भाषा है नागरिकता कानून से भय की असल वजह, सरकार को दूर करना होगा लोगों के मन का संदेह

असम में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के पीछे भाषाई अल्पसंख्यक होने का बैठा हुआ यही भय हैं। केंद्र सरकार को असम के लोगों के मन में जो भय व्याप्त है उसे दूर करना होगा।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Sun, 15 Dec 2019 11:45 AM (IST) Updated:Sun, 15 Dec 2019 11:45 AM (IST)
भाषा है नागरिकता कानून से भय की असल वजह, सरकार को दूर करना होगा लोगों के मन का संदेह
भाषा है नागरिकता कानून से भय की असल वजह, सरकार को दूर करना होगा लोगों के मन का संदेह

[हरेंद्र प्रताप]। नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले संविधान और देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की दुहाई देते हुए इसे संविधान की धारा 14, 15, 21, 25 और 26 आदि का उल्लंघन करार दे रहे हैं। वे इस कानून में मुसलमानों को भी शामिल करने की मांग करते हुए देश विभाजन के लिए महान क्रांतिकारी वीर सावरकर को द्वि राष्ट्रवाद का जनक बता रहे हैं। 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के अधिवेशन में दिए उनके भाषण का उल्लेख किया जा रहा है।

अंग्रेजों के खिलाफ 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू-मुस्लिम एकता से डरे अंग्रेजों ने षड़यंत्रपूर्वक मुसलमानों के संगठन मुस्लिम लीग को पैदा किया। देश विभाजन का बीजारोपण तो 1906 में ढाका मे हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में ही हो गया था। हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए ही तुर्की के खलीफा का विषय लेकर कांग्रेस ने भारत में असहयोग आंदोलन चलाया। महात्मा गांधी ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए 1924 में 21 दिन का अनशन भी किया फिर भी क्या वे देश का विभाजन रोक पाये?

असल सच्चाई क्या है ?

सच्चाई यह है कि वीर सावरकर ने नहीं बल्कि सर्वप्रथम अलग पाकिस्तान की मांग उर्दू कवि इकबाल ने लखनऊ में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में रखी। 1933 में रहमत अली ने देश के दो भागों का नाम पाकिस्तान और हिंदुस्तान तक रख दिया। हिंदू-मुस्लिम एकता के सारे प्रयास मुस्लिम मानसिकता के कारण विफल हो गए और 1947 में देश बंट गया। मुस्लिम बहुल इलाका भारत से कट गया। 

इस विभाजन को द्वि राष्ट्रवाद का नाम भले दिया गया पर वास्तविक रूप में यह देश से मुसलमानों का विभाजन था क्योंकि देश का वही हिस्सा भारत से कटा जहां मुस्लिम बहुमत में थे। विभाजन के बाद भी भारत में रह गए मुसलमानों के साथ कोई भेद भाव हुआ हो या अपने उत्पीड़न के कारण उन्हें भारत छोड़ने को बाध्य होना पड़ा हो -ऐसा कोई आरोप नहीं लगा सकता।

पाकिस्तान का जन्म ही गैर मुस्लिमों के प्रति घृणा और नफरत के आधार पर हुआ है। गैर मुस्लिमों के प्रति मुसलमानों का कैसा व्यवहार है, इसका प्रमाण है वहां गैर मुस्लिमों की घटती जनसंख्या।इस्लाम और मुस्लिम मानसिकता के बारे में आजादी के दौरान एनी बेसेंट ने 1922 में लिखी अपनी पुस्तक 'दि फ्यूचर ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स' में लिखा है कि मुसलमान गैर मुसलमानों से नफरत करते हैं। 18 अप्रैल 1924 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में रवींद्रनाथ टैगोर का साक्षात्कार छपा है। इसमें उन्होंने कहा है कि मुसलमान पहले मुसलमान है फिर उसके बाद ही और कुछ है।

राजनीतिक नेतृत्व ने देश का बंटवारा किया पर उसका दंश पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह गये गैर मुस्लिमों को भुगतना पड़ा। विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार के मामले सामने आने लगे थे। सदन में चर्चा के दौरान गृहमंत्री ने 25 नवंबर 1947 के कांग्रेस कार्यसमिति और 26 सितंबर 1947 को गांधी जी के बयानों का हवाला देकर इसे देश के सामने भी रखा। 

नेहरू मंत्रिमंडल से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बांग्लादेश र्में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार का विरोध करते हुए ही इस्तीफा दिया था। 13 फरवरी 1964 को राष्ट्रपति के अभिभाषण में भाग लेते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने त्रिपुरा से एक तार मिलने का उल्लेख करते हुए कहा था-'कल रात मुझे एक तार मिला जिसमें यह उल्लेख है कि एक लाख शरणार्थी आ चुके हैं। रोजाना हजारों की संख्या में आ रहे हैं।

पाकिस्तान-बांग्लादेश में गैर मुस्लिमों के ऊपर क्या-क्या कहर ढाए जा रहे हैं, यह बात एक बार छोड़ भी दें लेकिन भारत के मुस्लिम बहुल राज्य कश्मीर में गैर मुस्लिमों पर हुए मुसलमानों के अत्याचार को कौन भूला सकता है। न केवल कश्मीर बल्कि मुस्लिम बहुल केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप से भी गैर मुस्लिमों का पलायन हो रहा है।

असम और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल जिलों और प्रखंडों से भी गैर मुस्लिम-मुस्लिम उत्पीड़न के कारण पलायन करने को बाध्य हैं। वोट बैंक की राजनीति करने वालों को छोड़ दें तो असम और त्रिपुरा के कुछ क्षेत्रों के अलावा पूरे देश ने नागरिकता संशोधन कानून 2019 का स्वागत ही किया है। भले ही भारत का विभाजन हिंदू-मुस्लिम के आधार पर हुआ पर पाकिस्तान का विभाजन‘बांग्ला भाषा’के आधार पर हुआ है।

बांग्लादेश से आने वाले सभी लोगों की मातृभाषा बांग्ला है।1991 में असम में ‘असमिया’को अपनी मातृभाषा लिखने वालों की संख्या 57.81 प्रतिशत थी जो 2011 की जनगणना में घटकर 48.37 प्रतिशत हो गयी। असम में 1991 में बांग्ला मातृभाषी लोगों की संख्या 21.66 प्रतिशत 2011 में बढ़कर 28.91 प्रतिशत हो गयी है।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)

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