स्‍कूल फीस पर गुजरात सरकार की तरह दूसरे राज्‍य भी बना सकते हैं नियम

सवाल यह है कि अभिभावकों को राहत देने के लिए जब गुजरात सरकार ऐसा फैसला ले सकती है तो दूसरे राज्य क्यों नहीं कर सकते हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 08 Aug 2020 01:43 PM (IST) Updated:Sat, 08 Aug 2020 01:43 PM (IST)
स्‍कूल फीस पर गुजरात सरकार की तरह दूसरे राज्‍य भी बना सकते हैं नियम
स्‍कूल फीस पर गुजरात सरकार की तरह दूसरे राज्‍य भी बना सकते हैं नियम

उमेश चतुर्वेदी। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। स्कूली जीवन में सभी ने इसे पढ़ा होगा। दिलचस्प यह है कि महाबंदी के दौरान स्कूलों की बंदी के दौर में स्कूलों ने अपनी कमाई के लिए नई राह खोज ली है। ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर उन्होंने अपने विद्यार्थियों को स्मार्टफोन, लैपटॉप आदि के जरिये पढ़ाई कराने की राह तलाश ली है। इसके साथ ही उन्होंने फीस वसूलने का आधार भी तय कर लिया है। बस अंतर यह है कि वे सिर्फ ट्यूशन फीस ही वसूल रहे हैं।

लेकिन गुजरात हाईकोर्ट के आदेश पर गुजरात सरकार ने कड़ा कदम उठाते हुए राज्य में स्कूलों पर बच्चों से स्कूल बंदी के दौर में किसी भी तरह की फीस लेने पर रोक लगा दी है। गुजरात सरकार ने इस सिलसिले में अधिसूचना भी जारी कर दी है। इसके तहत अगर बंदी के दौरान कोई स्कूल फीस लेता भी है तो उसे या तो अगले महीने की फीस में समायोजित करना पड़ेगा या फिर उसे लौटाना पड़ेगा। गुजरात सरकार का रुख इतना कड़ा है कि अगर स्कूलों ने इस नियम का उल्लंघन किया तो उनके खिलाफ जिला शिक्षा अधिकारी कड़ी कार्रवाई करेंगे।

विजय रूपाणी सरकार ने यह फैसला गुजरात हाईकोर्ट के एक आदेश पर दिया है। गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके स्कूल बंदी के दिनों की फीस ना लेने के लिए आदेश देने की अपील की गई थी। हाईकोर्ट ने इसी याचिका पर यह आदेश दिया है। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के बाद ऐसा कदम उठाया है। लेकिन ऐसा आदेश दिल्ली सरकार 17 अप्रैल को ही स्कूलों को दे चुकी है। उसने सिर्फ ट्यूशन फीस लेने का आदेश सुनाया था। लेकिन यह आदेश सिर्फ कागजी ही बनकर रह गया। दिल्ली के तमाम ऐसे प्राइवेट स्कूल जो एक बार में तिमाही अग्रिम फीस लेते हैं, उसे जारी रखा। दिल्ली सरकार ने स्कूलों से यह भी कहा था कि अगर कोई अभिभावक फीस नहीं दे पाएगा तो उससे स्कूल जबरदस्ती नहीं करेंगे। लेकिन दिल्ली के कुछ स्कूलों ने जुलाई में फीस देने में देरी होने पर छात्रों को ऑनलाइन कक्षा में ना सिर्फ चेतावनी दी, बल्कि खरी-खोटी भी सुनाई।

बहरहाल गुजरात के स्कूलों ने इस आदेश के तहत ऑनलाइन कक्षाएं बंद कर दी हैं। उनका कहना है कि जब वे फीस ही नहीं ले सकते तो फिर ऑनलाइन पढ़ाई क्यों जारी रखें। निजी स्कूलों में परंपरा है कि हर सत्ररंभ के दौरान विकास शुल्क, भवन शुल्क आदि के रूप में मोटी रकम छात्रों से वसूलते हैं। पहले से दाखिल छात्रों को अगली कक्षा में प्रमोट करने के बाद इन मदों में भी वे पिछले साल की तुलना में ज्यादा फीस लेते रहे हैं। दिल्ली सरकार के आदेश के बाद इस बार स्कूलों ने विकास और भवन के साथ ही ट्रांसपोर्ट फीस के नाम पर कोई रकम नहीं ली है, अलबत्ता ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर फीस जरूर ले रहे हैं। सोशल मीडिया पर तो लोगों ने इसकी शिकायत भी की है। हालांकि इस बारे में दिल्ली सरकार ने क्या कार्रवाई की है, यह किसी को पता नहीं है।

