Women Empowerment: परिवार और समाज के विकास में महिलाओं के घरेलू कार्यों को भी मिले सम्मान

Women Empowerment घरेलू महिलाओं के कार्यो को आर्थिक पैमाने पर कम आंका जाता है जिस कारण उनका उचित उत्साहवर्धन नहीं होता। उनके कार्यो को इस लिहाज से भी पहचानने का समय आ गया है। इससे कार्यबल में महिला सहभागिता में भी सुधार होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 27 Feb 2021 09:41 AM (IST) Updated:Sat, 27 Feb 2021 10:04 AM (IST)
Women Empowerment: परिवार और समाज के विकास में महिलाओं के घरेलू कार्यों को भी मिले सम्मान
Women Empowerment: परिवार और समाज के विकास में उनका भी भरपूर योगदान है।

साधना कुमारी शर्मा। हमारे समाज में महिलाओं द्वारा किए जाने वाले रोजमर्रा के घरेलू कार्यो को आर्थिक रूप से उपयोगी नहीं समझा जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि घरेलू महिलाओं को आर्थिक उत्पादन की गणना में प्राथमिकता नहीं दी जाती है। अक्सर घर का कमाने वाला पुरुष सदस्य अपनी पत्नी से कहता है, घर में दिनभर करती क्या हो, टीवी देखने के अलावा तुम्हारे पास काम ही क्या है, तुम्हें क्या पता पैसा कैसे कमाया जाता है। ये कुछ वाक्य हैं, जो अधिकांशत: भारतीय घरों में सुने जाते हैं, जिनमें ओईसीडी यानी ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार पुरुषों के 52 मिनट की तुलना में महिलाएं 350 मिनट से अधिक घरेलू कार्यो में बिताती है, लेकिन इस कार्य को किसी आर्थिक गणना में शामिल नहीं किया जाता है।

इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जनवरी 2021 में कीíत बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले के माध्यम से कहा कि घर पर रहकर कार्य करने वाली महिला का योगदान किसी भी दृष्टि में कार्यालय जाने वाली महिला से कम नहीं है। न्यायालय द्वारा इस मामले में क्षतिपूíत राशि को 11.20 लाख से बढ़ाकर 33.20 लाख रुपये कर दिया गया।

देखा जाए तो यह पहला मामला नहीं था, जब न्यायालय ने महिला के घरेलू कार्य का मूल्य तय किया। लंदन की प्रोफेसर प्रभा कोटिस्वरन ने वर्ष 1968 से 2020 तक के ऐसे लगभग 200 मामलों का अध्ययन किया है जिनमें भारतीय न्यायालयों ने दुर्घटना की क्षतिपूíत राशि देते समय महिला के घरेलू कार्य को अहमियत दी। लेकिन इस मामले में दुख की बात यह है कि उसके कार्यो को यह पहचान उसकी मृत्यु के बाद मिली। समय आ गया है जब इस बारे में समग्रता से विचार किया जाए, ताकि घरेलू महिलाओं के काम को भी सम्मान मिल सके।

वर्ष 1991 की जनगणना में पहली बार महिला के घरेलू कार्यो को गणना योग्य माना गया। लता वाधवा केस में वर्ष 2001 में न्यायालय ने महिला के घरेलू कार्यो का मौद्रिक मूल्य तीन हजार रुपये तय किया, जो अब 34-59 आयु वर्ग की महिलाओं के लिए नौ हजार रुपये तय किया गया है। किंतु अपने ही घर में कार्य करने वाली महिला के घरेलू कार्य की तुलना किसी घरेलू सहायिका के कार्य से नहीं की जा सकती है जिसमें उसे भोजन बनाने, कपड़े धोने आदि की मजदूरी तय कर दी जाए। एक महिला अपने घर में घरेलू सहायिका, शिक्षिका, मैनेजर, नर्स आदि की भूमिका बिना तय घंटों, बिना अवकाश अपने व्यक्तित्व, अपने सपनों को तिलांजलि देते हुए निभाती है। ऑफिस के लोग स्वास्थ्य खराब होने की दशा में अवकाश लेकर आराम करते हैं, लेकिन घरेलू महिलाओं को ऐसा आराम शायद ही कभी मिल पाता हो। एनएसएसओ यानी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस द्वारा जारी संबंधित रिपोर्ट में बताया गया है कि करीब 68 प्रतिशत महिलाओं के पास यह विकल्प ही नहीं है कि बीमार होने पर वे आराम कर सकें।

वर्ष 2003 से 2013 के दौरान भारत में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में भले ही उल्लेखनीय इजाफा हुआ हो, लेकिन जेंडर इक्वलिटी इंडेक्स यानी लैंगिक समानता सूची में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर है। इस इंडेक्स के अनुसार यदि इस मामले में यह रफ्तार बनी रही तब भी स्त्री-पुरुष समानता में अभी 200 वर्ष और लगेंगे।

अब सवाल यह उठता है कि क्या महिला के घरेलू कार्यो का मौद्रिक मूल्य तय किया जाना चाहिए? कुछ लोगों का कहना है कि यह कार्य तो महिला परिवार के प्रति अपने समर्पण के भाव में करती है, इनका मौद्रिक मूल्य उस समर्पण की भावना का अपमान होगा। ऐसे लोगों के घर में भी यदि एक स्त्री पूरे दिन घर संभालती है और दूसरी स्त्री कार्य पर जाती है तो काम पर जाने वाली स्त्री का सम्मान घर में अधिक होता है। साथ ही घर में अनेक प्रकरणों के संदर्भ में लिए जाने वाले निर्णयों में भी कामकाजी महिला की भागीदारी अधिक होती है।

कहते हैं कि आíथक स्वतंत्रता सभी स्वतंत्रताओं की जननी होती है, और स्वतंत्रता ही सम्मान लाती है। आत्मनिर्भर व्यक्ति आत्मगौरव के बोध से वंचित रह जाता है, इसलिए घरेलू कार्यो की पहचान, उसका उचित मौद्रिक मूल्य तय किया जाना आवश्यक है, ताकि उनके योगदान को गौरव मिले। यदि सार्वभौमिक मूलभूत आय के बारे में विचार संभव है तो यह क्यों नहीं? इससे कार्यबल में महिला सहभागिता में भी सुधार होगा।

थप्पड़ फिल्म में पति के थप्पड़ से महिला को जो चोट पहुंची, वह शारीरिक चोट नहीं थी, वह उसकी यही पीड़ा थी कि जब उसने अपनी पसंद से अपनी सारी बेहतर क्षमताओं के बावजूद घर में रहना और उस घर को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयत्न किया, तब उसे इसके लिए गौरव और सम्मान क्यों नहीं मिला? वास्तविकता यह है कि अधिकांश महिलाओं को अपने घर में किए जाने वाले कार्यो के बदले उन्हें मौद्रिक मूल्य की उतनी चाह है ही नहीं, जितनी इस बात की है कि उनके योगदान को पहचान मिले और उनके कार्यो की सराहना की जाए, ताकि उनके भीतर भी गौरवबोध पैदा हो और उन्हें इस बात का अहसास हो कि परिवार और समाज के विकास में उनका भी भरपूर योगदान है।

[प्रोफेसर, समस्तीपुर कॉलेज, बिहार]

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