Analysis: फिर उठी PoK की मांग, वहां की राजनीतिक और आर्थिक हालात भारत के अनुकूल

भारत की रणनीति पीओके की अंदरूनी राजनीति को भेद पाने में अब तक असफल रही है। हमने वहां के नेताओं के मतभेदों का फायदा नहीं उठाया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 18 Sep 2019 09:59 AM (IST) Updated:Wed, 18 Sep 2019 03:37 PM (IST)
Analysis:  फिर उठी PoK की मांग, वहां की राजनीतिक और आर्थिक हालात भारत के अनुकूल
Analysis: फिर उठी PoK की मांग, वहां की राजनीतिक और आर्थिक हालात भारत के अनुकूल

[पुष्परंजन]। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) भारत का हिस्सा है और हमें उम्मीद है कि एक दिन यह हमारा भौगोलिक हिस्सा होगा। ऐसे में जरूरी है कि भारत वहां अपनी सक्रियता तेज करे। वैसे भी वहां के राजनीतिक और आर्थिक हालात अभी भारत के अनुकूल हैं। आगामी 27 सितंबर, 2019 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान संबोधित करेंगे।

पाकिस्तान में उन्माद बनाए रखने के वास्ते ‘आजाद जम्मू एंड कश्मीर’ के हवाले से ऐसी संस्था बनाई गई है, जिसमें धार्मिक-राजनीतिक संगठन के लोगों को शामिल किया गया है। इन लोगों ने मुजफ्फराबाद से नियंत्रण रेखा की ओर कूच करने के अपने फैसले को फिलहाल टाल दिया है।

ये हैं गुलाम कश्‍मीर के प्रधानमंत्री

दरअसल इस कमेटी की सदारत करने वाले पीओके के प्रधानमंत्री राजा फारूक हैदर पहले इमरान खान की रणनीति को समझना चाहते हैं? लगता है कि गुलाम कश्मीर के नेताओं को इस्लामाबाद की नीयत पर शक होने लगा है। उनकी आपस में बन नहीं रही है, संदेह के बादल मंडरा रहे हैं, ऐसी खबरों को सीमा पार ही दबा दी जा रही है। राजा फारूक हैदर नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के नेता हैं। 21 जुलाई, 2016 के चुनाव में 49 सीटों के वास्ते हुए चुनाव में नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को पीओके असेंबली में 31 सीटें हासिल हुई थीं। बेनजीर भुट्टो की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को तीन और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआइ) को मात्र दो सीटें मिली थीं। इसलिए राजा फारूक हैदर को इमरान खान की बिछाई बिसात पर भरोसा नहीं है।

नौ प्रधानमंत्री पीओके में निर्वाचित हुए 

राजा फारूक हैदर को लगता है कि इमरान खान ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस (एमसी) के नेता अतीक अहमद खान के साथ मिलकर कोई खेल करना चाहते हैं। एमसी के पांच सभासद पीओके विधानसभा में चुनकर आए हैं। प्रतिपक्ष में एमसी पहले नंबर की पार्टी मानी जाती है। इमरान खान की पार्टी के नेता सुल्तान महमूद चौधरी का इकबाल पिछले तीन साल में बढ़ा नहीं, इस वजह से नए गठजोड़ की तलाश इमरान खान करते रहे हैं। इमरान खान कश्मीर को गरम इस वजह से भी करना चाहते हैं, ताकि पीटीआइ की जमीन उस इलाके में मजबूत हो और उसके कैडर बढ़ें। पीओके में 1960 तक कोई चुनाव नहीं हुआ था। उसके अगले 15 वर्षों यानी 1975 तक वहां का निजाम जिसे चाहता नेता घोषित कर देता। जून 1975 में पहली बार पीओके में चुनाव हुआ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अब्दुल हमीद खान प्रधानमंत्री बने। तब से अब तक नौ प्रधानमंत्री पीओके में निर्वाचित हुए हैं। पीओके में छह बार मुस्लिम कांफ्रेंस को सत्ता में रहने का अवसर मिला, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी चार बार वहां सरकार बना पाई है और नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को सिर्फ दो बार 23 अक्टूबर, 2009 से 29 जुलाई, 2010 और 31 जुलाई, 2016 से अब तक सत्ता में रहने का सुख प्राप्त हुआ है। इसलिए पीएमएल-एन के प्रधानमंत्री राजा फारूक हैदर बराबर सांसत में हैं कि पता नहीं कब उनकी सरकार को इमरान खान गिरा दें।

