भारत और अमेरिका निकाल सकते हैं एंटीबायोटिक के अत्यधिक इस्तेमाल से उपजी समस्या का समाधान

एंटीबायोटिक के अत्यधिक इस्तेमाल से उपजी समस्या का अमेरिका और भारत मिलकर समाधान निकाल सकते हैं।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Thu, 21 Nov 2019 11:58 PM (IST) Updated:Fri, 22 Nov 2019 12:09 AM (IST)
भारत और अमेरिका निकाल सकते हैं एंटीबायोटिक के अत्यधिक इस्तेमाल से उपजी समस्या का समाधान
भारत और अमेरिका निकाल सकते हैं एंटीबायोटिक के अत्यधिक इस्तेमाल से उपजी समस्या का समाधान

[केनेथ आइ जस्टर]। आखिर किसने सोचा होगा कि फफूंदी लगे खरबूजे में लाखों लोगों की जान बचाने की कुंजी छिपी हुई है? पेन्सिलीन नाम का पहला एंटीबायोटिक ब्रिटिश वैज्ञानिक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में खोजा था। फिर भी 1942 तक इसका व्यापक रूप से उत्पादन संभव नहीं हो पाया। इस बीच अमेरिकी दवा उद्योग ने खरबूजे में एक खास तत्व की मदद से यह संभव कर दिखाया। इसके चलते द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तमाम सैनिकों की जान बचाई जा सकी।

इस चमत्कारिक दवा के चलते प्रथम विश्व युद्ध के दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकी। असल में प्रथम विश्व युद्ध में लड़ाई के दौरान मिले घावों के बजाय उनमें संक्रमण के चलते अधिक सैनिकों की जान गई थी। सामान्य स्थितियों में भी न्यूमोनिया और त्वचा संक्रमण के चलते लोगों की मौत के मामले कम हुए हैं।

नई एंटीबायोटिक दवाओं की खोज ने दिया संकेतों का जवाब

इस बीच तमाम लोगों ने सोचा कि संक्रामक रोगों के खिलाफ जंग जीत ली गई है, मगर पेन्सिलीन के बेअसर होने के संकेत भी मिले। इन संकेतों का जवाब नई एंटीबायोटिक दवाओं की खोज ने दिया। 1985 के अंत में इनफेक्शियस डिजीज सोसायटी ऑफ अमेरिका की वार्षिक बैठक के एक प्रमुख व्याख्यान में संक्रामक रोग विशेषज्ञों की आवश्यकता पर चर्चा की गई।

इस बीच 35 वर्षों से भी कम समय में एक नई वास्तविकता यह सामने आ रही है कि ये जीवनरक्षक दवाएं अब बेअसर हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे एंटी-माक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी एएमआर का नाम दिया है। इसे सुपरबग भी कहा जाता है।

सुपरबग वाली बन जाती है स्थिति

जब बीमारियों पर दवाओं का असर खत्म हो जाता है तब सुपरबग वाली स्थिति बन जाती है। इसे मानव स्वास्थ्य पर शीर्ष दस खतरों में शुमार किया गया है। इसी सुपरबग के चलते सालाना तकरीबन 2,14,000 नवजात शिशु काल के गाल में समा जाते हैं।

दुनिया भर में एएमआर का यह खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। यह दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी उम्र के व्यक्ति को अपना शिकार बना सकता है। ऐसे में यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो एंटीबायोटिक प्रतिरोध हमें फिर से उस स्थिति में पहुंचा सकता है जहां सामान्य से संक्रमण में व्यक्ति की मौत तक हो जाती थी।


गलत धारणाओं ने एंटीबायोटिक दवाओं के अनुचित उपयोग को दिया जन्म

स्पष्ट है कि हमने एंटीबायोटिक्स के अनमोल खजाने को बेवजह लुटाया है। हम मानव एवं पशुओं में बेतरतीब तरीके से उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। यह समस्या गलत धारणाओं से उपजी है। जैसे कि आम सर्दी या फ्लू में भी एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि तथ्य यही है कि ऐसे विषाणु पर ये बेअसर हैं। ऐसी गलत धारणाओं ने एंटीबायोटिक दवाओं के अनुचित उपयोग को जन्म दिया है। वास्तव में इसी कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन प्रतिवर्ष नवंबर माह में एंटीबायोटिक जागरूकता सप्ताह मनाता है। 

