पेरिस की भयावह घटना का सबक- आत्ममंथन की जरूरत, आखिर क्‍यों बढ़ रही नकारात्मकता और हिंसा

इस्लाम प्रत्येक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास रखता है। इसी विश्वास को बल देना होगा क्योंकि इसी के बाद एक रचनात्मक संवाद स्थापित हो सकता है। इसके लिए इस्लाम धर्म के अनुयायियों को पहले खुद से शुरुआत करनी होगी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 23 Oct 2020 09:16 AM (IST) Updated:Fri, 23 Oct 2020 09:24 AM (IST)
पेरिस की भयावह घटना का सबक- आत्ममंथन की जरूरत, आखिर क्‍यों बढ़ रही नकारात्मकता और हिंसा
मुस्लिम समुदाय को आत्ममंथन करना चाहिए कि आखिर उसके लोगों में इतनी नकारात्मकता और हिंसा क्यों बढ़ रही है?

रामिश सिद्दीकी। पिछले दिनों पेरिस में एक 18 वर्षीय लड़के द्वारा शिक्षक सैम्युल पैटी की बर्बर तरीके से की गई हत्या ने विश्व को झकझोर कर रख दिया। पुलिस ने शिक्षक की हत्या के बाद इस लड़के को मार गिराया। वह चेचेन मूल का शरणार्थी था। सैम्युल पैटी ने फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली आब्दो द्वारा प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद साहब के व्यंग्य चित्रों को अपनी कक्षा के छात्रों से साझा किया था, ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समझाया जा सके। ये चित्र पहली बार 2005 में डेनमार्क के एक समाचार पत्र द्वारा प्रकाशित किए गए थे। 2006 में शार्ली आब्दो ने इन चित्रों को पुन: प्रकाशित किया। इसी कारण 2015 में एक आतंकी हमले में उसके कई कर्मचारियों की हत्या कर दी गई। इस मामले में 14 लोगों पर मुकदमा चल रहा है।

पेरिस की भयावह घटना ने विश्व में इस बहस को फिर से छेड़ दिया है कि क्या इस्लाम को मानने वाले वाकई में असहिष्णु होते हैं? इस्लाम अरबी भाषा के शब्द सलाम से निकला है, जिसका अर्थ होता है शांति। इस्लाम यह नहीं कहता कि अगर कोई आपके विचारों से सहमत नहीं तो आप उससे नफरत करने लगें, उसे अपना विरोधी समझने लगें और उससे हिंसा करने पर उतारू हो जाएं। कुरान में कहा गया है कि एक निर्दोष को मारना समस्त मानवता को मारने जैसा है। बहुत लंबे समय से यह प्रचलित है कि इस्लाम में ईशनिंदा करने वालों की सजा केवल मृत्युदंड है, लेकिन इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं हो सकता।

इस्लाम के अनुसार किसी भी प्रकार की निंदा केवल गलतफहमी का मामला होती है। निंदा करने वालों के साथ शांतिपूर्ण चर्चा के जरिये उनकी गलतफहमी को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस्लामी सिद्धांत पूर्ण रूप से शांतिपूर्ण बातचीत की प्रक्रिया पर आधारित है। इसे कुरान में कई जगह स्पष्ट भी किया गया है। इस्लाम के पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के जीवन के दौरान कुछ ऐसे लोग थे, जो उनके लिए अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी ऐसे व्यक्तियों के लिए किसी तरह की सजा की बात नहीं की। मोहम्मद साहब के एक साथी हसन बिन सबित अल-अंसारी ऐसे व्यक्तियों के साथ चर्चा में संलग्न होकर उनकी गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास किया भी करते थे। वास्तव में यही सही इस्लामी तरीका है। कुरान के अनुसार हर व्यक्ति को स्वतंत्रता से सोचने और बोलने की आजादी है और किसी को यह अधिकार नहीं कि वह इस्लाम का नाम लेकर दूसरे की इस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाए। किसी ने स्वतंत्रता का उपयोग किया या दुरुपयोग, इसका निर्णय करना किसी अन्य व्यक्ति के हाथ में नहीं है। जीवन के प्रत्येक मामले में शांति या तर्क का सहारा लेना ही इस्लाम है।