एक सदनात्मक व्यवस्था वाली पीओके असेंबली की अवधि पांच साल की है। मगर पूरे पांच साल केवल चार प्रधानमंत्री 1985 में सरदार सिकंदर हयात खान, उनके बाद राजा मुमताज हुसैन राठौर, मुहम्मद अब्दुल कयूम खान और दोबारा से सरदार सिकंदर हयात खान सत्ता में रहे। बाकी के प्रधानमंत्री साल-डेढ़ साल में निपटते रहे। पीओके के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए वहां के वर्तमान प्रधानमंत्री ऐसी किसी अस्थिरता और उन्माद को दावत नहीं देना चाहते, जिस कारण उनकी कुर्सी के लिए खतरा उत्पन्न हो जाए। हालांकि बाहरी दुनिया को वे बताए रखना चाहते हैं कि कश्मीर के सवाल पर सभी दलजमात एक हैं। इसमें जो बात सबसे अधिक अखरती है, वह ये कि भारतीय इंटेलिजेंस और उसकी रणनीति पीओके की अंदरूनी राजनीति को भेद पाने में अब तक असफल रही है। हमने उनके मतभेदों का फायदा नहीं उठाया है।

ग़ुलाम कश्मीर

पाकिस्तान ने अपने अवैध कब्जे वाले कश्मीर को दो प्रशासनिक हिस्सों में बांट रखा है। एक है, ‘पीओके’, और दूसरा है गिलगित- बाल्टिस्तान! ‘पीओके’ यानी ‘पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर’ या ‘ग़ुलाम कश्मीर’ की राजधानी मुजफ्फराबाद है। पाकिस्तान ने बहुत पहले से चीन के वास्ते गिलगित- बाल्टिस्तान का रास्ता साफ कर दिया था। 29 अगस्त, 2009 को ‘गिलगित-बाल्टिस्तान अधिकारिता एवं स्व प्रशासन अध्यादेश’ पाक मंत्रिमंडल द्वारा पारित किया गया था। उस अध्यादेश पर पाक राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई थी।

‘गिलगित-बाल्टिस्तान संयुक्त आंदोलन’ 

अध्यादेश के हवाले से गिलगित- बाल्टिस्तान को स्वशासन का अधिकार प्राप्त हो गया था। उस समय इस कदम की आलोचना भारत के साथ-साथ यूरोपीय संघ ने भी की थी। दूसरी ओर, ‘गिलगित-बाल्टिस्तान संयुक्त आंदोलन’ ने इसे खारिज करते हुए एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग की, जिसे राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार प्राप्त हो। मतलब यदि भारत 370 को निरस्त करते हुए लदाख और जम्मू-कश्मीर की शासन व्यवस्था में संसद द्वारा बदलाव करता है तो पाकिस्तान की निगाह में गलत है। फिर उसने किस आधार पर गिलगित-बाल्टिस्तान को स्वशासित क्षेत्र में बदलने की चेष्टा की थी? यह सवाल एक बार फिर से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष उठाना आवश्यक हो गया है।

यह दिलचस्प है कि अगस्त 2009 में गिलगित-बाल्टिस्तान अध्यादेश पर पाक सरकार की मुहर लगी, और उसके एक माह बाद उसने चीन से ऊर्जा समझौता कर उसे यह अधिकार दे दिया कि वह गिलगित- बाल्टिस्तान की जमीन का इस्तेमाल अपनी परियोजनाओं के लिए करे। उस समय भारत ने इसका विरोध किया था, पर पाकिस्तान ने इस कुतर्क के साथ उसे खारिज कर दिया कि भारत के विरोध का कोई वैधानिक आधार नहीं है। ऐसे में अब भारत को आक्रामक रुख अपनाते हुए पीओके में अपनी गतिविधि बढ़ानी चाहिए।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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