एक अनुमान है कि अस्पतालों में प्रयुक्त आधे से अधिक एंटीबायोटिक अनावश्यक रूप से इस्तेमाल किए जाते हैं। जानवरों में भी एंटीबायोटिक्स का अनुचित उपयोग होता है। इनमें से तमाम दवाओं का इस्तेमाल स्थिति बेहतर बनाने के बजाय और बिगाड़ता ही है। इस मोर्चे पर यह बहुत चिंताजनक है कि बीते चालीस वर्षों में एंटीबायोटिक दवाओं का कोई नया वर्ग विकसित नहीं किया गया है।

अमेरिका और भारत में समस्या का समाधान खोजने की अपार क्षमताएं

भारत और अमेरिका एएमआर खतरे के प्रति चिंतित हैं। अमेरिका में प्रति व्यक्ति सबसे अधिक एंटीबायोटिक इस्तेमाल किए जाते हैं। वहीं भारत में कुल एंटीबायोटिक उपभोग काफी अधिक है। यह चुनौतीपूर्ण स्थिति अवश्य है, लेकिन सुधार की उम्मीद शेष है। अमेरिका और भारत में साथ मिलकर किसी भी समस्या का संभावित समाधान खोजने की अपार क्षमताएं हैं। 

जहां दवा उद्योग में नए आविष्कारों और संक्रामक रोगों पर निगरानी प्रणाली के मामले में अमेरिका अग्रणी देश है। वहीं भारतीय दवा उद्योग भी बहुत अच्छी स्थिति में है। यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर भी बढ़िया है।

प्रतिरोधी संक्रमणों की निगरानी प्रणाली बनाई जा रही 

बहरहाल इस समस्या से निपटने के लिए हम कई स्तरों पर काम कर रहे हैं। इसके तहत अस्पताल में संक्रमण नियंत्रण को मजबूत बनाने के साथ ही रोगाणुरोधी- प्रतिरोधी संक्रमणों की निगरानी प्रणाली बनाई जा रही है। वैज्ञानिकों और एएमआर के लिए समाधान तलाशने वाले वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों की सहायता ली जा रही है। साथ ही नए शोध एवं अनुसंधान के लिए वित्तीय प्रोत्साहन भी बढ़ाया जा रहा है। यह प्रतिबद्धता पिछले महीने तब दोहराई गई जब मैं एएमआर संबंधी अनुसंधान और नीति के एक नए केंद्र का उद्घाटन करने के लिए कोलकाता गया। 

मेरे साथ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक बलराम भार्गव भी शामिल थे। वहां मैंने संकल्प लिया कि एएमआर का मुकाबला करने में हम भारतीय सहयोगियों के साथ अपनी सक्रियता और बढ़ाएंगे। इसमें स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और जैव प्रौद्योगिकी विभाग जैसे सहयोगी शामिल हैं।

एंटीबायोटिक लेने से पहले डॉक्टरों से परामर्श लेना आश्यक

जब हमारी सरकारें इस समस्या को सुलझाने में जुटी हैं तो इसके व्यापक समाधान के लिए सामूहिक भागीदारी भी जरूरी होगी। हमें एंटीबायोटिक लेने से पहले एक योग्य डॉक्टर से परामर्श अवश्य लेना चाहिए। स्वच्छता का भी ध्यान रखना होगा ताकि संक्रमण न फैल सके। अच्छी तरह से हाथ साफ करना, मुंह पर हाथ रखकर खांसना और बीमार होने पर बेहतर हो तो घर में ही रहने जैसे उपाय करने होंगे। 

किसानों को भी मवेशियों का टीकाकरण कराना चाहिए

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों को संक्रमण नियंत्रण का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए मान्य दिशानिर्देशों को अपनाया जाए। दवाओं में अनावश्यक एंटीबायोटिक प्रिस्क्राइब करने से बचें। साथ ही संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए टीकाकरण को बढ़ावा दिया जाए। किसानों को भी अपने मवेशियों का टीकाकरण कराना चाहिए। इसमें यह ध्यान रहे कि यह प्रक्रिया किसी कुशल पशु चिकित्सक की देखरेख में ही संपन्न हो। 

दवा उद्योग का भी यह दायित्व है कि वह नए एंटीबायोटिक की खोज करे। इसमें यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उनके साथ सुपरबग वाली स्थिति भी उत्पन्न न हो। हमें इस चुनौती का व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों स्तरों जवाब देना होगा। एएमआर से मुकाबले में अमेरिका और भारत के साझा प्रयास दोनों देशों के अलावा पूरी दुनिया के लिए लाभ के प्रतीक होंगे।

(लेखक भारत में अमेरिका के राजदूत हैं)

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