इस्लाम के पैगंबर से एक बार जब उनके साथी ने जीवन का मूल मंत्र मांगा तो उन्होंने कहा, ‘कभी क्रोधित मत होना।’ यह विडंबना ही है कि मुस्लिम समाज के लोग इस सलाह को आगे दूसरे लोगों तक पहुंचाने के बजाय ऐसी नकारात्मक मानसिकता का शिकार हो चुके हैं कि उन्हें अंतिम हल हिंसा ही नजर आती है। मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवी और विद्वान केवल एक ट्वीट या फेसबुक पोस्ट के जरिये अफसोस जाहिर करके विश्वभर में घट रही उन घटनाओं से पल्ला नहीं झाड़ सकते, जो इस्लाम के कट्टर स्वरूप को उभारने का कारण बन रही हैं। उन्हें यह आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि आखिर मुस्लिम समाज के लोगों में नकारात्मक सोच और हिंसा इतनी चरम सीमा पर क्यों पहुंच चुकी है? आज इस्लाम के नाम पर हो रहे जघन्य अपराधों में और चीन के रवैये में कोई खास फर्क नजर नहीं आता। एक राजनीतिक दिवालियेपन की मिसाल है तो दूसरा वैचारिक दिवालियेपन का।

आज मुस्लिम समाज एक ऐसे दोराहे पर खड़ा है, जहां हिंसा के साथ नकारात्मक मानसिकता को पूरी तरह त्यागने के सिवाय उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचा है। उसे अपनी समस्त ऊर्जा को बौद्धिक पुनर्जागरण में लगाने की आवश्यकता है। हम आज लोकतंत्र और वैज्ञानिक सोच के युग में जी रहे हैं, जिसने दुनिया का चेहरा बदल दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक वरदान है, जो शांति स्थापित करने के लिए अवसर प्रदान करती है। इस्लाम के अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे समाज में शांतिपूर्ण व्यवस्था कायम रखने का प्रयास करें।

मुस्लिम समुदाय के नेतृत्व को हाल के दिनों में पेरिस, माल्मो (स्वीडन) और बेंगुलरु की घटनाओं का उसी ऊर्जा से विरोध करने की जरूरत है, जिस प्रकार से वे अन्य मुद्दों पर अपनी ऊर्जा लगाते हैं। समाज में शांति कायम रखना किसी भी राजनीतिक उद्देश्य से बड़ा काम है। हिंसा के लिए कोई बहाना नहीं हो सकता। विचारों में बदलाव लाने की आवश्यकता है। तभी आने वाली पीढ़ियों के समक्ष सही उदाहरण स्थापित किए जा सकते हैं।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्टेयर ने धार्मिक सहिष्णुता के मुद्दे पर कहा था कि इसके सही अर्थ को समझने के लिए किसी महान कला की आवश्यकता नहीं है। केवल यह समझने की जरूरत है कि हम सब भाई हैं और हम सबको बनाने वाला ईश्वर एक है। कुल मिलाकर यह समझने की जरूरत है कि आज की दुनिया में चरमपंथी सोच और हिंसक व्यवहार के लिए कोई स्थान नहीं है। इस्लाम प्रत्येक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास रखता है। इसी विश्वास को बल देना होगा, क्योंकि इसी के बाद एक रचनात्मक संवाद स्थापित हो सकता है। इसके लिए इस्लाम धर्म के अनुयायियों को पहले खुद से शुरुआत करनी होगी। हमेशा दूसरों को दोष देने से बात बनने वाली नहीं है। मुस्लिम समुदाय के लिए हर स्तर पर शांति बनाए रखना और नकारात्मक सोच से अपने को बचाना ही एकमात्र विकल्प है।

(लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं)

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