वैसे स्कूलों के सामने भी एक चुनौती है। अगर वे फीस ना लें तो अपने शिक्षकों और दूसरे कर्मचारियों को वेतन कहां से दें? हालांकि मध्य और अल्प फीस वाले स्कूलों के साथ यह दिक्कत हो सकती है, क्योंकि उनकी कमाई ज्यादा नहीं होती और उनके पढ़ने वाले बच्चे अच्छी आíथक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से नहीं होते। लेकिन बड़े स्कूलों और कॉरपोरेट की तरह स्कूल चलाने वाले संगठनों के लिए ऐसी बात नहीं है। वे हर साल मोटी कमाई करते रहे हैं और मोटी बचत करते रहे हैं। वे चाहें तो अपने कर्मचारियों के दो-चार महीने का वेतन खर्च चला सकते हैं। लेकिन उदारीकरण के दौर में आई मुनाफा कमाने की संस्कृति के चलते शायद ही कुछ स्कूल हों, जिन्होंने ऐसा करने की सोची होगी। बरेली जैसे शहरों के कुछ सरस्वती विद्या मंदिरों और कुछ अन्य स्कूलों ने स्कूल बंदी के दिनों में फीस ना लेने के लिए अभिभावकों को सूचित किया है।

आप देखेंगे कि पिछली सदी के आठवें दशक तक पूरे देश में स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, तालाब, प्याऊ आदि बनवाना, चलाना और लगाना मुनाफा के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक उत्थान और सहयोग के लिए होता था। बड़े-बड़े धन्ना सेठ, साहूकार, कारोबारी या किसान अपनी कमाई का एक हिस्सा इन सामाजिक कार्यो में निस्वार्थ भाव से खर्च करते थे। उनकी आय के स्नेत उनके कारोबार, उद्योग या खेती-किसानी आदि होती थी। लेकिन उदारीकरण के दौर में भारतीय समाज में ये सारे काम भी सामाजिक निवेश की बजाय कमाई के स्नोत के रूप में विकसित होते गए हैं। यही वजह है कि स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला आदि का निर्माण और संचालन नियमित और मोटी आय के लिए होने लगा है। बड़े से बड़े कॉरपोरेट हाउस की भले ही अरबों की कमाई हो रही हो, लेकिन स्कूल, अस्पताल या धर्मशाला सामाजिक सहयोग के लिए नहीं, बल्कि कमाई के उद्देश्य से स्थापित किए जाते हैं। बड़े से बड़ा सामथ्र्यवान व्यक्ति और संस्था भी सिर्फ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के तौर पर स्कूल या अस्पताल बनवाने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। यही वजह है कि बलिया के एक स्कूल की छात्र अपना अंकपत्र लेने जाती है और फीस नहीं चुका पाती तो स्कूल का प्रबंधक उसकी पिटाई करता है या फिर दिल्ली का एक निजी स्कूल अपने छात्र को बाहर कर देता है।

कोरोना संकट ने सरकारों के सामने चुनौती खड़ी की है कि बदअमली कर रहे स्कूलों पर वह किस तरह लगाम लगा सकती है और उनकी आíथक लिप्सा को काबू कर सकती है, तो वहीं समाज के समर्थ लोगों के सामने अतीत की तरफ झांकने का मौका दिया है। लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ना तो सरकारें आíथक बदहाली ङोल रहे अभिभावकों को राहत देने में ईमानदारी से आगे आती दिख रही हैं और ना ही समाज के समर्थ लोग स्कूल और अस्पताल को नोट छापने की मशीन मानने की मानसिकता से बाज आ रहे हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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