अधिकतम लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए बढ़ाना होगा मेक इन इंडिया का दायरा

स्वास्थ्य सुविधाओं के संबंध में हमें ऐसी नीतियां बनानी चाहिएं जिन तक ज्‍यादातर लोगों की पहुंच हो सके। इसके अलावा लोगों तक सस्‍ती दवाओं को उपलब्‍ध करवाने के लिए मेक इन इंडिया को और अधिक व्‍यापक करना भी जरूरी है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Thu, 22 Oct 2020 08:10 AM (IST) Updated:Thu, 22 Oct 2020 08:10 AM (IST)
अधिकतम लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए बढ़ाना होगा मेक इन इंडिया का दायरा
मेक इन इंडिया को करना होगा और व्‍यापक

डॉ. गजेंद्र सिंह। वर्ष 2015 को ईयर ऑफ एपीआइ घोषित कर भारत ने फार्मा सेक्टर में आत्मनिर्भर बनने का एजेंडा तय किया था। तब से देश में एपीआइ यानी एक्टिव फार्मास्युटिकल इनग्रेडिएंट्स अर्थात दवा बनाने में उपयोगी कच्चे माल की आवश्यकता के लिए बाहरी निर्भरता को कम करने का प्रयास किया जा रहा है। वर्ष 2019 तक भारत अपने एपीआइ का 68 प्रतिशत हिस्सा आयात कर रहा था, ज्यादातर चीन से।

इस प्रकरण से पता चलता है कि आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य हासिल करने में अभी समय लगेगा और हमें घरेलू विनिर्माण को मजबूत करना होगा। भारत इससे काफी प्रभावित हो रहा है। उदाहरण के लिए विटामिन सी ले सकते हैं। इम्युनिटी बढ़ाने वाली इस दवा के निर्माण के लिए उपयोगी कच्चे माल की लागत में भारी वृद्धि हुई है।

भारत में विटामिन सी सप्लीमेंट दो श्रेणियों में उपलब्ध है। एक आवश्यक दवा और दूसरी खाद्य सप्लीमेंट के रूप में। इसलिए बाजार में उपलब्ध ब्रांडों की कीमतों में अंतर है। उदाहरण के लिए ज्यादा मांग वाली लिमसी और सेलिन को लेते हैं।

ये ऐसी दवाएं हैं, जिन्हें आवश्यक दवाओं के रूप में मान्यता प्राप्त है, इसलिए मूल्य नियंत्रण के तहत आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची के तहत वर्गीकृत किया गया है। वे ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआइ) और नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) के दायरे में आते हैं। वर्तमान में लिमसी की कीमत प्रति टैबलेट 1.67 रुपये है। सिक्के का दूसरा पहलू विटामिन सी सप्लीमेंट है, जो भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसआइ) के दायरे में आता है। यहां दवा को एक सप्लीमेंट की तरह माना जाता है और निर्माता अनियमित मूल्य निर्धारण की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हैं।

वर्तमान महामारी के दौरान बढ़ती मांग को देखते हुए कई नई कंपनियों ने भी पिछले कुछ महीनों में अपने ब्रांड को फूड सप्लीमेंट के रूप में लॉन्च किया है। इनकी कीमत एनएलईएम ब्रांडों के मुकाबले कई गुना ज्यादा होती है। कुछ मामलों में इनकी कीमत प्रति टेबलेट 12.25 रुपये तक है। जब हम विटामिन सी के लिए एपीआइ आपूर्ति के बारे में बात करते हैं, तो कुछ मुट्ठी भर कंपनियां हैं, जो कच्चे माल की आपूर्ति कर सकती हैं और मेक इन इंडिया के बैनर तले काम कर रही हैं। एनपीपीए दिशानिर्देशों के तहत उन्हें विनियमित नहीं किया जाता है, क्योंकि यह तंत्र एपीआइ या कच्चे माल की कीमतों को विनियमित नहीं करता है। भारत में उत्पादित इन कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि हुई है। फिर भी ये बाहरी कंपनियों की तुलना में मूल्य निर्धारण के मामले में प्रतिस्पर्धी होने का दावा करती हैं और सरकार से एंटी-डंपिंग शुल्क को फिर से लागू करने के लिए कह रही हैं, जो बीते दिनों समाप्त हो गया है।

