों की समस्या अलग है। इसके अलावा अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न बच्चों की समस्या है।

पिछड़ा वर्ग को चार उपभागों में विभाजित करने का सुझाव

संप्रग सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना करवाई, जिसके जाति के अलावा बाकी आंकड़े 2016 में सार्वजनिक किए गए। सामाजिक न्याय मंत्रलय ने ये आंकड़े नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह को सौंप दिए। उसकी शुरुआती रिपोर्ट के बाद क्या हुआ, पता नहीं। अक्टूबर 2017 में गठित जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग ने फरवरी 2021 में अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा कि पिछड़ा वर्ग की जातियों की जनगणना जरूरी है। आयोग ने पिछड़ा वर्ग को चार उपभागों में विभाजित करने का सुझाव दिया है।

एक तिहाई जातियों को तो शिक्षा और नौकरी में कोई लाभ मिला ही नहीं

आयोग ने पाया कि केंद्रीय सूची में शामिल पिछड़ा वर्ग की 2633 जातियों में से आरक्षण की मलाई ऊपर की सौ जातियां ले गईं। एक तिहाई जातियों को तो शिक्षा और नौकरी में कोई लाभ मिला ही नहीं। सारा पेच यहीं है। जातीय गणना के बाद अति पिछड़ी जातियां अपने हक के लिए पिछड़ों की ही प्रभावशाली जातियों के खिलाफ उठ खड़ी होंगी। इसकी जमीन तीन दशक पहले सामाजिक न्याय के नाम पर सभी पिछड़ों के नेता बनने वालों ने तैयार कर दी है। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव अब पिछड़ों के नहीं यादवों के नेता रह गए हैं। इन दोनों ने अपने समय में एक-एक कुर्मी नेता क्रमश: नीतीश कुमार और बेनी प्रसाद वर्मा को साथ लिया। दोनों ने बाद में अपना अलग रास्ता पकड़ लिया। हालांकि बेनी ने औपचारिक रूप से ऐसा नहीं किया। तो जब पिछड़ों के कोटे का फायदा लेना था तो सबको जोड़ लिया और सत्ता मिली तो बाकी को भूल गए।

कहीं निषाद अपना हिस्सा मांग रहे हैं तो कहीं राजभर

रामधन ने एक बार कहा था कि बड़े घटक ने छोटे घटक को गटक लिया। जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद यह गटका हुआ उगलना पड़ेगा, क्योंकि परमाणु विखंडन की ही तरह समाज के गुटों के विखंडन की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाती है तो वह रुकती नहीं। यह प्रक्रिया अब रुकने वाली नहीं है। जनगणना से पहले ही उसके संकेत नजर आ रहे हैं। कहीं निषाद अपना हिस्सा मांग रहे हैं तो कहीं राजभर। छोटे-छोटे जाति समूह सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए सामने आ रहे हैं। सामाजिक क्रांति के पुरोधा मुलायम हों या लालू, अब उन्हें भी इन जाति समूहों से सौदेबाजी करनी होगी। इस बदलाव की आहट को नरेंद्र मोदी ने पहले से समझ लिया था। पिछले सात सालों में संख्या में छोटी जातियों को भाजपा में जगह ही नहीं मिली, बल्कि उन्हें संगठन और सत्ता में हिस्सेदारी भी मिली है।

सौदेबाजी की राजनीति का सिलसिला लंबे वक्त तक नहीं चल सकता

कहते हैं क्रांति को असफल करने का तरीका यही है कि उसे होने दिया जाए। इसलिए इस सामाजिक विखंडन को रोकने का भी यही तरीका है कि उसे होने दिया जाए, क्योंकि एक बार यह हो गया, तब संख्या में छोटे-छोटे इन जाति समूहों को भी अहसास होगा कि सौदेबाजी की राजनीति का सिलसिला लंबे वक्त तक नहीं चल सकता। तब इस विविधता को एकता की जरूरत महसूस होगी, पर इस उपक्रम में समाज में कितना विष निकलेगा व कितना अमृत (अगर निकला) यह किसी को पता नहीं है, पर इस जाति मंथन को अब न रोका जा सकता है और न ही रोका जाना चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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