कई रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि भारत में विटामिन सी दवाओं के एपीआइ व्यापक मात्र में चीन से आ रहा है। जब भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धी मूल्य पर भारत में इन जरूरतों को पूरा कर सकती हैं, तो चीन से कच्चे माल का आयात करने की कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन क्या ये कीमतें वास्तव में प्रतिस्पर्धी हैं? और क्या ये निर्माता वास्तव में स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैं? विटामिन सी एपीआइ और उसके डेरिवेटिव की कीमत देश के भीतर दोगुनी से अधिक है। उदाहरण के लिए सोडियम एस्कॉर्बेट की कीमत फरवरी-मार्च 2020 तक लगभग 500 रुपये प्रति किलो थी। मार्च के बाद जब देश महामारी की चपेट में आ गया, तब भारतीय उत्पादकों ने इसकी कीमत 1,400 रुपये प्रति किलो कर दी, जबकि चीन से आयात किए गए सोडियम एस्कॉर्बेट की कीमत ज्यादा नहीं बढ़ी। अगर भारतीय कंपनियां मांग को पूरा करने में सक्षम हैं, तो कीमत दोगुनी से अधिक करने का औचित्य क्या है? क्या यह संकट का फायदा उठाने का मामला नहीं है, जब विटामिन सी की मांग बढ़ गई है?

अब इस कदम से भारत में फार्मास्यूटिकल्स कंपनियों द्वारा उत्पादित विटामिन सी के उत्पादन की लागत प्रभावित हुई है। दूसरी ओर घरेलू आपूíतकर्ताओं द्वारा कच्चे माल की बढ़ी हुई लागत के कारण मूल्य नियंत्रण के तहत विटामिन सी के निर्माताओं को उपभोक्ताओं के लिए बड़ी मात्र में सस्ती दवाओं के उत्पादन में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

बढ़ती मांग के साथ घरेलू कंपनियां वैसे भी कच्चे माल की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति करने में सक्षम नहीं हैं। घरेलू कच्चे माल प्रदाताओं की मूल्य निर्धारण संरचना और अपर्याप्त आपूíत ने किफायती दवाएं बनाने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता को प्रभावित किया है। इससे लोगों की सस्ती दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में मरीज एफएसएसएआई के दायरे में आने वाले विटामिन सी की महंगी दवाओं को खरीदने का मजबूर हैं। अगर मेक इन इंडिया किफायती समाधानों के बारे में था, तो एपीआइ की बढ़ती लागत को विनियमित क्यों नहीं किया जाता है?

वर्तमान वैश्विक महामारी ने भारतीय दवा उद्योग की कई वास्तविकताओं को उजागर किया है। वैश्विक दवा आपूर्ति में गंभीर दोष रेखांकित करने, एपीआइ की हमारी बढ़ती लागतों का पर्दाफाश करने और उचित मूल्य पर दवाओं की अपर्याप्त आपूर्ति जैसी समस्याओं को भी इसने उजागर किया है। क्या यह भारत में सस्ती दवाओं समेत समग्रता में स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के उद्देश्य के लिए प्रतिकूल नहीं है? समय आ गया कि इसमें नीतिगत हस्तक्षेप किया जाए, क्योंकि केवल एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाना इस समस्या का समाधान नहीं है। पहले आंतरिक रूप से चीजों को सही करना होगा।

स्वास्थ्य सुविधाओं के संबंध में हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो अधिकतम पहुंच और सामर्थ्‍य को बढ़ावा दें। हमें मेक इन इंडिया की पहुंच का दायरा व्यापक करना होगा, ताकि अधिकतम लोगों को सस्ती कीमतों पर जरूरी दवाओं को उपलब्ध कराया जा सके। 

(लेखक जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं)

chat bot
आपका साथी